सम्पादकीय

सरकार को किसानों-व्यापारियों और उपभोक्ताओं के हितों के बीच संतुलन बनाना होगा

Gulabi Jagat
19 May 2022 8:33 AM GMT
सरकार को किसानों-व्यापारियों और उपभोक्ताओं के हितों के बीच संतुलन बनाना होगा
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मई में सरकारी खरीद 300 लाख मीट्रिक टन पार कर चुकी है, जो जुलाई के लक्ष्य से अधिक है
रीतिका खेड़ा का कॉलम:
गेहूं से सम्बंधित तीन आंकड़े देखने योग्य हैं- उपज, सरकारी खरीद और भंडारण। कुल उपज के आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं लेकिन एक पूर्वानुमान के अनुसार इस वर्ष उत्पाद पिछले साल से 6% कम हो सकता है। पिछले चार सालों में रिकॉर्ड उत्पादन हुआ था, जिसकी वजह से सरकार अनाज से इथेनॉल भी बनाने पर विचार कर रही थी।
केंद्र सरकार की ओर से भारतीय खाद्य निगम गेहूं और चावल की खरीद और भंडारण करता है। सरकार के मानदंड के अनुसार अप्रैल में गेहूं खरीद शुरू होने के समय खाद्य निगम का स्टॉक 90 लाख मीट्रिक टन होना चाहिए। जुलाई तक (जब गेहूं की खरीद खत्म हो जाती है) लगभग 300 लाख मीट्रिक टन पहुंचना चाहिए।
इस वर्ष अप्रैल में खाद्य निगम के गोदामों में 190 लाख मीट्रिक टन गेहूं था, भंडारण मानदंड से दोगुना। मई में सरकारी खरीद 300 लाख मीट्रिक टन पार कर चुकी है, जो जुलाई के लक्ष्य से अधिक है। आज गेहूं भंडारण की स्थिति देखें तो पिछले सालों की तुलना में इसमें कोई खास फर्क नहीं नजर आएगा।
सरकार द्वारा खरीद की बात करें तो पिछले 13 सालों में से 6 साल ऐसे रहे हैं, जिनमें गेहूं की सरकारी खरीद 300 लाख मीट्रिक टन पार कर गई, वरना सरकारी खरीद 200-300 लाख मीट्रिक हुआ करती है। इस साल खरीद अभी जारी है, 178 लाख मीट्रिक टन खरीदा जा चुका है।
चिंता के पीछे एक कारण है गर्मी की वजह से कम उपज की सम्भावना। खरीद कम होने के पीछे दूसरा कारण यह है कि यूक्रेन-रूस युद्ध की वजह से अंतरराष्ट्रीय मार्केट में गेहूं के दाम बढ़ रहे थे। इसे देखकर भारत में निजी व्यापारियों ने मंडी में किसानों से एमएसपी से ज्यादा दाम पर खरीद की है, यह सोचकर कि गेहूं का निर्यात हो (या फिर देश में भी दाम बढ़ेंगे)। खाद्य निगम के भंडार के तीन मुख्य उपयोग हैं- जन वितरण प्रणाली, निर्यात और यदि देश में महंगाई बढ़ रही हो तो सरकार अपने भंडार से सस्ते दाम में खुले बाजार में बेचकर महंगाई के दबाव को कम कर सकती है (ओपन मार्केट सेल्स)। इन तीन में से जन वितरण प्रणाली ओर ओपन मार्किट सेल्स निर्यात की तुलना में व्यापक क्रिया है।
जब केंद्र सरकार ने गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया तो कुछ लोगों ने इसकी निंदा की। निंदा का मुख्य कारण यह है कि दुनिया में इससे भारत की नेकनामी ओर विश्वसनीयता को ठेस पहुंचेगी। विश्वसनीयता की बात इसलिए आई, क्योंकि कुछ ही समय पहले जब युद्ध के चलते गेहूं के अंतरराष्ट्रीय दाम बढ़ने लगे, तब भारत ने घोषणा की थी कि डब्ल्यूटीओ की अनुमति होने पर भारत गेहूं का निर्यात करेगा।
निर्यात में भी दो प्रकार हैं- एक, अंतरराष्ट्रीय आपत्ति में अन्य देशों की मदद के लिए और दूसरा मुनाफे के लिए। सरकार ने दूसरे प्रकार के निर्यात पर रोक लगाई है, लेकिन आपसी मदद वाले निर्यात पर नहीं। देश की नेकनामी को ठेस का डर नहीं है।
निर्यात के निर्णय से एक तरफ सरकार को किसानों और निजी व्यपारियों और दूसरी ओर उपभोक्ताओं के हितों के बीच संतुलन बनाना जरूरी है। साथ ही निर्यात से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दायित्व के बीच भी संतुलन रखना होगा। निर्यात से किसानों और व्यापारियों को फायदा होने की गुंजाइश है, और अंतरराष्ट्रीय दाम कम होने से अन्य देश के उपभोक्ताओं को लाभ होगा।
दूसरी तरफ इस निर्णय से यदि देश में गेहूं के दाम बढ़ते हैं तो जो गेहूं खरीद के लिए मार्केट पर निर्भर हैं, उन्हें शायद ऊंचे दाम देने पड़ें। कई वर्षों से यह मांग रही है कि यदि सरकार के पास जरूरत से ज्यादा गेहूं-चावल का भंडार है तो इससे जनवितरण प्रणाली को और व्यापक बनाया जाना चाहिए, ताकि 2020 के लॉकडाउन में बिना राशन कार्ड के मजदूरों की जो दुर्दशा हुई, वैसी स्थिति फिर से उत्पन्न न हो। निर्यात पर रोक के निर्णय की समीक्षा आतंरिक स्थिति स्पष्ट होने पर होनी चाहिए।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
भूल यहां हुई
शायद गलती यह हुई है कि जल्दबाजी में आंतरिक उपज, खरीद और भंडारण की स्थिति का आकलन किए बगैर निर्यात का ऐलान कर दिया गया, और निजी बाजार में जमाखोरी के डर से निर्यात को बैन कर दिया गया।
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