सम्पादकीय

सरकार ने जैविक विविधता अधिनियम 2002 में संशोधन पेश करके लोगों से राय मांगी है

Rani Sahu
23 Feb 2022 9:18 AM GMT
सरकार ने जैविक विविधता अधिनियम 2002 में संशोधन पेश करके लोगों से राय मांगी है
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सरकार हाल ही में एक संशोधित जैव-विविधता अधिनियम लेकर आई है

माधव गाडगिल

सरकार हाल ही में एक संशोधित जैव-विविधता अधिनियम लेकर आई है और उस पर जनता से प्रतिक्रिया मांगी है। संशोधित संस्करण लोगों को अशक्त बनाने वाले अधिनियम के कार्यान्वयन की वर्तमान व्यवस्था को कायम रखता है। यह जैव-विविधता समझौता और मूल जैव-विविधता अधिनियम 2002 के प्रावधानों के भी अनुरूप नहीं। इसलिए नागरिकों को इस पर प्रतिक्रिया देना और अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में दबाव बनाना चाहिए।
संसद प्रांगण में लिखा है- वसुधैव कुटुम्बकम्। संसार चेतन और अचेतनों का एक समुदाय है। यह मनुष्यों का एक सार्वभौमिक दृष्टिकोण था, जो अफ्रीकी झाड़ीदार घास के मैदान पर समूह-शिकारी के रूप में उत्पन्न हुआ था। मनुष्य पारस्परिक सहायता के बंधनों से बंधे सहकारी समूहों में रहते थे। वे अपने जानवरों, पेड़ों, नदियों को अपनी सहायता करने वाले और सम्मान के साथ व्यवहार करने योग्य अपने समुदाय के हिस्से के रूप में देखते थे।
प्राकृतिक संसाधनों के सहयोग और समुदाय-आधारित प्रबंधन की यह प्राचीन विरासत दुनिया के अधिकांश हिस्सों में कायम है। स्विट्ज़रलैंड के व्यापक वन क्षेत्र को स्थानीय कैंटन द्वारा पोषित किया जाता है। 11वीं शताब्दी में रईस वर्ग द्वारा आम लोगों के सामूहिक संसाधनों को घेरकर सामुदायिक प्रबंधन को खारिज करने वाला ब्रिटेन अकेला देश था। लोगों के अलगाव के परिणाम दुखद थे और 14वीं शताब्दी तक ब्रिटेन ने अपने जंगलों और बड़े वन्य जीवन को खो दिया।
ब्रिटेन वैज्ञानिक प्रगति में सबसे आगे था और इस बल पर उसने विश्वव्यापी साम्राज्य बनाया। उत्तरी अमेरिका में उन्होंने जंगल नष्ट किए, वन्यजीवों का संहार किया और मूल-निवासियों को खदेड़ दिया। उन्होंने काले गुलामों के सस्ते श्रम का शोषण करते हुए कपास के समृद्ध बागान विकसित किए। एशिया में इन रणनीतियों का पालन अशक्य था। जब अंग्रेज भारत पहुंचे तो संसाधनों को निगलने और लोगों से सस्ते में सेवा लेने के लिए भूखे थे। ईमानदार ब्रिटिश अधिकारियों ने कहा कि यह संरक्षण नहीं बल्कि जब्ती थी।
ब्रिटिश चाय और कॉफी बागान मालिकों ने मांग की कि स्थानांतरित खेती को जबरन बंद कर दिया जाए ताकि गरीबों को गुलाम जैसे मजदूर के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया जा सके। कुल मिलाकर, ब्रिटिश आर्थिक हित लोगों को संसाधनहीन बनाने और अपनी सैन्य और निर्माण आवश्यकताओं के लिए लकड़ी उगाने के लिए वन क्षेत्रों को समर्पित करने में निहित थे। वन-विभाग वैज्ञानिक आधार पर स्थायी प्रबंधन लागू करने का दावा करता है।
वास्तव में, वन-संसाधनों को लगातार कई गुना कम किया गया है, लेकिन सार्वजनिक जांच बंद करके कमी को कभी भी खुले में नहीं लाया गया। वन व वन-सीमांत निवासियों को परेशान करने और रिश्वत लेने के लिए वन-विभाग शक्तियों का दुरुपयोग करता है। धनी-शक्तिशाली लोगों का हित किया जाता है। उदाहरण के लिए, कागज कारखानों को बांस की आपूर्ति 1.50 रु. प्रति टन की दर से की जाती थी, जब बाजार दर 1500 रु. प्रति टन थी।
उन्होंन कारखानों को नियमों का उल्लंघन करने दिया और समृद्ध बांस के जंगल बड़े इलाकों से नष्ट हुए। फिर भी शहरी प्रकृति संरक्षणवादी इस बात पर जोर देते हैं कि यह वन-विभाग ही देश के आम लोगों द्वारा जंगलों को नष्ट होने से बचाएगा। रियो विश्व परिषद में मान्य जैव-विविधता समझौते ने वन्यजीवों से लेकर सभी जैव-विविधता तक प्रकृति संरक्षण के परिप्रेक्ष्य को व्यापक बनाया है।
प्रकृति संरक्षण में स्थानिक समुदायों की भूमिका महत्वपूर्ण रहनी चाहिए, ऐसा प्रतिपादन किया है। इसके बावजूद इस समझौते के अमल पर लोगों को शत्रु मानने वाले वन विभाग ने कब्ज़ा कायम रखा है। इस समझौते के संदर्भ में भारत शासन ने एक अनुवर्ती जैव-विविधता अधिनियम 2002 पारित किया है। अधिनियम का संशोधित संस्करण वनविभाग को प्रमुख भूमिका प्रदान करना जारी रखता है और दोषपूर्ण नियमों को बरकरार रखता है।
अंग्रेज भारत आए तो देखा कि ये देश वन्यजीवों से भरे पेड़ों का महासागर था। वे यहां के प्राकृतिक संसाधनों को निगलने के लिए भूखे थे। भारतीय जंगल नष्ट कर रहे हैं, ऐसे झूठे दावे से उन्होंने वृक्ष-संसाधनों पर कब्जा करने के लिए वन-विभाग की स्थापना की।


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