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जिंदगी में रोमांच का अपना महत्व है। लेकिन
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। जिंदगी में रोमांच का अपना महत्व है। लेकिन जिंदगी खुद में कम रोमांच नहीं है। इसका आभास बीते अंग्रेजी कैलेंडर के तीसरे महीने की 22 तारीख से जो शुरू हुआ, वह आखिर तक बना रहा। जिंदगी और मौत पूरे साल लुकाछिपी करती रही। चीन के वुहान प्रांत से निकले कोरोना रूपी दैत्य से मुकाबले में कभी जिंदगी जीतती नजर आई तो कई बार मौत अवसाद बनकर आई। कोरोना के साये तले जिंदगी ने मौत से जो लुकाछिपी पूरे साल खेली है, इसमें साल 2020 बीतते-बीतते जिंदगी जीतती नजर आने लगी। एक तरफ कोरोना को रोकने वाले टीके के सफल होने की उम्मीद बढ़ी, तो दूसरी तरफ ब्रिटेन और अमेरिका जैसे ताकतवर देशों ने अपने यहां कोरोना रोकने के लिए बनी वैक्सिन के परीक्षण शुरू कर दिए। भारत भी इस जमात में शामिल हो गया है।
आगत का स्वागत : दरअसल मनुष्य की पूरी विकास यात्र उसकी जीवटता का इतिहास है। हालांकि वह सिर्फ और सिर्फ बेहतरी की ही उम्मीद करता है। उसे जिंदगी और वक्त से केवल सुमधुर स्पंदन की ही उम्मीद रहती है। वक्त के इसी सुरंगम में वह गहरे तक डूबने की कामना हर आने वाले पल के साथ करता है। इसके लिए वह अपना श्रम स्वेद अहíनश बहाता रहता है। इतिहास की प्रेरक गाथाएं सिर्फ पसीने की सुगंध और उसके जरिये हासिल होने वाली सफलताओं की कहानियों से भरी पड़ी हैं। ये गाथाएं मनुष्य को हर आने वाले पल के लिए न केवल सचेत करती हैं, बल्कि उसकी भावी यात्र में मेहनत और संघर्ष के महत्व को भी स्थापित करती हैं। लेकिन सर्वदा ऐसा नहीं होता। यहीं पर नियति नामक वक्त की दूसरी सहचरी का कभी-कभी प्रवेश हो जाता है। नियति अक्सर परीक्षाओं के रूप में आती है। लेकिन श्रम स्वेद की प्रेरक गाथाएं अंतत: नियति के इस चक्र को भी भेदने के लिए मनुष्य को प्रेरित करती हैं। वह नियति चक्र को भेद कर आगे निकल भी जाता है।
वर्ष 2019 जब अपने आखिरी सूर्यास्त का गवाह बनने की ओर बढ़ रहा था, चीन के वुहान प्रांत से एक ऐसे दैत्य के जन्म लेने की कहानियां सामने आने लगी थीं, जो अदृश्य था, जिसकी संहारक क्षमता को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं जताई जा रही थीं। इन आशंकाओं के बावजूद दुनियाभर ने नवागत 2020 का स्वागत भी उसी अंदाज में किया था, जिस अंदाज में वह हर आगत का करता था। लेकिन स्वागत का यह उत्साह तीसरा महीना आते-आते खत्म होने लगा था। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना नामक महादैत्य के स्वागत के लिए जो प्रोटोकॉल तय किए, उसने मनुष्य को सचेत कम, भयभीत ज्यादा किया। इस दौर में दुनियाभर की राजव्यवस्थाओं के कठोरतम रुख देखने को मिले। लेकिन साथ ही उनका वैसा ही प्रतिकार भी दिखा। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रोटोकॉल को दुनियाभर की सरकारों ने जिस तरह स्वीकार किया, उससे लगा कि यह संगठन एक तरह से विश्व में सुपर सरकार चला रहा है।
इस प्रोटोकॉल व्यवस्था ने कोविड के विषाणु रूपी महादैत्य का जितना मुकाबला नहीं किया, उससे ज्यादा उसने दुनिया में अत्याधुनिक चिकित्सा व्यवस्था एलोपैथी की सर्वोच्चता को स्थापित कर दिया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रोटोकॉल ने मनुष्य की ज्ञान परंपरा को निर्थक और थोथा साबित करने की तकरीबन सफल कोशिश की। भारत की प्राचीन चिकित्सा व्यवस्था आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के साथ ही यूरोप और अफ्रीका तक की पारंपरिक व्यवस्थाओं को नकारने में विश्व स्वास्थ्य संगठन के कोविड प्रोटोकॉल ने जैसे अपनी पूरी ताकत लगा दी। भारत में पारंपरिक व्यवस्था को नकारना तो वैसे ही आधुनिकता का फैशन है। आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था को नियंत्रित करने वाली संस्थाओं ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रोटोकॉल का बहाना बनाया।
भारत की विशेषता : भारतीय संस्कृति की आयु को लेकर एकराय नहीं है। कोई इसे पांच हजार साल पुरानी सभ्यता बताता है तो कोई लाखों वर्ष पुरानी। बहरहाल यह मानने में गुरेज नहीं है कि भारतीय सभ्यता दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है। जाहिर है कि अपनी इस विकास यात्र में उसने जो हासिल किया है, उसमें मनुष्य की श्रम केंद्रित जीजिविषा के साथ ही नियति के पत्थरों को बड़ा योगदान है। ऐसा नहीं कि अतीत में इस ज्ञान परंपरा पर हमले नहीं हुए। फिर भी अगर वह जिंदा बची हुई है तो जाहिर है कि उसमें कुछ तो खास है।
आयुर्वेद का प्रसार : कोरोना से जंग में आधुनिक चिकित्सा पद्धति को कर्णधारों ने भी स्वीकार किया कि इस विषाणु के हमले का मुकाबला करने के लिए बेहतर है कि अंदरूनी ताकत को बढ़ाया जाए। आधुनिक विज्ञान इसे इम्युनिटी यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता कहता है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति के पास इम्युनिटी व्यवस्था को मजबूत करने का कारगर तंत्र नहीं है। ऐसे मौके पर आगे आई भारतीय ज्ञान परंपरा, जिसमें प्रकृति से साहचर्य पर जोर है। भारतीय पारंपरिक चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद तो सदियों से इसी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के आधार पर काम करता रहा है। कोरोना रूपी दैत्य से मुकाबले के लिए देवताओं से मिले आयुर्वेद के बाणों की महत्ता दुनिया ने समझी। ऐसे में आयुर्वेद का प्रसार बढ़ना ही था। इन दिनों आयुर्वेद का जिस तरह से बाजार बढ़ा है, उससे स्पष्ट है कि साल 2021 में वह कोरोना से मुकाबले की सबसे प्रमुख चिकित्सा व्यवस्था बनने जा रही है। चूंकि पूरी दुनिया ने स्वीकार कर लिया है कि इम्युनिटी को बढ़ाकर ही कोरोना के अदृश्य दैत्य का सफल मुकाबला किया जा सकता है, इस वजह से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली आयुर्वेदिक औषधियों की मांग बढ़ी है।
हर नए वक्त का भवन, बीते वक्त की नींव पर खड़ा होता है। जाहिर है कि 2021 भी बीते वर्ष की बुनियाद पर ही आगे बढ़ेगा। इस साल पूरी दुनिया में कोरोना को रोकने वाली वैक्सीन के उत्पादन और उन्हें जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने पर ज्यादा जोर दिया जाएगा। हमारे देश के लिए यह बड़ी चुनौती होगी। हालांकि भारत ने दो अरब खुराक वैक्सीन के उत्पादन और खरीद का लक्ष्य रखा है। इसके बावजूद इसको सही तरीके से जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाना और उन्हें लगाना बड़ी चुनौती होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बनाए गए प्रोटोकॉल ने जिस तरह दुनिया को आशंकित किया और डराया, उससे धीरे-धीरे लोग उबर रहे हैं। इसका यह भी मतलब नहीं है कि आशंकाओं के बादल पूरी तरह खत्म हो चुके हैं। इस बीच भारत का अति लोकतंत्र भी सक्रिय हो गया है और उसने अपनी तरह से भावी टीकाकरण प्रक्रिया में अड़ंगा डालने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। मुस्लिम धर्मगुरुओं के नाम पर कई अफवाहें भी फैलाई जा रही हैं।
बेशक आज शिक्षा का प्रसार बढ़ा है। इसके बावजूद कथित धार्मिक अंधकूप में डूबने वाले भी बहुतेरे हैं। करीब दो दशक पहले जब भारत पोलियो का मुकाबला कर रहा था, तब मुस्लिम समुदाय में अफवाह फैल गई थी कि उसके वैक्सीन से नपुंसकता बढ़ती है। इस वजह से पोलियो ड्रॉप पिलाने मुस्लिम मोहल्लों में गए कर्मचारियों और स्वयंसेवकों से र्दुव्यवहार हुए थे। कोरोना को लेकर भी इस बार कुछ ऐसे ही हालात बनाने की कोशिश हो रही है। मौजूदा साल में इससे निपटने लिए शासन और प्रशासन तंत्र को कुछ वैसी ही चुस्ती दिखानी होगी, जिस तरह उसने लॉकडाउन के दिनों में दिखाई थी।
राजनीतिक मोर्चे पर कायम रहेगा द्वंद्व : तमाम गतिविधियों के अलावा राजनीतिक मोर्चे पर भी यह साल उथल-पुथल भरा रहेगा। किसान आंदोलन की चुनौती भी बरकरार रहेगी। उन्हें मनाना जिस तरह अभी टेढ़ी खीर लग रहा है, वह आगे भी जारी रहेगा। इसकी वजह है भारत की राजनीति। कुछ माह बाद ही बंगाल, असम, तमिलनाडु, पुदुचेरी और केरल में विधानसभा चुनाव होने हैं, लिहाजा किसानों के आंदोलन से फायदा हासिल करने की फिराक में बैठे राजनीतिक दल इसे बनाए रखना चाहेंगे, ताकि उस आंदोलन के नाम पर बोए गए राजनीतिक बीज का फायदा उठाया जा सके। वैसे भी नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन का खाका पहले से इन दलों के पास मौजूद है और उसी अंदाज में ये काम करते रहेंगे।
आने वाले साल में यह दिखेगा कि बंगाल की शेरनी कही जाने वाली ममता बनर्जी की दहाड़ बनी रहती है या फिर भाजपा अपने पूर्ववर्ती दल के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को उनकी जन्मस्थली में अपना परचम फहरा कर उन्हें श्रद्धांजलि देगी। बंगाल में जिस तरह हिंसक राजनीति हो रही है, उससे लगता नहीं कि यह आगत के स्वागत के बावजूद थमने वाला है। इस पर पार पाना भी आने वाले वक्त में बड़ी चुनौती होगी। आने वाले वक्त में यह भी दिखेगा कि बोडोलैंड समझौते और अपने विकास कार्यो की वजह से अहोम राजाओं की भूमि असम में भारतीय जनता पार्टी बनी रहती है या नहीं।
असम कांग्रेस के कद्दावर नेता तरूण गोगोई के निधन के बाद होने वाले पहले विधानसभा चुनाव में यह भी दिखेगा कि तरुण गोगोई के निधन से खाली हुई सीट को कोई कांग्रेसी भर पाता है या नहीं। केरल का जैसा राजनीतिक इतिहास रहा है, उसमें एक बार वाममोर्चा सरकार बनाता है तो दूसरी बार कांग्रेस की अगुआई वाला संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा। इस लिहाज से इस बार संयुक्त मोर्चे की बारी है। लेकिन जिस तरह पिछले कुछ वर्षो में भारतीय जनता पार्टी ने यहां सेंध लगाई है, उससे इस बार यह परिपाटी बदल भी सकती है। पुदुचेरी में वर्षो से कांग्रेस जमी हुई है। देखना होगा कि वी. नारायणसामी की अगुआई में कांग्रेस यहां वापसी का करतब दिखा पाती है या फिर अन्ना द्रमुक गठबंधन कामयाब होता है।
तमिलनाडु की राजनीति में बरसों से एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी रहे करूणानिधि और जयललिता अब नहीं रहे। दोनों के न रहने के बाद तमिलनाडु में पहला विधानसभा चुनाव होना है। मौजूदा साल साबित करेगा कि तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक के नए नेतृत्व को जनता स्वीकार करती है या फिर द्रमुक के नए नेत़ृत्व को। यह भी देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा के लिए प्रश्न प्रदेश रहे तमिलनाडु में वह अपनी मौजूदगी किस हद तक दिखा पाती है।
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Gulabi
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