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Written by जनसत्ता: 'महंगाई की करवट' (संपादकीय, 14 सितंबर) पढ़ा। जमीनी वास्तविकता के विपरीत आंकड़ों की आड़ में अर्थव्यवस्था के उछाल पर नगाड़े बजा रही केंद्र सरकार के लिए यह एक सबक की बात है कि औद्योगिक उत्पादन के विकास की दर 2.4 फीसद के निम्न स्तर पर पहुंच गई है। निर्यात भी निराशाजनक है। इसके बावजूद सरकार विशेषज्ञों की चेतावनी की परवाह तो कर ही नहीं रही है, रिजर्व बैंक की चिंता को भी नजरअंदाज कर रही है। वहीं अभूतपूर्व महंगाई की मार से बेबस जनता त्रस्त है। जरूरी सामान और खाद्य वस्तुओं के दामों में बढ़ोतरी रोकने में तो सरकार विफल रही है।
वैश्विक स्तर पर कच्चे तेलों की कीमतों में चल रही कमी के बावजूद रसोई गैस, पेट्रोल, डीजल के बढ़े हुए दामों में कटौती नहीं किया जाना दरअसल सरकारी महंगाई है। औसतन 20-30 हजार रुपए की मासिक आमदनी बहुसंख्यक परिवारों को जब हर माह रसोई गैस का सिलेंडर 1053 रुपए में भरवाना पड़ता है तो उसकी आह सरकार को सुनाई नहीं देती है।
एक गरीब व निम्न मध्यम परिवार को बच्चों की शिक्षा व अन्य जरूरतों के खर्च में कटौती करनी पड़ रही है। इससे छोटे दुकानदारों और उत्पादकों की आय भी कम हो रही है। शहरों में बड़े बाजारों की चकाचौंध में ऐसे नागरिकों के दर्द की अनदेखी किया जाना सामाजिक अन्याय है।