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दानिश सिद्दीकी की हत्या में छिपा संदेश: तालिबान के लिए अधिक महत्वपूर्ण था, दानिश 'काफिर' भारत का कर रहा था प्रतिनिधित्व
जनता से रिश्ता वेबड़ेस्क | [ बलबीर पुंज ]: हाल में भारत के फोटो पत्रकार दानिश सिद्दीकी की अफगानिस्तान में तालिबान ने हत्या कर दी। दानिश इस इस्लामी देश के पुन: तालिबानीकरण को अपने कैमरे में कैद करने अफगानिस्तान में थे। उनकी नृशंस हत्या इस्लाम के नाम पर जिहाद करने वाले दानवों के हाथों हुई। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले मुस्लिम समाज में व्याप्त विसंगति और विरोधाभास को रेखांकित किया। एक भारतीय चैनल से बात करते अफगान सैन्य अधिकारी ने बताया कि दानिश को गोली मारने के बाद तालिबान को जैसे ही पता चला कि वह भारतीय है, उन्होंने उसके शव पर वाहन चढ़ाकर उसका सिर कुचल दिया। विडंबना देखिए कि दानिश जिस मजहब का अनुयायी था, उसके पैरोकारों ने ही इस्लाम के नाम पर क्रूरता के साथ उसकी हत्या की। दानिश की निर्मम हत्या के बाद उनकी जीवनी, विचार और उनके पेशेवर काम पर चर्चा होना स्वाभाविक था। दानिश ने भारत में कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरार्न ंहदुओं की जलती चिताओं की तस्वीरें खींची थीं, जिसे लेकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों सहित देशविरोधी शक्तियों ने वैश्विक अभियान चलाया और विपक्षी दल मोदी-विरोध के नाम पर दुनियाभर में देश की छवि पर कालिख पोतने में सहभागी बने। जब यह सब इंटरनेट मीडिया पर पुन: वायरल हुआ, तब तालिबान ने दानिश की हत्या पर खेद व्यक्त कर दिया। ऐसा करके तालिबान ने दुनिया को जो संदेश दिया, वह उतना ही स्पष्ट है, जितना उनका दानिश की मौत पर पछतावा।
आखिर तालिबान ने दानिश की राष्ट्रीयता जानने पर उसका शव गाड़ी से क्यों रौंदा? यह ठीक है कि दानिश एक मुस्लिम था, परंतु शायद तालिबान के लिए अधिक महत्वपूर्ण यह था कि वह 'काफिर' भारत का प्रतिनिधित्व कर रहा था। भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों का बड़ा वर्ग जहां स्वयं को अंतरराष्ट्रीय मिल्लत का हिस्सा मानता है तो दूसरी ओर पश्चिम एशिया और अरब देशों के मुसलमान उन्हें दोयम दर्जे का मुस्लिम मानते हैं। यह अकाट्य तथ्य है। भारतीय उपमहाद्वीप में आज जितने भी मुस्लिम हैं, उनमें 90 प्रतिशत से अधिक मुसलमानों के पूर्वज हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध मत के अनुयायी थे, जिनका वर्तमान अरबी-फारसी संस्कृति से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। वैसे भी मिल्लत की कल्पना ही अव्यावहारिक है। यदि इस्लाम के नाम पर मुसलमान इकट्ठा ही होते तो न दुनिया के 56 मुस्लिम बहुल देश या फिर घोषित इस्लामी गणराज्य अलग-अलग बंटते और न ही शिया-सुन्नी संप्रदाय केंद्रित मुस्लिमों या संबंधित देशों के बीच मजहबी संघर्ष होता।
भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश मुसलमान स्वयं को पश्चिम एशिया की अरबी-फारसी संस्कृति से जोड़कर विदेशी आक्रांताओं कासिम, गोरी, गजनी, बाबर, अब्दाली आदि में अपना नायक इसलिए खोजते है, क्योंकि वे सभी 'गजवा-ए-हिंद' के सूत्रधार थे। पाकिस्तान ने तो अपनी मिसाइलों और युद्धपोत का नामकरण क्रमश: बाबर, गोरी, गजनी, अब्दाली और टीपू सुल्तान आदि के नाम पर किया। भले ही अरब से भारत पर मजहबी आक्रमण के पश्चात कालांतर में भारतीय उपमहाद्वीप की वैदिक सांस्कृतिक सीमा सिकुड़ती गई हो और लोगों ने मजहबी तलवार के भय से इस्लाम स्वीकार कर लिया होर्, ंकतु उनकी मूल जड़ों में सनातन भारत के हिंदू-बौद्ध बहुलतावादी और पंथनिरपेक्षी रूपी जीवंत मूल्य आज भी शाश्वत हैं। इसी भारतीय पहचान से तालिबान और उसके वैश्विक मानसबंधु घृणा करते हैं। विश्व के इस भूखंड में पाकिस्तान उस विकृत चिंतन का सबसे बड़ा मूर्त रूप है। पाकिस्तान का वैचारिक अधिष्ठान जन्म से काफिर-कुफ्र की अवधारणा से प्रेरित है। इसी कारण 74 वर्षों से पाकिस्तान स्वयं को इस भू-भाग में उद्गमित और विकसित हिंदू-बौद्ध सांस्कृतिक जड़ों से काटने (इस्लाम-पूर्व सभ्यतागत प्रतीकों को जमींदोज करने सहित) और अरब-पश्चिम एशियाई संस्कृति से जोड़ने का असफल प्रयास कर रहा है। पाकिस्तान की आधिकारिक राष्ट्रीय भाषा उर्दू और अंग्र्रेजी हैर्, ंकतु वहां केवल सात प्रतिशत लोग ही उर्दू बोलते हैं और लगभग आधी आबादी पंजाबी।
पाकिस्तान की तथाकथित पंथनिरपेक्ष छवि बनाने हेतु जिन्ना ने हिंदू शायर जगन्नाथ आजाद के एक उर्दू गीत को राष्ट्रगान बनाया, लेकिन उसका विरोध हुआ। परिणामस्वरूप उसे प्रतिबंधित कर एक फारसी गाने को राष्ट्रगान बना दिया, जिसमें उर्दू के नाम पर केवल 'का' शब्द का उपयोग हुआ है। ऐसा इसलिए, ताकि पाकिस्तान खंडित भारत की वैदिक सनातन संस्कृति से स्वयं को अलग कर सके। इसी मानसिकता से ग्रस्त पाकिस्तान ने जितने भवन र्नििमत किए, जिनमें लाहौर स्थित मीनार-ए-पाकिस्तान, ग्रैंड जामिया मस्जिद, इस्लामाबाद की फैजल मस्जिद, मजलिस-ए-शूरा (संसद) और सुप्रीम कोर्ट आदि शामिल हैं, उनमें से किसी की वास्तुकला में न केवल भारतीय संस्कृति, अपितु मुगलकालीन ताजमहल, लाल किले जैसी बनावट की कोई झलक तक नहीं है। उन पर अरब और पश्चिम एशियाई देशों का अधिक प्रभाव है। इसी मानसिकता से प्रेरित होकर 12वीं शताब्दी तक भारतीय संस्कृति का अंग रहे अफगानिस्तान में भी हिंदू-बौद्ध संस्कृति के प्रतीक-चिन्हों को मिटा दिया गया। अपने इसी चिंतन के कारण पाकिस्तान और तालिबान मिलकर अब अफगानिस्तान में उन शैक्षणिक संस्थानों, इमारतों और बांध परियोजनाओं को तबाह करना चाह रहे हैं, जिनके निर्माण में 'काफिर' भारत की मुख्य भूमिका है।
जब दिल्ली स्थित जामिया मिल्लिया इस्लामिया में दानिश का अंतिम संस्कार हुआ, तब वहां उपस्थित लोगों ने एक बार भी तालिबान मुर्दाबाद का नारा नहीं लगाया। क्यों? क्या यह इस भू-भाग में रह रहे मुस्लिम समाज के एक वर्ग में विसंगति और विरोधाभास को प्रतिबिंबित नहीं करता?