सम्पादकीय

एमपी में सुखद है बच्चों में कुपोषण का घटना, लेकिन मंजिल अभी दूर

Gulabi
25 Nov 2021 1:45 PM GMT
एमपी में सुखद है बच्चों में कुपोषण का घटना, लेकिन मंजिल अभी दूर
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राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पांचवे दौर के बचे हुए राज्यों के परिणाम आ गए हैं
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पांचवे दौर के बचे हुए राज्यों के परिणाम आ गए हैं. इनमें मध्यप्रदेश भी शामिल है. इसकी प्रतीक्षा लंबे समय से की जा रही थी. मध्यप्रदेश के आंकड़ों में सुखद बदलाव देखने को मिला है. सबसे अच्छी बात यह है कि मध्यप्रदेश में बच्चों में कुपोषण के आंकड़ों में आमूलचूल परिवर्तन आया है. भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से किए जाने वाले इस सर्वेक्षण के तीसरे दौर तक मध्यप्रदेश कुपोषण के मामले में पूरे देश में अव्वल था. पिछले पंद्रल सालों की कोशिशों का परिणाम है कि एमपी ने अपने माथे से इस दाग को धो दिया है, लेकिन इसे शून्य प्रतिशत तक लाने की मंजिल अभी दूर है, इसके लिए दोगुनी गति से काम करने की जरूरत है.
2006 में जारी एनएफएचएस के तीसरे चक्र के नतीजों में मध्यप्रदेश में हर सौ में साठ बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से कम वजन के हुआ करते थे. इसका नतीजा यह होता था कि वह किसी भी तरह की बीमारी से लड़ने के लिए मजबूत नहीं हुआ करते थे, और इसीलिए उनकी उच्च मृत्यु दर भी हुआ करती थी. यही वह वक्त था जब मप्र में काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनों ने कुपोषण और उससे होने वाली मौतों को जोरदार तरीके से उठाया, मीडिया में कुपोषण से मौतों की खबरें प्रमुखता से प्रकाशित हुईं, और सरकार ने इसे अपने मुख्य विषयों में शामिल करते हुए अटल बाल आरोग्य मिशन की स्थापना की.
इस मिशन के जरिए सरकार ने समुदाय और सरकार के साथ मिलकर इस समस्या को हल करने के लिए सोचा. योजना बनाई और लागू किया. समुदाय आधारित कुपोषण के मॉडल को लागू किया, जिसकी सोच में यह था कि कुपोषण को दूर करने का रास्ता समुदाय के अंदर से ही आता है. इसमें सरकार के साथ मध्यप्रदेश में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी अपनी भूमिका निभाई, और चौथे दौर के नतीजे आने तक यह आंकड़ा साठ प्रतिशत से घटकर 42 प्रतिशत तक आ गया. पांच साल बाद अब यह आंकड़ा 33 प्रतिशत तक सिमट गया है, यानी लगातार सुधार हो रहा है, लेकिन यह अब भी बहुत ज्यादा है.
इस सुधार में सबसे बड़ा योगदान उन जमीनी कार्यकर्ताओं का है, जो गांव—गांव मजरे—टोले में अब गांव की एक प्रमुख इकाई बन गई हैं यानी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता. आज से पंद्रह—बीस साल पहले जब गांव में जाते थे तो आंगनवाड़ी और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को खोजना पड़ता था, लेकिन अब कमोबेश हर गांव में स्थिति बदल गई है. आंगनवाड़ी कार्यकर्ता अब समुदाय में शिक्षकों की तरह स्थापित हो गई हैं. उनका काम हर समुदाय में नजर आता है, अब उन्हें खोजना नहीं पड़ता, हर कोई उनका पता और उनका काम बता देता है, यदि इस सुधार में किसी का सबसे ज्यादा योगदान है, तो उन जमीनी कार्यकर्ताओं का ही है.
पहले कोविड महामारी के दौरान राहत और बचाव में भी उन्होंने अपनी भूमिका को सिद्ध किया और अब कोविड टीकाकरण में भी उनका योगदान कम नहीं है. हालांकि इस मामले में सरकार की नीतियों का उल्लेख किया जाना भी जरूरी है. सरकार ने लगातार इस पर सोचा और काम किया है. पिछले साल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक अलग तरह के मॉडल पोषण सरकार को लागू किया. इसमें पोषण के विकेन्द्रीकृत मॉडल के जरिए इस समस्या में जनभागीदारी को बढ़ाया है. यह अपने आप में एक अनूठा प्रयोग है.
इस मॉडल को लागू करने वाला महिला एवं बाल विकास विभाग भी एक वक्त कुपोषण के मामलों को नकारता आया है. यह स्वीकार ही नहीं किया जाता था कि कुपोषण से बच्चों की मौतें हो रही हैं. समुदाय में कहीं कुपोषण के मामले आते थे तो पूरा जोर उन्हें दबाने में लग जाता था, स्वास्थ्य विभाग और महिला एवं बाल विकास विभाग के आंकड़ों में भी अंतर होता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब यह अकेला ऐसा विभाग है जो किसी बड़ी स्वयंसेवी संस्था के अंदाज में काम करता है. विभाग ने बीते सालों में अपनी छवि को भी बदला है.
हालांकि बेहतर पोषण उपलब्ध करवाने में अभी स्वयं सहायता समूहों की भूमिका को उसी तरह से लागू करने की उपलब्धि शेष है जैसा कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सोचते हैं. एक लंबे समय तक पोषण आहार का ठेका कुछ खास एजेंसी के हवाले रहा है, इस केन्द्रीकृत व्यवस्था में पोषण आहार की क्वालिटी अच्छी नहीं पाई गई है, और इस व्यवस्था में कई तरह के घपले भी सामने आते रहे हैं. यदि पोषण की व्यवस्था को सचमुच विकेन्द्रीकृत करके स्वयंसेवी संस्थाओं यानी स्थानीय लोगों के हाथ में दे दिए जाने का कमाल कर दिया जाए तो आगामी सर्वेक्षणों में आमूलचूल परिवर्तन संभव है.
लेकिन, उसके लिए एक अलग तरह के सपोर्ट सिस्टम और प्रोत्साहन की जरूरत होगी, जाहिर है इसमें महिला सशक्तीकरण को एक और काम हो जाएगा. इन सुधरे हुए आंकड़ों की रोशनी में एमपी को खुद की पीठ थपथापते हुए शून्य प्रतिशत कुपोषण की राह पर आगे बढ़ जाना चाहिए, वास्तव में राज्य का गौरव तभी स्थापित होगा.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
राकेश कुमार मालवीय, वरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.
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