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- किताबों से ओझल भारत का...
प्रणय कुमार। इतिहास घटित होता है, निर्देशित नहीं। दुर्भाग्य से इतिहास लेखन के नाम पर हम भारतीयों के मानमर्दन का जैसा सुनियोजित षड्यंत्र पराधीनता के दौर से चलाया गया, वह स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी निर्बाध जारी रहा। स्वतंत्र भारत में भी राष्ट्र के स्व एवं स्वाभिमान की रक्षा में सहायक इतिहास लेखन की दिशा में कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया गया। विचारधारा एवं दल विशेष के दिशानिर्देश पर इतिहास की घटनाओं का संकलन-विश्लेषण किया गया। पूर्व से तय निष्कर्षों को परिपुष्ट करने वाले इतिहासकारों-पुरातत्वविदों को सांस्थानिक पदों पर बिठाकर पुरस्कृत किया जाता रहा। शैक्षिक-साहित्यिक से लेकर इतिहास अनुसंधान परिषद जैसी संस्थाओं को वैचारिक खेमेबाजी का अड्डा बना दिया गया। संवाद के स्थान पर एकालाप और विमर्श के स्थान पर वक्तव्य को प्रोत्साहन मिलने लगा। पाठ्य पुस्तकों में चुन-चुनकर ऐसी घटनाओं एवं विवरणों को सम्मिलित एवं विस्तारपूर्वक विवेचित किया गया, जो भारत के चिरंतन-सनातन वैशिष्ट्य को नष्ट करने में सहायक सिद्ध हों। देश की स्वतंत्रता जैसी सामूहिक एवं सम्मिलित उपलब्धि का सेहरा भी चंद नेताओं के सिर बांधा जाने लगा।