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38 साल की मन्हारी देवी दिल्ली के वसंत कुंज इलाके से सटे किशनगढ़ गांव में रहती हैं
38 साल की मन्हारी देवी दिल्ली के वसंत कुंज इलाके से सटे किशनगढ़ गांव में रहती हैं और वसंत कुंज की कोठियों में साफ-सफाई का काम करती हैं. मन्हारी के पति सखाराम वहीं पास में एक मल्टीनेशनल दफ्तर में गार्ड का काम करते हैं. पिछले साल मई में कोविड की पहली वेव के दौरान मन्हारी और उनके पति दोनों को कोविड हुआ था, लेकिन वो होकर ठीक हुए भी एक साल बीत चुके. सखाराम को अभी एक महीने पहले ही वैक्सीन लगी है. उनके ऑफिस में सभी कर्मचारियों को लगाई जा रही थी, तो उसे भी लग गई. लेकिन मन्हारी ने वैक्सीन नहीं लगवाई.
मन्हारी को पता है कि सरकार की तरफ से मुफ्त वैक्सीन लग रही है. उसकी जेब से पैसे नहीं लगेंगे, लेकिन फिर भी वह अभी वैक्सीन लगवाने को राजी नहीं. इसके पीछे मन्हारी की सबसे बड़ी चिंता बीमार पड़ जाने का डर है. पति को जब वैक्सीन लगी थी तो वो तीन दिन बुखार में पड़ा रहा. मन्हारी कहती है कि वो बीमार होने का रिस्क नहीं ले सकती. एक तो बुखार होने का डर और दूसरे बुखार हुआ तो मालकिन लोग कोविड के डर से काम भी छुड़ा सकती हैं. पिछले डेढ़ सालों में ऐसा दो-तीन बार हुआ, जब काम पर वापस लौटने के लिए लोगों ने उससे अपना एनटीपीसीआर टेस्ट करवाने को कहा. एक बार उसने इस टेस्ट के चक्कर में अपनी जेब से 1200 रु. खर्च भी किए ताकि काम पर लौट सके. लेकिन टेस्ट के कुछ ही दिन बाद जब वो दोबारा बीमार पड़ी (इस बार कोविड नहीं था) तो लोगों ने वापस वही डिमांड रख दी, "पहले अपना कोविड टेस्ट करवाकर आओ."
मन्हारी कहती हैं, "काम तो चाहिए न. जिसकी गरज हो, उसी को कोविड वाला करवाना पड़ेगा."
वैक्सीन को लेकर मन्हारी का ये इकलौता डर नहीं है. उसे ये भी लगता है कि वैक्सीन लगाने से लोग मर जाते हैं. मन्हारी के साथ उसी कॉलोनी में काम करने किशनगढ़ से 11 और स्त्रियां भी जाती हैं. उनमें से किसी ने अब तक वैक्सीन नहीं लगवाई. 11 में से 6 के पतियों और जवान बेटों को वैक्सीन लग चुकी है. मन्हारी की 22 साल की बेटी सरिता, जो ब्याह के बाद अपने पति के पास गाजियाबाद रहती है, उसने भी अब तक वैक्सीन नहीं लगवाई. उसके पति को वैक्सीन लग चुकी है, जो अमेजन में डिलिवरी बॉय का काम करता है.
इस पूरी बातचीत में वैक्सिनेशन के जेंडर गैप को लेकर जो तथ्य समझ आ रहा है, वो सिर्फ एक महिला से बातचीत पर आधारित है. ऐसी 200 और 2000 महिलाओं से बातचीत की जाए तो तस्वीर शायद और भयावह हो सकती है.
वैसे इस तस्वीर की एक झलक तो उन सरकारी आंकड़ों में मिल ही रही है, जो बता रहे हैं कि कोविड वैक्सीनेशन में खासा जेंडर गैप है. वैक्सीन लगवाने वाली महिलाओं की संख्या पुरुषों से बहुत कम है. प्रति हजार पुरुष पर सिर्फ 867 महिलाओं को कोविड वैक्सीन लगी है, जो भारत के जेंडर अनुपात से भी बुरा है. भारत सरकार की वेबसाइट cowin.gov.in पर दिए हुए आज तक के आंकड़ों के मुताबिक भारत में अब तक तकरीबन साढ़े तेरह करोड़ पुरुषों और 11 करोड़ 13 लाख महिलाओं को वैक्सीन लगाई जा चुकी है. वैक्सीन लगवाने वाली महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले बहुत कम है.
पूरे भारत में सिर्फ उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों जैसे मेघालय और अरुणाचल प्रदेश में वैक्सीन लगवाने वाली महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा है. उत्तर भारत में यह अनुपात सबसे खराब है. दक्षिण भारत की स्थिति कुछ बेहतर है, हालांकि पुरुषों की संख्या वहां भी महिलाओं से
ज्यादा है.
जयपुर में डेवलपमेंट एंड जस्टिस एनीशिएटिव के साथ बतौर प्रोजेक्ट मैनेजर काम कर रही अपर्णा देवल कहती हैं, "ये फैक्ट है कि वैक्सीन लगवाने वाले पुरुषों की संख्या महिलाओं से ज्यादा है, लेकिन इसकी एक बड़ी वजह पुरुषों का ऑर्गनाइज्ड सेक्टर में काम करना है. बहुत सारी बड़ी कंपनियों, सरकारी और गैरसरकारी दफ्तरों में वैक्सीनेशन प्रोग्राम के तहत अपने सभी कर्मचारियों को वैक्सीन लगवाई गई. जाहिर है पुरुषों को परिवार में सबसे पहले और सबसे आसानी से वैक्सीन लग गई. मिडिल क्लास महिलाएं अगर हाउस वाइफ हैं तो वैक्सीन तक उनकी पहुंच आसान नहीं होगी. निचले वर्ग में महिलाएं ज्यादातर घरों में साफ-सफाई और खाना बनाने का काम करती हैं. जाहिर है, वह संगठित क्षेत्र नहीं है. वहां एंम्प्लॉयमेंट से जुड़ी वैसी सुविधाएं, सुरक्षा और गारंटी नहीं है. उनकी मालकिन तो उन्हें वैक्सीन लगवाएगी नहीं."
लखनऊ पुलिस में हवलदार रंगनाथ शुक्ला को दो महीने पहले ही वैक्सीन लग गई क्योंकि पुलिस डिपार्टमेंट की ओर से सभी कर्मचारियों के लिए फ्री वैसिनेशन का इंतजाम किया गया था और वैक्सीन लगवाना कंपलसरी था. इस तरह उन्हें तो वैक्सीन लग गई, लेकिन अब तक उनकी पत्नी और दो बेटों को नहीं लग पाई है. हालांकि बेटे दोनों अभी बालिग नहीं हैं. इसी तरह इलाहाबाद मेडिकल कॉलेज में सफाई स्टाफ अमित पटेल भी अस्पताल की तरफ से वैक्सीन लगवा चुके हैं, लेकिन उनकी पत्नी को अभी वैक्सीन नहीं लगी. अस्पताल की तरफ से ये सुविधा जरूर थी कि आपे अपने घरवालों का भी फ्री वैक्सिनेशन करवा लें लेकिन अमित को पत्नी को अस्पताल तक लेकर जाना भी बड़ा भारी काम
लगता है.
पुरुषों का नौकरीपेशा और पत्नियों का हाउसवाइफ होना एक बड़ा ठोस कारण है इस जेंडर गैप के पीछे. लेकिन सिर्फ यही एक वजह नहीं है. जेंडर गैप तो हमारे समाज में और भी बहुत सारा है. स्त्री-पुरुष की शिक्षा, जागरूकता और अपनी सेहत और अधिकारों के प्रति सजगता में भी जमीन-आसमान का अंतर है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले स्वास्थ्य सुविधाएं 31 फीसदी कम मिलती हैं. हालांकि ये कहानी सिर्फ भारत की नहीं है. पूरी दुनिया में यही हाल है.
सिर्फ कोविड वैक्सीनेशन ही क्यों, जनरल इम्युनाइजेशन में भी भारत में जेंडर गैप को लेकर अब तक कई रिपोर्ट प्रकाशित हो चुकी हैं. लड़कों के टोटल इम्युनाइजेशन का अनुपात लड़कियों के मुकाबले बहुत ज्यादा है. पुणे में हाल ही में हुए एक सर्वे में भी ये तथ्य सामने आया कि जन्म के बाद लगाए जाने वाले सारे जरूरी टीके और पोलियो की खुराकें जितनी मुस्तैदी, तत्परता और जिम्मेदारी के साथ लड़कों को लगाई गईं, उतनी जिम्मेदारी लड़कियों के मामले में नहीं बरती गई. किसी बच्ची को पोलियो की दो खुराकें मिलीं तो किसी को एक. इसके पीछे वजह न लगवाने का इरादा नहीं है, बल्कि भूल जाना, याद न रहना और लापरवाही बरतना है.
जेंडर गैप की बात करें तो कौन सा ऐसा क्षेत्र है, जो इससे अछूता है. भारत का वैक्सीन प्रोग्राम पूरी तरह डिजिटल है और रूरल इंडिया में इंटरनेट तक महिलाओं की पहुंच पुरुषों के मुकाबले 41 फीसदी कम है. अर्बन इंडिया में ये गैप 17 फीसदी है. यदि हम महिलाओं से उम्मीद कर रहे हैं कि वो खुद कोविन की साइट पर जाकर अपना रजिस्ट्रेशन करेंगी और अपने लिए स्लॉट बुक करवाएंगी तो जाहिर है कि ऐसा नहीं होगा. मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बतौर सामाजिक कार्यकर्ता पिछले तीन दशकों से सक्रिय सुमित्रा पंत कहती हैं, "इंटरनेट और स्मार्ट फोन तक महिलाओं की पहुंच ही अगर कम है तो उसका सीधा असर वैक्सिनेशन प्रोग्राम के जेंडर गैप में भी दिखाई देगा."
फिलहाल जेंडर गैप भारत के लिए हर लिहाज से चिंता का विषय है. जनसंख्या में लड़का-लड़की के चिंताजनक अनुपात के अलावा शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय और स्वास्थ्य सुविधाओं तक महिलाओं की कम पहुंच चिंता का विषय है, लेकिन जैसाकि पूरी दुनिया में हो रहा है, सरकारों के लिए ये उतनी गंभीर चिंता का सवाल नहीं. इस जेंडर गैप को कम करने के लिए सरकार के पास कोई ठोस नीतियां और उपाय नहीं है. इसी साल मार्च के अंत में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के मंच पर जेंडर गैप पर एक रिपोर्ट जारी हुई, जिसके मुताबिक दुनिया में जेंडर इक्वैलिटी हासिल करने का लक्ष्य अब 100 साल आगे खिसक गया है. अब तक पूरी दुनिया के लिए 120 सालों का लक्ष्य रखा गया था. अब औरतों को और 100 साल और इंतजार करना होगा.
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