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- फूलों की खुशबू-सी...
सरस्वती रमेश: आजादी की अहमियत के बारे में अलग से जिक्र करने की जरूरत शायद नहीं है, क्योंकि दुनिया भर में इसकी भूख में जाने कितने और किस तरह के उतार-चढ़ाव देखने में आए। समय और संदर्भों के मुताबिक इसके स्वरूप बदलते भी रहे हैं। लेकिन हम जिस प्रचलित 'आजादी' की बात आज के दौर में करते हैं, वह आखिर क्या है और इसके मायने क्या हैं! यह कहां से शुरू होती है… किसकी आजादी? मेरी राय के मुताबिक, पहले यह जान लेना जरूरी है कि आजादी कोई व्यक्ति में सिमटी चीज नहीं। व्यक्ति दर व्यक्ति से जुड़ कर आजादी के फूलों की लड़ी बनती है।
हमारी स्वतंत्रता किसी और की स्वतंत्रता से जुड़ी हुई है। अगर हम बोलने- लिखने और अपनी इच्छा अनुसार काम करने के लिए आजाद हैं तो सामने वाला भी आजाद होना चाहिए। तभी आजादी की अवधारणा शुद्ध रूप में खिल सकेगी। शोषण, दमन, बेईमानी आदि आजादी की अवधारणा को ठेस पहुंचाते हैं, क्योंकि इससे आजादी की सबसे बड़ी शत्रु असमानता का जन्म होता है।
सवाल है कि आजादी शुरू कहां से होती है। संसद से, संविधान से या अपने भीतर के ईमान से। संविधान तो कह रहा है कि हम आजाद देश के नागरिक हैं! मगर हमारा ईमान क्या कह रहा? अगर आप आजाद हैं तो कितना? पूरी तरह या थोड़ा बहुत? या फिर आपकी आजादी को किसी ने छीन रखा है!
अतिवादी, धैर्यहीन, अनुदार और अकर्मक मनुष्य न सिर्फ अपने जीवन में, बल्कि दूसरों के जीवन में भी अतिक्रमण कर आजादी की भावना को दूषित करता है। ऐसे लोग राह चलते हुए अपनी अतिवादिता से आजादी के नियम या प्रतीक तोड़ते हैं। सड़क पर गलत लेन में गाड़ी चला कर आजादी को गलत मोड़ देते हैं। बेवजह हार्न बजा आजादी की अवधारणा की नींद उड़ाए रहते हैं। उनका काम सबसे जरूरी है। दूसरे, अपना काम समय पर कर सकें, इसकी उन्हें परवाह नहीं। अगर हम भी इन्हीं लोगों में शामिल हैं तो फिर आजादी की उन्मुक्त हवाएं हमारी सोच की इन संकरी राहों से नहीं गुजर सकती हैं।
अपने व्यक्तिगत जीवन में आजादी के सही मायने धारण करने हैं तो किसी को भी अपने व्यक्तित्व को संपूर्ण बनाना होगा। एक ऐसा व्यक्तित्व, जिसमें समझदारी और मानवीय चेतना का मेल हो, सामाजिकता हो, करुणा हो और सबसे बड़ी बात प्रेम हो। असली आजादी हमें एक दूसरे से प्रेम करना सिखाती है। अब हममें से कोई यह सकता है कि आजादी और प्रेम का क्या संबंध। संबंध है। अब एक जबरा, जो किसी से प्रेम नहीं रखता, न मनुष्य, न पशु, न कीट, न धरती, न आकाश से, उसके लिए आजादी क्या मायने रख सकती है।
आजादी संयम और सुधार मांगती है। आजाद देश का नागरिक होने के नाते आप अपने अधिकारों ही नहीं, अपने कर्तव्यों से भी वाकिफ हों। सड़क पर आपकी मर्जी नहीं, कानून चले। व्यवस्था चले और भारत जैसे घनी आबादी वाले देश में धैर्य, संयम और थोड़ी सी समझदारी भी चले। बड़े बूढ़े और स्कूली बच्चे सड़क के उस पार खड़े हैं तो क्या कहती है हमारी आजादी? गाड़ी पर बैठे सरपट दौड़ते रहेंगे या गाड़ी रोककर उन्हें सड़क पार कर लेने की मोहलत देंगे। या हमारी आजाद खयाली यह भी कहती है कि गाड़ी से उतरो और जाओ उस वृद्ध स्त्री का हाथ पकड़ कर उसे सड़क पार करा दो।
हमने सोशल मीडिया के कई वीडियो में अक्सर देखा होगा कि जब कोई गिलहरी या बत्तख अपना कुनबा लेकर सड़क पार कर रही होती है तो विदेशी सड़कों पर गाड़ियां कई -कई मीटर पीछे रुक जाया करती हैं। क्यों? कीमती गाड़ी में बैठकर इंसान अक्सर इंसानों को भी देखना छोड़ देता है और ये कौन से लोग हैं जो गिलहरी और बतख देख रुक जा रहे। ये वही लोग हैं जो जानते हैं कि आजादी पर सिर्फ इंसान का एकाकी अधिकार नहीं। आजादी तो हवाओं में फैली वह खुशबू है, जिससे जर्रा-जर्रा महमहा उठे।
हमारी आजादी गिलहरियों के सुरक्षित सड़क पार कर लेने में भी है। सड़क किनारे लगे पौधों के सुरक्षित रहने में भी है। आजादी इसमें भी है कि रात को घर से निकली बहन-बेटियां सहज और सुरक्षित रहें। घर में रह रहे बुजुर्ग रात को चैन से सो सकें। लाउडस्पीकर किसी की आजादी का हनन न करे। हमारे घर की दुर्गंध किसी और की नाक तक न पहुंचे। मेरी पतंग जिम्मेदारी की डोर कर बांध उड़े और किसी और का गला न रेते।
तो कहने का आशय यह कि आजादी कहीं न कहीं आत्म नियंत्रण में जन्मती है। आजादी का मतलब दिवाली की रात को कुत्तों की पूंछ में पटाखे बांधकर उनकी जान सांसत में डालना कतई नहीं। और न ही आजादी पंद्रह अगस्त को दिन भर पतंग उड़ाते हुए हो-हो चिल्लाने और मांझे से बेजुबान पक्षियों के पंख काटने में है। आजादी एक जिम्मेदारी है। अपने व्यवहार को संयमित बनाए रखने का आ''ान है। अपने आचरण से समाज में बदलाव की प्रेरणा है। दरअसल, आजादी एक खूबसूरत विचार है। बिल्कुल एक फूल की तरह। अगर इस विचार को मांज-धोकर चमकाया न जाए तो यह मैली-कुचली होकर मुरझा जाती है।