सम्पादकीय

जातिगत जनगणना का जिन्न फिर निकला बाहर, क्या पूरी होगी राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश

Gulabi
22 Feb 2021 4:43 PM GMT
जातिगत जनगणना का जिन्न फिर निकला बाहर, क्या पूरी होगी राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश
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जिस तरह जादुई बोतल का जिन्न निकल कर सामने आ जाता है,

जिस तरह जादुई बोतल का जिन्न निकल कर सामने आ जाता है, भारत में जनगणना की सुगबुगाहट शुरू होते ही जाति का जिन्न एक बार फिर से निकल आया है. हर दस साल में देश में जनगणना करने की परम्परा है जो अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही है. चूंकि अब अधिकतर जन्म और मृत्यु का रजिस्ट्रेशन होता है, आधार और मतदाता कार्ड होता है, इसलिए सरकारों को एक हद तक देश की जनसंख्या की जानकारी होती है. आज की तारीख में भारत की अनुमानित जनसंख्या 1,38,76,61,389 यानि 138 करोड़ से ज्यादा है.


भविष्य की योजना बनाने में जनगणना की खास भूमिका होती है, क्योकि जो आंकड़े इकट्ठा किये जाते हैं उसका कई तरह से विश्लेषण होता है. मसलन शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की आबादी, शिक्षितों की आबादी, बेरोजगारों की आबादी और स्त्री-पुरुष का अनुपात. ऐसे कई आकडे़ हैं जो जनगणना से सामने आते हैं. जिन्हें जन्म रजिस्ट्रेशन से या फिर आधार और मतदाता पहचान पत्र से एकत्रित नहीं किया जा सकता है. भारत में जनगणना का काम इस साल होना है. तरीके से इसकी शुरुआत पिछले साल ही हो जानी चाहिए थी लेकिन कोरोंना महामारी के कारण इसे टाल दिया गया था. केंद्र सरकार अब इस प्रक्रिया को शुरू करना चाहती है. चूंकि करोना संक्रमण का अभी अंत नहीं हुआ है. इसलिए जैसा कि पहले होता था घर-घर जा कर जानकारी इकट्ठा की जाती थी. इसबार जहां तक संभव हो सके इसे मोबाइल और अन्य डिजिटल माध्यमों से करने का प्रस्ताव है.

NDA के सहयोगी ही कर रहे हैं जातिगत जनगणना की मांग
जनगणना प्रक्रिया की अभी शुरुआत होनी बाकी है पर जैसा कि हर बार होता है बोतल का जिन्न बाहर निकल आया है. यह जिन्न कोई और नहीं बल्कि जातिगत आधार पर जनगणना कराने की मांग है. इस मांग की शुरुआत बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया और अब केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले भी इसकी मांग कर रहे हैं.
पिछली जनगणना 2011 में हुई थी. उस समय भी यह मांग उठी थी जिनमें प्रमुख मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव जैसे नेता थे और इस बार केंद्र में सत्तारूढ़ एनडीए के घटक दल यह मांग कर रहे हैं. अगर संक्षेप में कहा जाए तो जातिगत मतगणना की मांग वही करते हैं जिनको जातिगत राजनीति करनी होती है.

1881 से शुरू हुई थी जनगणना
भारत में आधिकारिक तौर पर जनगणना की शुरुआत 1881 में हुई थी. अंग्रेजों के समय में भी जाति, धर्म, मातृभाषा, शिक्षा, रोजगार वगैरह का सवाल शामिल होता था. लेकिन उसे जातिगत जनगणना के रूप में कभी भी नहीं देखा गया. जाति और धर्म पर सवाल महज एक औपचारिकता होती थी. 1931 और 1941 की जनगणना में जाति के बारे में आकडे़ होने के बावजूद इसका अलग से 'टैबुलेशन' यानि सारणीबद्ध नहीं किया गया था. स्वतंत्रता के बाद 1951 में पहली बार जनगणना की गई और उस समय से ही जाति के बारे में आंकड़े इकट्ठा किया जाना लगा था.

मंडल कमीशन की रिपोर्ट के बाद हुआ था दंगा
जिस तरह से जाति के नाम पर देश को बांटा जाता रहा है, जिस तरह जाति के नाम पर आन्दोलन से दंगा फसाद होता रहा है. उसके बाद कोई भी सरकार हो, चाहे वह मनमोहन सिंह की सरकार 2011 में रही हो या अब नरेन्द्र मोदी की सरकार है कोई भी मधुमक्खी के छत्ते में हाथ नहीं डालना चाहेगा. मंडल कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद जिस तरह से देश में अराजकता की स्थिति पैदा हो गयी थी उसे कोई भूल नहीं पाया है. जाट आन्दोलन के नाम पर पहले राजस्थान में और फिर हरियाणा में भी जम कर दंगा फसाद हुआ.

जाति के नाम पर समाज को बांट रहे हैं
समय आ गया है कि जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने का काम शुरू किया जाए और जातिगत जनसंख्या की मांग बिल्कुल अनुचित है. नीतीश कुमार ने सोशल इंजीनियरिंग के तहत दलितों को भी दो भाग में बांटने का काम किया. अलग से महादलितों की बात करके, शायद बिहार में चुनाव जीतने के लिए यह ज़रूरी रहा होगा. इससे समाज दो भागो में बंट गया, ना कि नीतीश कुमार सरकार ने बिहार के बिखरे समाज को जोड़ा. ठीक उसी तरह जैसे उनके मित्र से शत्रु बने लालू प्रसाद यादव ने कभी MY (मुस्लिम-यादव) को इकट्ठा करके बिहार के दलगत राजनीति में दलदल फैला दिया था.

हर राज्य में जाति कि स्थिति अलग
जातिगत जनगणना में एक और समस्या है. एक ही जाति किसी राज्य में पिछड़ी जाति में गिनी जाती है तो वहीं किसी और राज्य में ऊंची जाति में गिनी जाती है, ऐसा स्थानीय परिस्थितियों के कारण होता है. अगर जाट समुदाय की ही बात करें तो हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाट की स्थिति राजस्थान के जाटों से बिलकुल अलग है. हरियाणा के संपन्न अहीरों की तुलना बिहार या उत्तर प्रदेश के अहीरों से नहीं की जा सकती है. लेकिन जब जनगणना होता है तो वह राष्ट्रीय स्तर पर होता है और आंकड़े पूरे देश के लिए होते हैं ना कि किसी राज्य विशेष के लिए.

फिलहाल चुप है कांग्रेस
फिलहाल जातिगत जनगणना की मांग एनडीए के अन्दर से ही की जा रही है. कांग्रेस पार्टी की चुप्पी इस मामले में समझी जा सकती है. 2010 में जब मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव ने यह मांग उठाई थी तब संसद में कांग्रेस के बड़े नेताओं पी चिदंबरम, आनंद शर्मा और मुकुल वासनिक ने इसका विरोध किया था. हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि राहुल गांधी सिर्फ सरकार को परेशान करने के लिए ऐसी मांग करते दिख सकते हैं. एक लम्बी लिस्ट है उन नीतियों की जो कांग्रेस पार्टी के शासन में थी या शुरू की गयी थी. लेकिन राहुल गांधी अब उसका ही विरोध करते दिख रहे हैं. जैसे कि कृषि कानून पर उनका विरोध, जबकि इस कानून की रुपरेखा मनमोहन सिंह सरकार के समय में ही बनाई गयी थी.

क्या मोदी सुनेंगे अपने सहयोगी दलों की मांग?
नीतीश कुमार हों या अठावले, फिलहाल उन्हें राजनीति करने के लिए जाति समीकरण की ज़रुरत पड़ती है. पर ऐसा लगता नहीं है कि नरेन्द्र मोदी उनकी मांग मानेंगे. बीजेपी पर भले ही धर्म के नाम पर राजनीति करने का आरोप लगता रहा हो, पर जाति के नाम पर मोदी या बीजेपी हिन्दू समाज को तोड़ने के किसी भी प्रयास का समर्थन नहीं करेगी. किसी को कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए अगर आनेवाले दिनों में मोदी सरकार जातिगत आरक्षण को ख़त्म करके आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के घोषणा कर दे. बहरहाल नीतीश कुमार हों या अठावले, वह अपनी ढपली बजाते दिखेंगे. लेकिन उनकी मांग सुनी जाएगी इस पर शक है. क्योकि ज़रुरत है भारत में जाति के आधार पर भेदभाव खत्म करके एक संगठित समाज के निर्माण करने की.


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