सम्पादकीय

राज्यों में मुफ्तखोरी की राजनीति की बढ़ती होड़ अर्थव्यवस्था और देश के लिए घातक सिद्ध हो सकती है

Gulabi Jagat
20 April 2022 4:28 PM GMT
राज्यों में मुफ्तखोरी की राजनीति की बढ़ती होड़ अर्थव्यवस्था और देश के लिए घातक सिद्ध हो सकती है
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इन दिनों श्रीलंका में हालात खराब हैं। वहां खाने-पीने से लेकर ईंधन तक की भारी किल्लत हो रही है
राजीव मंत्री। इन दिनों श्रीलंका में हालात खराब हैं। वहां खाने-पीने से लेकर ईंधन तक की भारी किल्लत हो रही है। आयात के लिए उसके पास विदेशी मुद्रा तक नहीं बची। ऐसी स्थिति एकाएक नहीं बनी है। आर्थिक मोर्चे पर आत्मघाती नीतियों के कारण श्रीलंका की यह दुर्गति हुई है। भारत में भी कुछ राज्य सरकारें मुफ्तखोरी का सहारा ले रही हैं। इससे सरकारी खजाने के लिए खतरे की घंटी बज रही है। राज्यों में यह होड़ शुरू हो गई है कि कौन कितनी खैरात बांट सकता है। देर-सबेर इसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ना तय है। हालांकि श्रीलंका एक संप्रभु राष्ट्र है और भारतीय राज्यों की प्रकृति अर्ध-संप्रभु, लेकिन खराब आर्थिक नीतियों की अंतत: भारी कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। इसी आशंका से भयाक्रांत कुछ वरिष्ठ आइएएस अधिकारियों ने बीते दिनों प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की। उन्होंने पीएम को आगाह किया कि कुछ राज्यों की नीतियों के कारण देश में भी श्रीलंका सरीखे हालात उत्पन्न हो सकते हैं। ऐसे में हमें वस्तुस्थिति का आकलन कर समय रहते सतर्क रहने की आवश्यकता है।
पिछले कुछ समय से यह देखने में आ रहा है कि अधिकांश राज्य ढांचागत सुधारों और पूंजी निवेश पर आगे बढ़ने के बजाय ऋण लेकर बेतरतीब खर्च करने में लगे हैं। इस खर्चे से बांटी जाने वाली खैरात के माध्यम से उनका मकसद किसी भी प्रकार अपनी सत्ता कायम रखना या सत्ता हासिल करना होता है। कर्ज लेने में कोई कितना आगे जा सकता है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण वह पंजाब है, जिसकी गिनती कभी देश के सबसे समृद्ध राज्यों में हुआ करती थी। उसके कर्ज का आंकड़ा पहले ही राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के अनुपात में 50 प्रतिशत को पार कर गया था। वित्त वर्ष 2022 के लिए यह करीब 52 प्रतिशत के दायरे में है। यह स्थिति राज्य में नवगठित आम आदमी पार्टी सरकार से पहले की है, जिसने चुनाव में 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली देने से लेकर महिलाओं को एक हजार रुपये का मासिक भत्ता देने जैसे तमाम लोकलुभावन वादे किए। आंकड़ों के अनुसार पंजाब के 84 प्रतिशत घरों में हर महीने 300 यूनिट से कम बिजली की खपत होती है। पूर्ववर्ती सरकार ने भी लोकलुभावनवाद की इसी राह पर चलते हुए पहले ही बिजली की दरें तीन रुपये प्रति यूनिट कर दी थीं। अब आप सरकार के 300 यूनिट मुफ्त बिजली देने के वादे को पूरा करने से न केवल सरकारी खजाने पर 12,000 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा, बल्कि जो लोग 300 यूनिट से कम बिजली इस्तेमाल करते थे, वे ज्यादा बिजली खपत के लिए प्रोत्साहित होंगे।
एक ऐसा राज्य जो आकंठ कर्ज में डूबा हो और जहां राजकोषीय आपातकाल जैसी स्थिति हो, उसके लिए क्या इस प्रकार की नीतियां अपनाना उचित होगा? ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं कि पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने पीएम मोदी के साथ पहली आधिकारिक मुलाकात में राज्य के लिए एक लाख करोड़ रुपये के पैकेज की मांग की। इससे यही लगता है कि आम आदमी पार्टी ने चुनावी वादे करने से पहले सरकारी खजाने की सुध नहीं ली। अब यदि आप सरकार दबाव में ये वादे पूरे करती है, तो जाहिर है कि उसे और कर्ज लेना पड़ेगा या अन्य जरूरी खर्चों में कटौती करनी होगी।
किसी खुशहाल राज्य के बदहाल बनने की सबसे बड़ी मिसाल आपको बंगाल के रूप में देखने को मिलेगी। प्रति व्यक्ति आय के पैमाने पर 1980 तक बंगाल देश में सातवें स्थान पर हुआ करता था। राज्य में चार दशकों के कुप्रबंधन का ही परिणाम है कि 2018-19 के दौरान वह 21वें स्थान पर लुढ़क गया। चालू वित्त वर्ष के दौरान राज्य पर ऋण का बोझ बढ़कर छह लाख करोड़ रुपये के स्तर पर पहुंचने वाला है। यह ऋण-जीएसडीपी के अनुपात के 35 प्रतिशत से अधिक होगा। यह सीमा राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन द्वारा निर्धारित अधिकतम 25 प्रतिशत की सीमा से भी बहुत ऊपर है। सरकारी खजाने की खस्ता हालत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्राप्त राजस्व का अधिकांश हिस्सा केवल पहले से लिए गए ऋण पर ब्याज की अदायगी में ही खर्च हो जाता है। वैसे मुफ्तखोरी से जुड़े अधिकांश खर्च अनुत्पादक ही होते हैं। इतना ही नहीं, इनके चलते कई अपात्र लोगों पर भी सरकार का अनावश्यक धन खर्च हो जाता है। यही कारण है कि राज्य सरकारों के करों के अनुपात में सब्सिडी का गणित गड़बड़ होता जा रहा है। इस मद में वित्त वर्ष 2020-21 के आंकर्ड़े ंचताजनक हैं। इस दौरान सबसे लचर स्थिति छत्तीसगढ़ की रही, जहां सब्सिडी-कर अनुपात 115.9 प्रतिशत रहा, जबकि पंजाब में 36 प्रतिशत और बिहार में यह 27.2 प्रतिशत रहा। इस अवधि में केवल 10 राज्य ही ऐसे रहे, जिनका यह अनुपात 10 प्रतिशत से कम था। वहीं 11 राज्यों में यह 10 से 20 प्रतिशत के दायरे में और सात राज्यों में 20 से 30 प्रतिशत के बीच रहा। दो राज्यों में तो यह 30 प्रतिशत को भी पार कर गया। यह दर्शाता है कि सब्सिडी से खैरात लुटाने में सरकारें कितनी दरियादिली दिखा रही हैं। इससे जहां लोगों की उत्पादकता प्रभावित रही है, वहीं मुफ्तखोरी की विकृत संस्कृति को भी बढ़ावा मिल रहा है। इस कारण केंद्र सरकार के स्तर पर किए जा रहे आर्थिक सुधारों का भी अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा।
राज्य सरकारों द्वारा कर्ज लेकर बेतहाशा खर्च एक तरह से भावी पीढ़ियों के साथ छल-कपट ही है। वहीं अन्य राज्यों में जिम्मेदारी के साथ खर्च कर रही सरकारों का हौसला एवं कामकाज भी इससे प्रभावित होता है। राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए किए जा रहे इस खर्च ने राज्यों के बीच घातक प्रतिस्पर्धा बढ़ा दी है। वैसे कर्ज लेकर खर्च करना पूरी तरह खराब नहीं, पर ऐसे खर्च की गुणवत्ता बहुत मायने रखती है कि उसे किस मद में और किस प्रकार किया जा रहा है। इस मामले में उत्तर प्रदेश जैसे राज्य मिसाल बनकर उभरे हैं। वहां गत पांच वर्षों में एक्सप्रेसवे, एयरपोर्ट और मेट्रो रेल जैसी कई परियोजनाओं का संजाल फैला है। ऐसा खर्च उत्पादक होता है। ऐसे में यह राज्य सरकारों को तय करना है कि वे कौन सी राह अपनाती हैं। उन्हें खैरात का रास्ता चुनना है या राज्य एवं जनता को सशक्त बनाना है। यदि उन्होंने पहला विकल्प चुना तो, जो फसल आज श्रीलंका काट रहा है, वे उसके बीज बोने का ही काम करेंगी।
(स्तंभकार नवम कैपिटल के प्रबंध निदेशक, पालिसी थिंक टैंक-इंडिया एंटरप्राइज काउंसिल के सह-संस्थापक और 'ए न्यू आइडिया आफ इंडिया' पुस्तक के सह-लेखक हैं)
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