सम्पादकीय

किसान आंदोलन से सरकार को यह समझना चाहिए कि लोकतंत्र संपर्क, परामर्श और समझौते की प्रक्रिया है

Rani Sahu
27 Nov 2021 6:39 PM GMT
किसान आंदोलन से सरकार को यह समझना चाहिए कि लोकतंत्र संपर्क, परामर्श और समझौते की प्रक्रिया है
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तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को निरस्त करने की सरकार की घोषणा ने भारतीय राजनीति को चौका दिया है

शशि थरूर तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को निरस्त करने की सरकार की घोषणा ने भारतीय राजनीति को चौका दिया है। एक प्रशासन जिसने जल्दबाजी में कानून पारित किया, असहमति को दबाने के लिए बहुमत का उपयोग किया और राष्ट्रीय राजधानी को घेरने वाले किसान आंदोलन की आलोचनाओं का विरोध किया, उसने अचानक रुख बदल दिया। सरकार के पीछे हटने का कारण जाहिर तौर पर राजनीतिक है।

कृषि कानूनों पर आंदोलन से पंजाब, उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक उत्तराखंड बहुत प्रभावित हुए हैं, जहां फरवरी-मार्च में चुनाव होने हैंं। सत्तारूढ़ दल ने महसूस किया कि आंदोलन ने किसानों और सिविल सोसायटी को उसके खिलाफ लामबंद किया। मतदाताओं के विरोध को रोकने की राजनीतिक अनिवार्यता की वजह से भाजपा ने यह कदम उठाया।
उसे उम्मीद है कि इससे सत्ता विरोधी लहर को बेअसर करने में मदद मिलेगी। इसके पीछे पंजाब के सिख किसानों काे लेकर रणनीति भी है। प्रधानमंत्री की गुरुद्वारों की हालिया यात्राओं और सिख कैलेंडर के सबसे पवित्र दिन गुरु नानक जयंती पर घोषणा करने से यही बात प्रकट होती है। कई लोगों ने चिंता व्यक्त की कि सिखों का अलगाव और उन्हें 'खालिस्तानियों' के रूप में प्रदर्शित करने की कोशिशें पुराने अलगाववादी आंदोलन को फिर से जीवित कर सकती है। कुछ लोगों का मानना है कि प्रधानमंत्री का बयान गलती को देरी से स्वीकार करना है।
भारत मूल्य-संवेदनशील देश है। मुद्रास्फीति लगातार बढ़ रही है और यह छोटी वृद्धि नहीं है, क्योंकि ईंधन पर हद से ज्यादा कर है, जिसका अन्य वस्तुओं पर असर पड़ा है। बेरोजगारी अब तक के उच्चतम स्तर पर आ गई है। सरकार की बयानबाजी के बावजूद आर्थिक विकास रुका हुआ है। लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि कैसे अधिकांश बड़े सुधारों- श्रम सुधार से लेकर भूमि अधिग्रहण तक- के मामले में भाजपा देश को समझाने और विपक्ष को अपनी पहल के लिए राजी करने में असमर्थ साबित हुई।
आर्थिक सुधारवादी इस बात से चिंतित हैं कि कृषि कानून से पीछे हटना अल्पकालिक फायदे के लिए सुधार के प्रयासों के विफल हाेने का उदाहरण है, जो भारतीय राजनीति का चरित्र है। उनके विचार में यह भारत के लिए एक समस्या है कि निहित स्वार्थों के लिए आंदोलनकारियों का एक समूह समग्र रूप से अर्थव्यवस्था को लाभान्वित करने वाले सुधारों को पटरी से उतार सकता है। वो असंतोष से कहते हैं कि 'कोई भी व्यक्ति जो राष्ट्रीय राजमार्ग को अनिश्चित काल के लिए बाधित करने के लिए कुछ हज़ार लोगों को इकट्ठा कर सकता है, वह बहुमत वाली सरकार के खिलाफ अपना रास्ता बना सकता है'।
यह सच है कि देश के विभिन्न हिस्सों में राजनीतिक विरोध के कारण बांधों से लेकर हाई-स्पीड रेलवे तक की कई विकास परियोजनाओं को बाधित कर दिया गया या उनमें देरी हुई। भूमि अधिग्रहण कानूनों को पहले ही खत्म कर दिया गया था। परमाणु ऊर्जा को हर उस क्षेत्र के लोगों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा है, जहां परमाणु संयंत्र स्थापित करने का प्रस्ताव है।
निर्माण गतिविधियों को उत्खनन और रेत-खनन के विरोधियों से गंभीर चुनौतियां मिलती हैं। पर्यावरण कार्यकर्ता अक्सर नई निर्माण परियोजनाओं के खिलाफ मामले दर्ज करते हैं। लेकिन एक लोकतंत्र जिसमें किसी भी परिवर्तन से पहले एक परामर्श प्रक्रिया में कई राजनीतिक हितों को शामिल किया जाना हाे वहां यह चुनौतियां अपरिहार्य हैं। मोदी सरकार ने जो सबक सीखा है, वह यह है कि लोकतंत्र वह है जो चुनावों के बीच चलता है - यह संपर्क, परामर्श और समझौते की निरंतर प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से लोकतांत्रिक परिवर्तन होते हैं। इसी मामले में सत्ताधारी दल अयोग्य साबित हुआ है।
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