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- मन में दीये सी जगमग वह...

विभूति नारायण राय दीपावली कहना हमेशा मुश्किल सा लगता है। दिवाली ज्यादा सहज स्वाभाविक ढंग से बोलचाल में निकलता है। इस दिवाली पर न जाने क्यों इंटरमीडिएट के अपने संस्कृत अध्यापक पंडित जयानंद मिश्रा याद आ रहे हैं। उम्र के इस पड़ाव पर स्मृतियों का क्या? आगे पीछे दौड़ती हैं। पिछली दिवाली की चीजें धुंधली हैं, पर अचानक 50 वर्ष पूर्व कालिदास के रघुवंशम को रस लेकर पढ़ाते हुए अपने अध्यापक का चेहरा पानी में आधा डूबता आधा उतराता सा दीखता है। इस समय उनकी याद आने की दो वजहें हैं। एक तो मिथिला के किसी सुदूर अंचल से बनारस जैसे बड़े शहर में आए मिश्रा जिस तरह संस्कृत में रमे रहते थे, उसमें तद्भव के लिए यह आग्रह कि उनके छात्र दीपावली की जगह दिवाली कहें, कुछ-कुछ असंगत लगता था, पर उनकी टोका-टाकी अवचेतन पर आज भी ऐसे दर्ज है कि मुंह से दीपावली निकलने पर घबराकर चारों तरफ देखता हूं कि पंडित जी सुन तो नहीं रहे।
