सम्पादकीय

अफगान की अस्थिरता के बढ़ते खतरे, काबुल की अस्थिरता जितनी ज्यादा चलेगी, उतनी खतरनाक होगी

Rani Sahu
25 Aug 2021 8:40 AM GMT
अफगान की अस्थिरता के बढ़ते खतरे, काबुल की अस्थिरता जितनी ज्यादा चलेगी, उतनी खतरनाक होगी
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अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भले ही बिना किसी सीजफायर और समझौते के अफगानिस्तान से सेना हटाने को सही ठहराते रहें

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भले ही बिना किसी सीजफायर और समझौते के अफगानिस्तान से सेना हटाने को सही ठहराते रहें, लेकिन अमेरीकियों द्वारा दिखाई गई सैन्य अयोग्यता इतिहास में सबसे बड़े आत्मसमर्पणों में से एक के रूप में दर्ज होगी। वहीं अफगान नेशनल सिक्योरिटी फोर्सेस (एएनएसएफ) भी अयोग्य, हतोत्साहित और बुरे नेतृत्व वाली साबित हुई है। फिर भी अमेरिकी सैन्य कमांडरों की योग्यता पर सवाल उठता है।

बेशक इसका दूसरा स्वरूप भी है, जहां एएनएसएफ ने पिछले कई वर्ष उत्साह से युद्ध किया और फिर शायद उसके कमांडरों ने अमेरिका की जानकारी के बिना समझौता कर लिया। जो भी हो, यह इंटेलिजेंस की खामी है, वह भी संचालन और रणनीति के स्तर पर। इसे लेकर भी बातें चल रही हैं कि अमेरिका ने गुप्त रूप से तालिबान से समझौता कर लिया। यह पूरी तरह से असंभव लगता है क्योंकि अरबों डॉलर के घातक हथियार दांव पर थे, ऐसे में कोई भी अमेरिकी नेता इन्हें कभी भी कट्टरपंथी तत्वों के हाथों में पड़ने के लिए नहीं छोड़ेगा।
कम से कम अमेरिका पाकिस्तान पर आकस्मिक प्रतिक्रिया के लिए कुछ हवाई ठिकाने उपलब्ध कराने के लिए जोर दे सकता था। ये हालात कभी न होते, अगर अमेरीकियों ने पाकिस्तान के डीप स्टेट के साथ सख्ती बरती होती। तालिबान का पूरा नाटक वहां से निकलने की बुरी रणनीति का ही नतीजा है।
अफगान के बारे में आ रही खबरें चिंताजनक हैं। काबुल में स्थिरता बनती नहीं दिख रही। तालिबान बदलाव की दिखावटी छवि व उदारवादी रवैया बनाने में असफल रहा है। उसे पब्लिक रिलेशन काफी पहले सुधारना था। लोग बर्बरता के साथ तालिबान को नहीं स्वीकारेंगे। वे कई वर्ष आजादी के बाद अफगान युवाओं को नहीं दबा सकते।
इससे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों द्वारा सरकार चलाने में मिलने वाली मदद की संभावनाएं खत्म होंगी। वहां उभर रहे आंदोलनों के समर्थन में प्रतिबंध भी लगाए जा सकते हैं। पंजशेर आंदोलन से अफगानिस्तान के लिए उम्मीद जागी है। हालांकि उसे बाहरी मदद की जरूरत होगी।
अगली बड़ी चिंता माहौल में अराजकता है। बिना सरकार का देश और सड़कों पर अराजक तत्वों की मौजूदगी का अर्थ है अपराध और आतंक से जुड़े तत्वों का प्रवेश। वर्ष 2011 में अमेरिका की नजर हटने पर इराक और सीरिया में आईएसआईएस के उदय के बाद ऐसा ही हुआ था। ज्यादातर आतंकी समूह भौतिक रूप से मौजूद न हों, लेकिन वर्चुअली जुड़े हुए हैं। इस क्षेत्र में मिश्रित वैचारिक युद्धों के फैलने की बहुत गुंजाइश है। नशे के गैरकानूनी व्यापार के कारण वित्त भी कोई समस्या नहीं है और अब सस्ते हथियार उपलब्ध हैं।
अमेरिका का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि उसकी जमीन पर फिर से आतंकी हमले में अफगान की जमीन का इस्तेमाल न हो। लेकिन यह शायद ही हासिल हो, जब तक कि अल कायदा-कोर, इस्लामिक स्टेट (खोरासान प्रांत), ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट, तहरीक-ए-तालिबान-पाकिस्तान, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा और इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान जैसे मशहूर आतंकी समूह खाली की गई बिना अमेरिकी प्रभाव वाली जगह पर मौजूद रहेंगे। इस मौजूदगी से चीन, रूस और भारत तथा पाकिस्तान के लिए भी खतरा है। अस्थिरता जितने ज्यादा समय रहेगी, ये नेटवर्क उतने मजबूत होंगे।
पाकिस्तान का भले ही कुछ तत्वों पर नियंत्रण हो, लेकिन अंतत: यह भी प्रभावित होगा। अतीत में इसने यह दर्शाकर मित्रवत और अमित्र आतंकवादियों का खेल खेला है कि यह आतंकवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित राष्ट्रों में से एक है। इससे उसे जम्मू-कश्मीर में तालिबान के तत्वों की मदद से अपना मिशन जारी रखने का आधार मिल सकता है।
आतंक के खिलाफ वैश्विक जंग का यही सबसे उपयुक्त समय है क्योंकि ज्यादातर देशों के हित जुड़े हुए हैं लेकिन अंतराष्ट्रीय भूराजनीति इसकी कभी अनुमति नहीं देगी। चीन और रूस तालिबान से कुछ संबंध रखना चाहेंगे, ताकि वे अपने प्रभाव वाले इलाकों में आतंकी और कट्‌टरपंथी गतिविधियों को रोक सकें। अमेरिका भी शायद इस क्षेत्र से खुद को पूरी तरह अलग न करे। यहां की अस्थिरता मध्यूपूर्व तक भी पहुंच सकती है, जहां अमेरिका के गहरे हित हैं।
भारत के लिए उन कुछ राष्ट्रों से जुड़े रहना जरूरी है, जिनका अभी अफगानिस्तान में बहुत कुछ दांव पर लगा है। इनमें रूस, तजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, ईरान और कतर शामिल हैं। सऊदी अरब और यूएई से जुड़े रहना भी जरूरी है, जिनके महत्व को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता।
पाकिस्तान की पुरानी मंशा
अफगानिस्तान की घटनाओं का खतरनाक नतीजा हथियारों का प्रसार भी है। जम्मू-कश्मीर में फिर हिंसा भड़काने के लिए मानव संसाधन, पैसा और हथियार पहुंचाना हमेशा ही पाकिस्तान की मंशा रही है। हालांकि अगर इंटेलीजेंस शीर्ष पर रहे और सुस्थापित आतंक रोधी व्यवस्था को न छेड़ा जाए, तो भारतीय क्षमता व अनुभव इसे दबाने के लिए पर्याप्त हैं।

लेफ्टि. जनरल एसए हसनैन का कॉलम


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