सम्पादकीय

स्मृति शेषः रणवीर सिंह के निधन से सांस्कृतिक विरासत ने खोया अपना बड़ा पैरोकार, भारतीय रंगमंच का संत मार्गदर्शक

Rani Sahu
29 Aug 2022 8:49 AM GMT
स्मृति शेषः रणवीर सिंह के निधन से सांस्कृतिक विरासत ने खोया अपना बड़ा पैरोकार, भारतीय रंगमंच का संत मार्गदर्शक
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रणवीर सिंह के निधन से सांस्कृतिक विरासत ने खोया अपना बड़ा पैरोकार, भारतीय रंगमंच का संत मार्गदर्शक
राकेश
साल 1992 में जयपुर में आयोजित इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन में लखनऊ इप्टा के नाटक 'रामलीला' की प्रस्तुति हुई थी। रणवीर सिंह उस नाटक से बहुत प्रभावित थे। कुछ दिनों बाद उनका फरमान आया कि रामलीला लेकर फिर जयपुर आना है। उन्होंने एक बड़ा सांप्रदायिकता विरोधी कार्यक्रम वहां आयोजित किया था जिसमें यह प्रस्तुति होनी थी। नाटक खुले मंच पर था। प्रदर्शन के दिन दोपहर में लखनऊ से किसी ने रणवीर जी को सूचना दी कि लखनऊ इप्टा के महासचिव और नाटक में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे साथी अजीज अफजाल खां के पिता का निधन हो गया है। हम सब तैयारियों में व्यस्त थे। रणवीर जी चाहते तो सूचना नाटक के बाद हम तक पहुंचाते लेकिन उन्होंने मुझे बता दिया। पशोपेश था कि अजीज को कैसे और कब बताया जाए।
रणवीर जी ने पूरे विश्वास से कहा "मैं उसका अभिनय देख चुका हूं। वह बेहतरीन और समर्पित अभिनेता के साथ एक सच्चा कलाकार जितना भावुक होता है उतना ही मजबूत भी। उसे बताइए, मुझे यकीन है वह प्रदर्शन के बाद ही लखनऊ जाएगा।" उन्होंने चार्ली चैपलिन से लेकर रणमंच के ऐसे तमाम उदाहरण बताए जब कई अभिनेताओं ने ऐसी परिस्थितियों में कला को वरीयता दी। खैर अजीज को बताया। वह थोड़ी देर शांत रहा फिर बोला "मैं नाटक खत्म होने के बाद ही लखनऊ जाऊंगा।" वह पूरी तरह शांत और संयत था।
उस दिन की प्रस्तुति में अजीज ने शानदार अभिनय किया। रणवीर जी ने मंच पर आकर दर्शकों को इस त्रासदी के बारे में बताया और उसे गले लगा लिया। एक तरफ अजीज फूट-फूट कर रो रहा था, रणवीर जी, हमारी पूरी टीम और सैकड़ों दर्शक रो रहे थे। यह घटना सिर्फ एक भावुक कर देनी वाली घटना नहीं थी। यह उस भरोसे की बानगी थी जो रणवीर जी ने अपने अनुभवों से अर्जित किया था। जो एक सच्चे कलाकार की निर्मिति होती है। जहां उसका अस्तित्व खुद ब खुद कला और समाज को समर्पित होता जाता है। खुद रणवीर सिंह इसकी मिसाल रहे।
राजघराने की परंपराओं का बंधन तोड़कर उन्होंने कला और रंगमंच की दुनिया में लंबी और सधी हुई छलांग लगाई। पुरखों की संपत्ति से बेपरवाह एक फकीर की तरह रहे। हालांकि रंगमंच में पूर्वाभ्यास से लेकर नाट्य प्रस्तुति, नाटककार की रॉयल्टी के भुगतान, मंच पर और मंच से परे कलाकारों के भुगतान और नाट्य प्रस्तुति के कलात्मक पक्ष के अतिरिक्त एक-एक पक्ष पर वे एक 'प्रोफेशनल थिएटर' के लिए न सिर्फ प्रतिबद्ध थे बल्कि उसके लिए उन्होंने लड़ाइयां भी लड़ीं। टिकट लगा कर नाटक करने को वे अनिवार्य मानते थे और इस पर कोई समझौता उन्हें मंजूर न था। उनका मानना था कि सामाजिक, राजनैतिक भूमिका निभाते हुए समाज में कला और रंगमंच के लिए 'स्पेस' सुनिश्चित करने की लड़ाई भी लगातार लड़ी जानी चाहिए।
उनके जीवन की परिस्थितियों पर गौर करें तो उनमें खुद एक नाटकीय विरोधाभास है। उनका जन्म राजस्थान के डुंडलाद राजघराने में हुआ। शुरुआती शिक्षा दीक्षा प्रतिष्ठित मेयो कॉलेज से हुई। 16 साल की उम्र में कैम्ब्रिज से शिक्षा के बाद अपने बूते वे पहले फिल्मों में अभिनय करने मुम्बई पहुंच गए। बीआर चोपड़ा जैसे निर्देशक और अशोक कुमार और मीना कुमारी जैसी अभिनेत्री के साथ अभिनय करने के बाद भी उन्हें फिल्मी दुनिया की चकाचौंध रास नहीं आई और वे थिएटर में वापस आ गए। रंगमंच में अभिनय, निर्देशन, लेखन और सांस्कृतिक इतिहास पर शोधपरक लेखन का उनका लंबा इतिहास है। सांस्कृतिक इतिहास पर तो उनकी पैनी नज़र हर वक्त रहती थी।
1953 में जयपुर लौटकर 'जयपुर थिएटर ग्रुप' की स्थापना, 1959 में कमला देवी चट्टोपाध्याय के बुलावे पर दिल्ली जाना और उनकी सरपरस्ती में 'भारतीय नाट्य संघ' की स्थापना और फिर 'यात्रिक' थिएटर ग्रुप के साथ अनेक नाटकों से जुड़ना एक महतवपूर्ण पड़ाव था। बाद के दिनों में अनेक टीवी धारावाहिकों में अभिनय भी किया जिनमें अमाल अल्लाना के निर्देशन में 'मुल्ला नसरुद्दीन' और अनुराग कश्यप के निर्देशन में 'गुलाल' और संजय खान के निर्देशन में 'टीपू सुल्तान की तलवार' प्रमुख हैं। उन्होंने कई विदेशी नाटकों के भारतीय रूपांतरण भी किये। वे इतिहास के गहरे अध्येता थे। रंगमंच के इतिहास को उन्होंने वाजिद अली शाह, पारसी रंगमंच का इतिहास, इंदर सभा, संस्कृत नाटक का इतिहास जैसी पुस्तकों से समृद्ध किया। साथ ही नाटकों के कई विश्व कोषों में भारतीय रंगमंच की उपस्थिति दर्ज कराई। रंगमंच के आदान प्रदान हेतु इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, रूस, जर्मनी, फ्रांस, बंगलादेश, नेपाल आदि देशों का कई बार भ्रमण किया।
मुझे याद है रणवीर सिंह जी से पहली मुलाकात 1984 में दिल्ली में इप्टा की पुनर्स्थापना के लिए एक बैठक में हुई थी। अन्य चर्चाओं के अलावा उन्होंने लखनऊ में 1853 में खेले गए आगा हसन अमानत के नाटक 'इंद्र सभा' की चर्चा की। खुद पर शर्मिंदगी हुई कि मैं उसके बारे में कुछ नहीं जानता था। लखनऊ के सांस्कृतिक इतिहास की उनकी जानकारी से मैं चकित था। गहरे अध्ययन के बाद उनकी किताब 'इंद्र सभा' वर्ष 2000 में छपी जिसमें इस नाटक पर उन्होंने बहुत तथ्यपरक जानकारियां सामने रखीं। तमाम किताबों और शोध ग्रंथों का तो सहारा लिया ही उन्होंने, उन जगहों को भी देखा जहां यह नाटक खेला गया था। उस पहली मुलाकात में ही उन्होंने आगा हसन अमानत के बारे में बताया कि 20 वर्ष की उम्र में किसी बीमारी में अमानत की आवाज़ चली गई और वे लिखकर अपनी बात कहने लगे और यही बेचारगी 'इंद्र सभा' का सबब बनी। खैर, बाद में उनकी किताब 'इंद्र सभा' और 'वाज़िद अली शाह' में लखनऊ के सांस्कृतिक इतिहास को गहराई से समझा जा सकता है। संस्कृत रंगमंच और आधुनिक नाटक के बीच की लंबी खाई उन्हें परेशान करती थी। इस रिक्ति की खोज में वे पारसी रंगमंच के अध्ययन में जुट गए।
9वीं सदी से 18वीं सदी के अंत तक का समय भारतीय रंगमंच के लिए एक अंधेरे का समय मानते हुए उन्होंने प्रतिपादित किया कि लगभग 9वीं सदी में संस्कृत नाटकों का जो पर्दा गिरा वह पारसी थिएटर के साथ 18वीं सदी के अंत में ही उठ पाया। इस विषय पर उनकी बेहद जरूरी किताब 'पारसी थिएटर' अभी पिछले ही साल आई। यह किताब पारसी थिएटर के उद्भव, विकास और पतन की मुकम्मल दास्तान है। इसमें आगा हसन काश्मीरी, नारायण प्रसाद बेताब, राधेश्याम कथावाचक और बाबू बृद्धि चंद्र मधुर की जिन्दगी और कामों की चर्चा के साथ पारसी नाटक मण्डलियों की पूरी सूची है। पारसी थिएटर के मशहूर कलाकार गणपत लाल डांगी से रणवीर सिंह का साक्षात्कार भी है।
इस किताब के बाद संस्कृत रंगमंच और आधुनिक रंगमंच के बीच लोक नाट्य पर मेरी उनसे कई बार लंबी बात हुई और वे इस पर काम करने की योजना बना चुके थे। इप्टा के हम सभी साथी उनकी अदम्य ऊर्जा से हतप्रभ होते थे। अभी पिछले साल दिसंबर में जालंधर में इप्टा की राष्ट्रीय समिति की बैठक में वे आए और तमाम असुविधाओं के बीच दो दिन तक लगातार बैठकों में न केवल पूरे समय उपस्थित रहे बल्कि पूरी सजगता से हर छोटी-बड़ी बात पर हस्तक्षेप करते रहे।
सभाओं और समारोहों में रात 12 बजे सोने के बाद भी सुबह 6 बजे जब लोग चाय की तलाश कर रहे होते वे नहा कर तैयार मिलते थे। उनके साथ अनेक यात्राएं कीं। वे अपना सामान खुद उठा कर चलते थे। किसी की नहीं सुनते थे। मुझे याद है कि कोई तीन साल पहले जनवरी के महीने में इप्टा की एक बैठक कपूरथला में थी। वे जयपुर से ट्रेन से जालंधर आए थे और मैं लखनऊ से। मेरी और उनकी गाड़ी आधे घंटे के अंतर से सुबह 7 बजे जालंधर पहुंचने को थी। आयोजकों ने हम दोनों को कपूरथला ले जाने के लिए एक गाड़ी भेजी थी। मेरी गाड़ी कोहरे के कारण तीन घंटे विलंब से पहुंची। बिना शिकायत वे मेरा इंतजार करते रहे। जो साथी लेने आया था उसने कहा भी कि उन्हें पहुंचा कर वह फिर आ जाएगा लेकिन सिर्फ इसलिए कि उस कार्यकर्ता को परेशानी होगी वे तीन घंटे बैठे रहे। छोटे से छोटे कार्यकर्ता और रंगकर्मी से वे उसके काम और उसकी जिन्दगी के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी जुटा लेते थे। वे हमेशा मुझे चेताते थे: ''रामलीला नाटक में जिस साम्प्रदायिकता को तुमने निशाना बनाया था आज वह कॉरपोरेट और धर्मान्धता के गठजोड़ से हिटलर के फासीवाद से ज्यादा भयावह हो गई है। इस पर कुछ नया लिखोगे या नहीं।" मैं उन्हें आश्वस्त तो करता पर वे पूछना बन्द नहीं करते। अब कौन बार बार चेताएगा!
पिछले दिनों पहली बार उन्हें दु:खी देखा। पता चला कि किस तरह उन्होंने 'हिटलर के फासीवाद' पर एक लेख लिखा और अपने पुराने दोस्त शंकर सुहैल को इस गरज से भेजा कि कहीं छप जाएगा। शंकर सुहैल ने वह लेख अपने एक परिचित को दिया यह सोचकर कि वह उनकी नजर में जिम्मेदार और जेनुइन पत्रकार थे। लेकिन कुछ दिन बाद पता चला कि उन 'जिम्मेदार और जेनुइन पत्रकार' महोदय ने वह लेख अपने ही अखबार में अपने ही नाम से हूबहू छाप लिया। उनका दु:खी होना वाजिब था।
रणवीर सिंह 93 वर्ष के थे। उम्र के इस दौर में भी वैचारिक रूप से पूरी तरह सजग, अपने आसपास के सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रम के प्रति सतर्क और हम सब को सतर्क करते हुए। अभी उनके खजाने में बहुत कुछ शेष था जिसे सामने आना था। उन पर कहने और सुनने को हम सभी के पास बहुत कुछ है। वे हमेशा हमारे साथ रहेंगे।
Rani Sahu

Rani Sahu

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