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[राजीव सचान]। कश्मीर के एक सरकारी स्कूल में पहचान पत्र देखकर हिंदू-सिख शिक्षक की हत्या पहली ऐसी घटना नहीं, जिसमें लोगों को उनके मत-मजहब के आधार पर निशाना बनाया गया हो। कश्मीर में यही काम 1990 के आसपास भी किया गया था और इसी कारण वहां से बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों को जान बचाकर भागना पड़ा था। इस तरह की घटनाएं दुनिया के अन्य देशों में भी होती रहती हैं। कुछ वर्ष पहले ढाका के एक रेस्त्रां में इस्लामिक स्टेट के आतंकियों ने चुन-चुनकर गैर मुसलमानों को मारा था। इनमें एक भारतीय युवती तारिषि जैन भी थी। इसके पहले नैरोबी के एक माल में जा घुसे आतंकियों ने पहचान पत्र देखकर गैर मुसलमानों को मारा था। दुर्योग से इस आतंकी हमले में भी दो गैर मुस्लिम भारतीय शामिल मारे गए थे। गैर मुसलमानों को चुन-चुनकर मारने का यह काम इराक-सीरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान में भी रह-रह कर होता रहता है। इसके पीछे जिहादी संगठनों की यह जहरीली सोच है कि अन्य किसी को जीने-रहने का अधिकार नहीं। आतंकवाद के खिलाफ छेड़े गए लंबे युद्ध के बावजूद इस सोच पर लगाम नहीं लग सकी और अब अफगानिस्तान में तालिबान के काबिज होने के बाद तो उसके फिर से बेलगाम होने का खतरा पैदा हो गया है।