सम्पादकीय

जन सरोकारी बनाते हुए राजनीतिक वि‍मर्श का विषय बनाना होगा पर्यावरण का मसला

Rani Sahu
24 Feb 2022 1:41 PM GMT
जन सरोकारी बनाते हुए राजनीतिक वि‍मर्श का विषय बनाना होगा पर्यावरण का मसला
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देश के 132 शहरों में पार्टिकुलेट मैटर के स्तर को 20-30 प्रतिशत तक कम करने के लिए शुरू किए गए राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) के तीन साल के परिणाम निराश करने वाले हैं

संजीव गुप्ता।

देश के 132 शहरों में पार्टिकुलेट मैटर के स्तर को 20-30 प्रतिशत तक कम करने के लिए शुरू किए गए राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) के तीन साल के परिणाम निराश करने वाले हैं। हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि जमीनी स्तर पर या तो बहुत कम प्रगति हुई या हुई ही नहीं। अधिकांश नान-अटेनमेंट (जहां पहले ध्यान ही नहीं दिया जाता था) शहरों में पीएम 2.5 और पीएम 10 के स्तर में गिरावट नाममात्र की हुई, जबकि काफी शहरों में इसमें वृद्धि देखने को मिल गई।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने 102 शहरों में वायु प्रदूषण नियंत्रित करने के लिए जनवरी 2019 में एनसीएपी शुरू किया था। बाद में इसमें 30 शहर और जोड़े गए। इन सभी 132 शहरों को नान-अटेनमेंट शहर कहा जाता है, क्योंकि इन्होंने एनएएमपी के तहत 2011-15 की अवधि में भी राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानकों (एनएएक्यूएस) को पूरा नहीं किया था। दरअसल कंटीन्यूअस एंबिएंट एयर क्वालिटी मानिटरिंग सिस्टम (सीएएक्यूएमएस) से प्राप्त वायु गुणवत्ता निगरानी आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि जिन शहरों में 2019 और 2021 के पीएम 2.5 और पीएम 10 के स्तर उपलब्ध थे, उनमें से वाराणसी में सर्वाधिक गिरावट दर्ज की गई। देश के 132 शहरों में से केवल 36 ही मानदंडों पर खरे उतरे। प्रदूषित शहरों की तालिका में गाजियाबाद शीर्ष पर रहा। नोएडा, दिल्ली, मुरादाबाद, जोधपुर जैसे अधिकांश शहरों में पीएम 2.5 के स्तर में मामूली गिरावट देखी गई। पीएम 2.5 के स्तर में गिरावट के साथ वाराणसी 2019 में पांचवीं रैंक से 2021 में 37वें स्थान पर आ गया। सूची में शीर्ष 10 प्रदूषित शहरों में से चार उत्तर प्रदेश, जबकि तीन शहर बंगाल के थे। आठ शहरों- गाजियाबाद, दिल्ली, नोएडा, वाराणसी, मुरादाबाद, जोधपुर, मंडी, गोबिनगढ़ और हावड़ा पीएम 10 के लिहाज से सबसे प्रदूषित शहर हैं। यानी 10 शहरों में से चार उत्तर प्रदेश के हैं। पीएम 2.5 की तरह, गाजियाबाद पीएम 10 के स्तर के लिए भी सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में शीर्ष पर रहा है। शहर में पीएम 10 के स्तर में केवल 243 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से 238 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की मामूली गिरावट देखी गई।
हैरत की बात यह कि इतनी गंभीर स्थिति के बावजूद इस बार भी पांच राज्यों के चुनावी विमर्श से प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन का मुद्दा गायब रहा। कैसी विडंबना है कि पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के गंभीर परिणामों का सामना कर रही है, लेकिन भारत में यह अब भी चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा। अभी भी यह मसला केवल पढ़े-लिखे वर्ग का ही मुद्दा है, आम जन का नहीं। हमें समझना होगा कि कोई विज्ञानी वायु प्रदूषण का समाधान नहीं कर सकता। यह किसी एक तबके का काम नहीं है। विज्ञानी हमें वायु प्रदूषण का कारण बता सकते हैं और थोड़ा बहुत समाधान भी सुझा सकते हैं, लेकिन उसे जमीन पर उतारना हमारा ही काम है। हमें एक सुव्यवस्थित रवैया अपनाना होगा और आम लोगों को साथ लेकर प्रदूषण के गंभीर वर्तमान और भावी दुष्परिणामों के बारे में उन्हें जागरूक करना होगा। जिस दिन प्रदूषण का मुद्दा जन चर्चा और जन सरोकार का मुद्दा बनेगा, उसी दिन यह एक राजनीतिक मुद्दा भी बन जाएगा और राजनीतिक पार्टियां इसे अपने घोषणापत्र में शामिल करने को मजबूर हो जाएंगी।
प्रमुख राजनीतिक दलों को जलवायु परिवर्तन को मुद्दा बनाना चाहिए, मगर पहले वे अपने चुनाव घोषणापत्र में इसे शामिल तो करें। सबसे पहले तो राजनीतिक दलों को प्रभावित करने की जरूरत है, ताकि वे इस मसले को गंभीरता से लें। आमतौर पर राजनीतिक दलों को केवल इस बात की चिंता होती है कि फलां मुद्दे से उन्हें वोट मिलेगा या नहीं। ध्यान रखना होगा कि जनता के बीच जितनी जानकारी पहुंचती है, लोगों में उतनी ही ज्यादा जागरूकता फैलती है। उतना ही ज्यादा वे उसकी रोकथाम के लिए कदम उठाते हैं।
थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो तंबाकू के खिलाफ चलाए गए अभियान में लोगों को काफी हद तक यह विश्वास दिला दिया गया कि तंबाकू से कैंसर होता है। इसका परिणाम यह हुआ कि तंबाकू के इस्तेमाल से लोगों ने परहेज करना शुरू कर दिया। जागरूकता फैली तो कानूनी बंदिशें भी लागू की गईं कि कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान नहीं कर सकता। कहने का मतलब यह कि जब कोई मुद्दा जन सरोकार का मुद्दा बनता है, तभी राजनेता उसे प्राथमिकता देते हैं।
मौसम की चरम स्थितियों ने भी वायु प्रदूषण को आज विचार विमर्श के केंद्र में ला दिया है। उत्तराखंड में हुई कई आपदाओं ने जलवायु परिवर्तन की तरफ इशारा किया है। इस बार उत्तर प्रदेश में मौसम का मिजाज बदल गया। ऐसा कहा जाता था कि मकर संक्रांति के बाद ठंड कम होने लगेगी, लेकिन हुआ इसके विपरीत। मौसम के बदलते मिजाज का फसलों पर असर पड़ता है, इसलिए यह अच्छा अवसर है कि किसानों और ग्रामीणों को प्रदूषण के मुद्दे पर और जागरूक किया जाए। जब तक हम खुद नहीं समझेंगे कि हमें अपने कार्बन फुटप्रिंट को कम करना है, तब तक कुछ नहीं होगा। हर नागरिक को जागरूक होना पड़ेगा। भारत में वायु प्रदूषण को आमजन की चर्चा का विषय बनाना फिलहाल बहुत मुश्किल है। हमें चीजों को पंचायती राज और ब्लाक स्तर तक ले जाना होगा। राजनेता और चुनाव लडऩे वाले लोग हमारे बीच से ही आते हैं। अगर आम नागरिक ही प्रदूषण के प्रति जागरूक नहीं होंगे तो हम अपने बीच से आने वाले राजनेताओं में इसकी चिंता कैसे पैदा कर सकते हैं।
Rani Sahu

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