सम्पादकीय

The Kashmir Files ने पुरानी बहसों को जीवित और अब तक न भरे जख़्मों को हरा कर दिया है

Rani Sahu
23 March 2022 10:35 AM GMT
The Kashmir Files ने पुरानी बहसों को जीवित और अब तक न भरे जख़्मों को हरा कर दिया है
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आजादी के बाद से बीते सात दशकों के दौरान कई कहानियां ऐसी रही हैं जिन्हें हमारी सामूहिक यादों से या तो मिटाया गया है

अनिर्बान गांगुली

आजादी के बाद से बीते सात दशकों के दौरान कई कहानियां ऐसी रही हैं जिन्हें हमारी सामूहिक यादों से या तो मिटाया गया है या फिर उनका दमन किया गया है. कांग्रेस (Congress) की तत्कालीन सरकारों और वामपंथी पार्टियों के नेताओं ने कश्मीरी पंडितों (Kashmiri Pandits) के नरसंहार, पलायन और अपने ही देश में रिफ्यूजी बनने की कहानियों को हल्का करके दिखाने की कोशिश की. पूरब के विभाजन और इसके बाद दशकों चले नरसंहार की घटनाएं, बंगाली हिंदुओं (Bengali Hindus) को उनकी पैतृक भूमि और उनके घरों से बाहर निकालने की कहानियां, अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए कोलकाता के फुटपाथों में रहने की मजबूरी और दंडकारण्य के जंगलों की घटनाएं, ये वे विषय हैं जिनका कभी वर्णन नहीं किया गया.
इसी तरह, ज्योति बसु की अगुवाई वाली लेफ्ट फ्रंट की सरकार और सहयोगी कामरेडों द्वारा सुंदरबन के मारीचझापी द्वीप में बसने का प्रयास करने वाले दलित हिंदू रिफ्यूजियों पर गोली चलवाने की कहानी को भी तब तक सामने लाने का प्रयास नहीं किया गया, जब तक एक लेखक ने इस बारे में लिखने का साहस नहीं दिखाया.
आपातकाल पर भी फिल्म बनना अभी बाकी है
आपातकाल के काले दौर में जब इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी के चापलूसों ने पूरे भारत को जेल बनाकर रख दिया था, जब कलाकारों का बहिष्कार किया गया, जब राजनीतिक विरोधियों को जेल में भर दिया गया और उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी गईं, इन सब घटनाओं को अभी भी एक बड़े फीचर फिल्म के तौर पर दिखाया जाना बाकी है. ऐसा करना बेहद जरूरी है, ताकि हमारी पीढ़ियां इनके बारे में जान सकें और इनसे अपना नाता बना सकें और हमारी लोकतांत्रिक और संवैधानिक सार और ताने-बाने की रक्षा करने और उन्हें बचाए रखने में सक्षम हो सकें.
इस देश में सबसे लंबे वक्त तक शासन करने वाली एक राजनीतिक परिवार वाली कांग्रेस द्वारा की गई कपटपूर्ण राजनीति को बेनकाब करने के लिए इस तरह की फिल्में बनाना बेहद जरूरी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी यही मंशा जाहिर की जब उन्होंने यह कहा कि आपातकाल पर भी फिल्म बनना अभी बाकी है. वे सिंडीकेट, जो बीते पचास सालों से इतिहास के लेखन पर हावी रहे हैं, जो भारत में नरेटिव तैयार करने का काम करते रहे हैं, इन लोगों ने जानबूझकर आजाद भारत की दर्दनाक घटनाओं को दिखाने के प्रयासों का दमन किया है या फिर उन्हें हाशिए पर डाल दिया है. वास्तव में ये घटनाएं हमारे लोकतंत्र की नींव को हिला कर रख देने वाली हैं और ये घटनाएं भारत के संविधान के आधार पर सवाल खड़े करती हैं.
इन गुटो ने अपने अच्छे दिनों में ऐसी किसी भी घटना को अपने हिसाब से नियंत्रित किया या फिर उनका गला ही घोंट कर रख दिया, चाहे वे घटनाएं कितनी भी डराने वाली या फिर चौंकाने वाली रही हों. इससे धर्मनिरपेक्षता को लेकर इन लोगों की गलत परिभाषा और दोहरे चरित्र उजागर हो चुके हैं और उन पर सवालिया निशान लग गए हैं. वैसे तो इन लोगों ने दुनिया भर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विचारों में भिन्नता रखने के अधिकारों का ढोल पिटा, लेकिन यहां इन्होंने बौद्धिक और सांस्कृतिक भेदभाव को बढ़ावा दिया, ऐसे लोगों का दमन या बहिष्कार किया जिन लोगों के पास अलग कहानी थी या फिर सोचने-विचारने का अलग नजरिया था.
इस फिल्म ने हमारे सामूहिक विवेक को झकझोर कर रख दिया है
फिल्म का जवाब फिल्म से, किताब का जवाब किताब से, नाटक का जवाब नाटक से देने के बजाए, इतिहास को लेकर इनके अपने वर्णन का प्रसार करने के बजाए, इन सभी वामपंथियों और कांग्रेस संरक्षित बौद्धिक और एकैडमिक गुटों, जिन्होंने वास्तविक इतिहास को उजागर करने के प्रयासों का दमन किया, जिन्होंने प्रकाशकों को डराया-धमकाया, जिन्होंने विभिन्न संस्थानों व फोरमों पर दबाव डाला, उनकी अब निंदा करनी चाहिए और इनके वर्णन और रिसर्च को खारिज करने का प्रयास होना चाहिए.
कश्मीरी पंडितों का पलायन और उनके नरसंहार की घटनाएं, इन गुटों के एकाधिकार का शिकार हो गईं. इस कहानी का कभी जिक्र नहीं किया गया, या फिर जब किया गया तो गलत तरीके से टुकड़ों में पेश किया गया, उनके पलायन और इसके कारण को वाजिब ठहराने की कोशिश की गई. संक्षेप में कहा जाए तो "द कश्मीर फाइल्स" के आने से पहले कश्मीर में पाकिस्तानी एजेंडा चलाने वाले आतंकियों और अलगाववादियों को संदेह-लाभ देने की कोशिश की गई, उनके घिनौने कृत्य को सही बताने का प्रयास किया गया.
"द कश्मीर फाइल्स" को नकार न सकने या फिर इसका दमन न कर सकने का कारण, जनता से इसे मिली जोरदार प्रतिक्रिया है. गहरे शोध और तथ्यों पर आधारित इस फिल्म ने, जिसे सिनेमा जगत के बड़े नामों के साथ कुशलतापूर्वक चित्रित किया गया है, वास्तव में हमारे सामूहिक विवेक को झकझोर कर रख दिया है. फिल्म के जरिए आंदोलन का जन्म हो सकता है या फिर इसे प्रदर्शित किया जा सकता है. इस फिल्म ने एक आंदोलन शुरू कर दिया है, इसने बड़ी संख्या में युवाओं को हिला कर रख दिया है, ये ऐसे युवा हैं जिन्हें इस नरसंहार के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है या जिन्हें इस घटना की तीव्रता और अमानवीय के बारे में कोई आइडिया नहीं है. 'द कश्मीर फाइल्स' ने उन लोगों को आईना दिखाया है जो अब तक खामोश रहे, या कश्मीरी पंडितों के पलायन और नरसंहार के अपराध को सक्रिय रूप से वाजिब बताते रहे. यह वही लोग हैं जो इसके खिलाफ जोरों से चिल्ला रहे हैं, या नरसंहार का दोष दूसरों पर मढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.
प्रधानमंत्री जेकेएलएफ के नेता यासीन मलिक से हाथ मिला रहे थे
इस फिल्म ने पुरानी बहसों और अब तक न भरे घावों को फिर से खुरच कर रख दिया है. इस फिल्म ने स्वयंभू नेताओं और ओपिनियन तय करने वाली की उस पीढ़ी और मानवाधिकारों के उन झंडाबरदारों को हिला कर रख दिया है, जो उस वक्त चुप्पी साधे रहे जब उनके प्रधानमंत्री आतंकी संगठन जेकेएलएफ के नेता यासीन मलिक से हाथ मिला रहे थे, यह वही मलिक था जो निर्दोष नागरिकों पर गोली चलाने वालों का और कश्मीर में शैतानी पाकिस्तानी एजेंडा चलाने वालों का अगुवा था.
इसने एक पूरी पीढ़ी को याद दिलाया है और शिक्षित किया है कि कैसे, एक बार कश्मीर में, कलाश्निकोव (एक तरह का रूसी राइफल) पकड़े भीड़ ने 'नूर-ए-चश्म, नूर-ए-हक, जिया-उल-हक, जिया-उल-हक' या 'पाकिस्तान जिंदाबाद, खालिस्तान जिंदाबाद', 'मुस्लिम-सिख भाई भाई, हिंदू कौम कहां से आई', जैसे खूनी नारे लगाए. यह फिल्म इसी पीढ़ी को कश्मीर के उस दौर के बारे में बताती है जब कश्मीर में 14 अगस्त को पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता था और भारत के स्वतंत्रता दिवस के दिन हड़ताल कर दिया जाता था, जब श्रीनगर में विस्फोट होना आम दिनों की बात थी, जब सार्वजनिक रूप से तिरंगे को जलाया जाता था और भीड़ इसका समर्थन करती थी.
जो लोग 'द कश्मीर फाइल्स' को रोकने की कोशिश कर रहे हैं, वे केवल अपनी भागीदारी और कश्मीरी पंडितों के नरसंहार के अपराधियों और उनके साथ अपनी मिलीभगत को उजागर कर रहे हैं. उन्हें अपनी बात कहने के लिए एक और फिल्म बनाने दें, अगर उनके पास कोई बात बची भी है. 'द कश्मीर फाइल्स' को दबाने का प्रयास जागृत राष्ट्रीय चेतना की आग को बुझाने की कोशिश के समान होगी. अब नए भारत में ऐसा कुछ नहीं हो पाएगा.
Rani Sahu

Rani Sahu

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