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अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार देने वाली महामारी के बीच आए आम बजट ने केवल नए टैक्स की आशंका को ही दूर नहीं किया, बल्कि ऐसे कई सुधारों की राह भी खोली, जिनकी प्रतीक्षा एक अर्से से की जा रही थी। सबसे उल्लेखनीय यह है कि विनिवेश के लक्ष्य को हासिल करने के उपाय तय करके यह स्पष्ट करने की भी कोशिश की गई कि सरकार का काम उद्योग चलाना नहीं है। यह विचित्र है कि जब न्यूनतम सरकार-अधिकतम क्षमता की अवधारणा को साकार करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जा रहे हैं, तब विपक्षी दल यह शोर मचाने में लगे हुए हैं कि सरकारी कंपनियों को बेचा जा रहा है। हास्यास्पद यह है कि इनमें वह कांग्रेस भी शामिल है, जिसने अपने समय में विनिवेश नीति को आगे बढ़ाया। विपक्ष के रवैये से तो यही लगता है कि वह समाजवादी सोच वाली अर्थव्यवस्था के नाकाम हो जाने के बाद भी यह मानकर चल रहा है कि सब कुछ सरकार को ही करना चाहिए और उससे ही लोगों में खुशहाली आएगी। सात दशक बाद भी यह सोच राजनीतिक दीवालियेपन का परिचायक है। यदि भारत के साथ स्वतंत्र हुए अन्य देश आर्थिक प्रगति में आगे निकल गए तो इसी कारण कि वहां की सरकारों ने सब कुछ खुद करने की नीति नहीं अपनाई।