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महात्मा गांधी जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था की समस्या और हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता के सवाल पर हमेशा यह चाहते थे
ब्रिटिश सरकार ने भारत छोड़ने की प्रक्रिया के तहत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, आल इंडिया मुस्लिम लीग, विभिन्न रियासतों और अन्य समूहों (भारत के वंचित तबकों को हितों के लिए संघर्षरत) के बीच मध्यस्थ बनने और भारत की स्वतंत्रता को अपने हितों के मुताबिक़ आकार देने की कोशिश की. यह पहल भारत के लिए बहुत रचनात्मक साबित नहीं हुई. इस पहल ने भारत के हालात को बिगाड़ दिया. महात्मा गांधी जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था की समस्या और हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता के सवाल पर हमेशा यह चाहते थे कि अंग्रेज़ सरकार दखल न दे.
उनका मानना था कि ये हमारी समस्याएं हैं, हम खुद इन्हें सुलझा लेंगे. लेकिन अंग्रेजों की भूमिका ने मसलों को ज्यादा जटिल बना दिया. वाल्टर रीड ने लिखा है कि हिंद महासागर क्षेत्र में अपने सामरिक हितों को सुरक्षित रखना कैबिनेट मिशन का मुख्य उद्देश्य था. 'भारतीय संविधान–राष्ट्र की आधारशिला' सरीखी सुन्दर पुस्तक लिखने वाले ग्रेनविले आस्टिन का कहना है कि 'गैर-भारतीय कैबिनेट मिशन को कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच मध्यस्थता का प्रयास नहीं करना चाहिए था. इस प्रयास की असफलता निश्चित थी'.
18 जुलाई 1946 को कैबिनेट मिशन की रिपोर्ट पर चर्चा करते हुए विंस्टन चर्चिल (जो ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमन्त्री थे) ने कहा कि 'दूसरे विश्व युद्ध के दौरान वर्ष 1942 में ब्रिटिश सरकार ने क्रिप्स मिशन भारत भेजा था. उस वक्त जापान की नौ सेना ने लगभग पूरी बंगाल की खाड़ी पर नियंत्रण हासिल कर लिया था और पूरी आशंका थी कि जापान भारत पर आक्रमण करके उसे पूरी तरह से तबाह कर देगा. दूसरे विश्व युद्ध के सन्दर्भ में कांग्रेस ने निर्णय लिया था कि भारतीय सैनिक इस युद्ध में ब्रिटेन के लिए नहीं लड़ेंगे.
उस स्थिति में मैंने पूरी जिम्मेदारी लेते हुए भारत को ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में स्वतंत्र उपनिवेश का दर्ज़ा देने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन वर्तमान कैबिनेट मिशन ने भारत को पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव दे दिया है'. इस पर सर स्टेफर्ड क्रिप्स ने कहा कि 'लेकिन उस प्रस्ताव पर भारतीय राजनीतिक दल सहमत नहीं हुए थे' इसका मतलब है कि भारत ने आंशिक नहीं, बल्कि पूरी आज़ादी के लक्ष्य को केंद्र में रखा था.
तत्कालीन भारत की चुनौतियां
भारत की आज़ादी के संघर्ष पर कोई भी नजरिया बनाने से पहले तत्कालीन भारत (जिसकी आबादी लगभग 40 करोड़ थी) के भीतर की चुनौतियों को समझना होगा. विंस्टन चर्चिल ने अपने वक्तव्य में कुछ आंकड़े दिए थे 'भारत में वंचित तबकों की जनसंख्या लगभग 6 करोड़ है, इन्हें अल्पसंख्यक कह देने से मुद्दे की गंभीरता कम हो जाती है. मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या 9 करोड़ है, इसके साथ ही रियासतों की आबादी 9.5 करोड़ है'. और इन सबकी मांग थी अपना वजूद, अपनी अस्मिता.
यदि भारत के राजनीतिज्ञ संवाद नहीं करते, एक दूसरे से नरमी से पेश नहीं आते और सामंजस्य की सीमा से बाहर जाते तो भारत की स्थिति क्या होती? यह हम सबको सोचना चाहिए! कैबिनेट मिशन की योजना को कांग्रेस ने स्वीकार किया, लेकिन को प्रावधान भारत को कमज़ोर कर सकते थे, उनमें से किसी भी प्रावधान को उसने लागू नहीं होने दिया. भारत की आज़ादी को व्यवस्थित रूप देने के लिए ब्रिटिश संसद ने प्रधानमंत्री एटली की पहल पर तीन वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारियों की सदस्यता वाला कैबिनेट मिशन भारत भेजा था.
इस मिशन की रणनीति और प्रक्रिया यह थी कि भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों, रियासतों और समुदायों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए भारत में अंतरिम सरकार का गठन करवाना और इसके साथ ही संविधान सभा का स्वरुप निर्धारित करना. ये दोनों उद्देश्य एक दुसरे के साथ गुंथे हुए हैं, इसलिए संविधान सभा के गठन की घटनाक्रम को समझने के लिए अंतरिम सरकार के गठन के घटनाक्रम को भी समझना बेहद जरूरी है. कैबिनेट मिशन ने योजना बनायी थी कि भारतीय संघ के भीतर प्रांतों के तीन मंडल (मंडल यानी प्रांतों/राज्यों/रियासतों का समूह) होंगे.
दो मंडल उत्तरपूर्व और उत्तर पश्चिम में मुस्लिम बहुल मंडल होंगे और शेष हिंदू बहुल मंडल होगा. तीनों मंडल स्वायत्त होंगे. एक ऐसा संविधान बनेगा, जिसमे भारतीय संघ (केंद्र) के पास विदेश मामलों, रक्षा और संचार से जुड़े विषय होंगे और शेष विषय मंडलों और प्रांतों की स्वायत्तता के अधीन होंगे. संविधान सभा का प्रतिनिधित्व निर्धारित करते समय मंडल-अ (मुख्य रूप से हिंदू बहुल) के लिए 187, मंडल–ब (मुख्य रूप से उत्तर-पश्चिम और मुस्लिम बहुल) के लिए 35 और मंडल-स (बंगाल और आसाम) के लिए 70 सदस्य संख्या तय के गई.
इनमें 4 मुख्य आयुक्त ब्रिटिश प्रांतों – दिल्ली, अजमेर-मेवाड़, कूर्ग और बलूचिस्तान के लिये 1-1 प्रतिनिधि तय किया गया. इसके साथ ही संविधान सभा में रियासतों को शामिल करने के लिए उनके 93 प्रतिनिधियों का स्थान सुनिश्चित किया गया. इस तरह 389 प्रतिनिधियों वाली संविधान सभा का स्वरुप बना.
मुस्लिम लीग का असहयोग
कैबिनेट मिशन ने जिस तरह की अंतरिम सरकार के गठन (जिसमे 6 पद कांग्रेस, 5 मुस्लिम लीग, एक सिख और दो पारसी और भारतीय ईसाई प्रतिनिधि के लिए तय हुए थे) की व्यवस्था बनायी थी, उससे कांग्रेस असहज थी, लेकिन फिर भी विभाजन की संभावना को खत्म करने के लिए उसने इसे भी स्वीकार किया. मुस्लिम लीग जानती थी कि अंतरिम सरकार में शामिल होने का मतलब होगा संविधान सभा में भी शामिल होना और इससे उसकी पाकिस्तान की मांग कमज़ोर पड़ती.
जिस तरह से ब्रिटिश हुकूमत ने रणनीतिक तरीके से मुस्लिम समुदाय में यह भावना भर दी थी कि वे अल्पसंख्यक हैं और ऐसे में उन्हें अस्मिता के लिए विशेष राजनीतिक संघर्ष और व्यवस्था के लिए तत्पर रहना चाहिए, उसके चलते मुस्लिम लीग यह स्वीकार नहीं कर पा रही थी कि किसी भी रूप में उसे अखंड भारत में और न्यायोचित स्थान मिलेगा. कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने अपने-अपने तरीके से कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार किया.
अब सवाल था कि संविधान सभा के प्रतिनिधियों का चुनाव कैसे होगा? सबसे बेहतर स्थिति होती कि भारत के सभी इलाकों में चुनाव होते और सभी वयस्क अपने प्रतिनिधि चुनते, लेकिन इसमें बहुत ज्यादा समय निकल जाता और स्थितियां जितनी संवेदनशील थीं, उनमें चुनाव कराना भी संभव नहीं था. साथ ही ब्रिटिश सरकार भी भारत से जल्दी से जल्दी निकल जाना चाहती थी क्योंकि साम्प्रदायिक टकराव और शासन प्रबंधन का खर्च भी बढ़ रहा था.
ऐसे में वर्ष 1946 में हुए प्रांतीय चुनावों में चुनकर आई प्रांतीय सभाओं ने निर्धारित संख्या (हर दस लाख की जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि) में संविधान सभा के लिए अपने प्रतिनिधि चुने. इसमें कांग्रेस को बहुमत से कहीं ज्यादा स्थान मिले. मुस्लिम लीग पाकिस्तान की मांग पर प्रतिबद्ध थी लेकिन फिर भी उसे अंतरिम सरकार और संविधान सभा में लाने की कोशिशें जारी थी. अंततः उसने अक्टूबर 1946 में अंतरिम सरकार में शामिल होने का फैसला किया, लेकिन सरकार के संचालन में सहयोग नहीं दिया. आखिरकार लीग संविधान सभा में कभी शामिल नहीं हुई.
जुलाई 1946 में कांग्रेस ने संविधान का स्वरुप निर्धारित करना शुरू कर दिया. इसके लिए जवाहर लाल नेहरु, आसफ अली, एन. गोपालस्वामी आयंगर, के.टी.शाह, के. संथानम, हुमायूं कबीर, के. एम. मुंशी और डी. आर. गाडगिल को जोड़ कर विशेषज्ञ समिति बनायी गयी. उन परिस्थितियों में संविधान बनाना बहुत कठिन काम था क्योंकि कांग्रेस भारत को एक सम्पूर्ण संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बनाना चाहती थी, लेकिन कैबिनेट मिशन ने भारत को तीन मंडलों में विभाजित करने की योजना दी थी और प्रांतों को ज्यादा शक्तियां और स्वायत्तता दी गयी लेकिन संघ (केंद्र) को कमज़ोर रखा गया थी.
जबकि, नया रूप ले रहे भारत को लोकतांत्रिक बनाने के लिए केंद्र सरकार को ज्यादा ताकत दिए जाने की जरूरत थी. इतना ही नहीं यह भी अनिश्चितता थी कि लोकतंत्र को निभाने के लिए जनता को बहुत शक्तियां देना होती हैं और सवाल यह था कि क्या भारत के लोग उन शक्तियों का इस्तेमाल करने के लिए परिपक्व थे? जब कांग्रेस की विशेषज्ञ समिति प्रारम्भिक प्रारूप बना रही थी, तब कांग्रेस यह मान रही थी कि कैबिनेट मिशन का भारत का साम्प्रदायिक आधार पर तीन मंडल समूहों में वर्गीकरण अनिवार्य नहीं है.
साथ ही, क्या सभी मंडल अपना-अपना संविधान बनायेंगे या फिर भारत के राष्ट्रीय संविधान के किसी ख़ास हिस्से में अपना योगदान देंगे? सवाल यह भी था कि मंडल और प्रांत के बनाये संविधानों को अंतिम सहमति उनकी अपनी प्रांतीय सरकारें देंगी या केन्द्रीय संविधान सभा से उन्हें पारित करवाया जाना जरूरी होगा? तत्कालीन वायसराय लार्ड वावेल का मत था कि यह अनिवार्य नहीं है, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने मुस्लिम लीग की उस व्याख्या का समर्थन किया कि भारत को तीन मंडलों में बांटा जाना और और हर मंडल का अपना संविधान होना कैबिनेट मिशन योजना के तहत अनिवार्यता है.
कैबिनेट मिशन योजना को ज्यों का त्यों लागू करने से भारत एक कमज़ोर स्वतंत्र राष्ट्र बनता, लेकिन परिपक्व राजनैतिक प्रक्रिया से इन प्रावधानों को एक-एक करके बाहर निकाल दिया गया. एक प्रश्न यह भी था कि संविधान सभा के पहले दिन की बैठक की अध्यक्षता कौन करेगा? के.एम.मुंशी ने लिखा है कि वायसराय लार्ड वावेल का मानना था कि चूंकि संविधान सभा का गठन ब्रिटिश सरकार ने किया है, इसलिए वे सभापति की नियुक्ति करेंगे; लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट रुख रखा कि उन्हें ऐसा करने का अधिकार नहीं है क्योंकि संविधान सभा अपने आप में संप्रभु है. आखिर में तय किया गया कि सबसे वरिष्ठ सदस्य को कार्यकारी सभापति बनाया जाएगा.
वैधानिकता पर प्रश्न
इसके दूसरी तरफ विंस्टन चर्चिल ब्रिटिश संसद में यह सवाल उठा रहे थे कि अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व (मुस्लिम लीग का) संविधान सभा में नहीं होने से इसकी कोई वैधानिकता नहीं रह गयी है. यह केवल बहुसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करने वाले सभा है. विस्काउंट साइमन ने तो यह भी कहा कि यह जातिवादी हिन्दुओं की सभा है. इसका मतलब यह भी लगाया जा सकता है कि ब्रिटिश सरकार यह सोच रही थी कि भारत में संविधान सभा जीवित नहीं रह पायेगी और उन्हें ही भारत का संविधान बनाने का मौका मिला जाएगा, लेकिन ऐसा होने नहीं दिया गया. भारतीय राजनीतिज्ञों ने आज़ादी को संभालने का काम पूरी जिम्मेदारी से किया. भारत का विभाजन हुआ, लेकिन शायद उन परिस्थितियों में यह एकमात्र संभावना थी.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
सचिन कुमार जैन, निदेशक, विकास संवाद और सामाजिक शोधकर्ता
सचिन कुमार जैन ने पत्रकारिता और समाज विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद समाज के मुद्दों को मीडिया और नीति मंचों पर लाने के लिए विकास संवाद समूह की स्थापना की. अब तक 6000 मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए 200 प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर चुके हैं, 65 पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं है. भारतीय संविधान की विकास गाथा, संविधान और हम सरीखी पुस्तकों के लेखक हैं. वे अशोका फैलो भी हैं. दक्षिण एशिया लाडली मीडिया पुरस्कार और संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित.
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