सम्पादकीय

एकता का आधार

Subhi
24 Aug 2021 1:45 AM GMT
एकता का आधार
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कहावत है- एकता में बल होता है। इस कहावत को राजनीतिक दल कई बार चरितार्थ कर चुके हैं।

कहावत है- एकता में बल होता है। इस कहावत को राजनीतिक दल कई बार चरितार्थ कर चुके हैं। एक बार फिर करना चाहते हैं। इसी मकसद से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सभी विपक्षी दलों की बैठक बुलाई थी। उसमें उन्नीस दल शामिल हुए। सोनिया गांधी ने सबसे अपील की कि भाजपा को हराने के लिए वे अपने सारे मतभेद भुला कर अगले आम चुनाव में साथ खड़ें हों। शुरुआती तौर पर उनकी इस अपील पर सबमें सहमति बनती नजर आई। हालांकि आम चुनाव में अभी काफी वक्त है और राजनीति में समय कब क्या करवट लेता है, किसी को नहीं पता। पर मानसून सत्र में जिस तरह सभी विपक्षी दलों ने एका दिखाया और पेगासस जासूसी मामले, किसानों की समस्याएं, महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर सरकार को घेरने की कोशिश की, उससे जनता में गंभीर संदेश गया। सरकार भी उनकी एकजुटता से कुछ असहज नजर आई। इस एकजुटता से विपक्षी दलों में जैसे फिर से जान पड़ गई। उनमें चूंकि अभी सबसे बड़ी और ताकतवर पार्टी कांग्रेस है, इसलिए सभी विपक्षी दल उसी का हाथ पकड़ कर आगे बढ़ना चाहते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर विपक्षी दलों में यही एकजुटता बनी रही, तो भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं। बेशक लोकसभा चुनाव में अभी काफी वक्त है, और इस एकजुटता को नतीजों के पैमाने पर आंकना जल्दबाजी होगी। मगर यह वक्त दोनों पक्षों के लिए कसौटी जरूर साबित हो सकता है। देखना है कि दोनों पक्ष किस तरह इस वक्त का इस्तेमाल कर पाते हैं। यों सत्ता में रहते हुए किसी भी राजनीतिक दल की जवाबदेही अधिक हो जाती है, और जब कोई दल दो बार सत्ता में रह ले, तो उससे सवाल भी उतने ही बढ़ जाते हैं। भाजपा को उन सवालों से जूझना होगा। कई गंभीर मसले हैं, जिन्हें लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में आंदोलन चल रहे हैं। उन लोगों की नाराजगी का सामना भी उसे करना होगा। स्वाभाविक ही विपक्षी दल लोगों की इस नाराजगी का लाभ उठाने का प्रयास करेंगे। उनके पास आम चुनाव में उतरने से पहले सत्तापक्ष के विरुद्ध मतों को अपने पाले में करने का वक्त काफी है। मगर वे इस वक्त का लाभ कितना और किस तरह उठा पाएंगे, देखने की बात होगी।
हालांकि यह पहली बार नहीं है, जब विपक्षी दलों ने किसी चुनाव में एकजुटता प्रदशर््िात करने की ठानी है। इससे पहले बिहार और पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों के वक्त भी इनमें से ज्यादातर दलों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर एका दिखाया था। मगर चुनाव मैदान में उतरते वक्त कई हाथ छूट गए। किसी भी चुनाव में गठबंधन बना कर उतरना खासा पेचीदा काम होता है, क्योंकि सीटों के बंटवारे के समय अक्सर गणित गड़बड़ हो जाता है। चुनाव जीतने के बाद बने गठबंधन बेशक कुछ टिकाऊ साबित होते हैं। इसलिए कि जो विपक्षी दल इस समय कांग्रेस के साथ खड़े हैं, उनमें से ज्यादातर क्षेत्रीय दल हैं और सबके जनाधार अलग-अलग हैं। उनके मतदाताओं की अपेक्षाएं भिन्न हैं। उन दलों की अपने-अपने राज्य में रणनीति भी अलग-अलग है। इसलिए ये दल प्राय: विधानसभा चुनावों में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं। लोकसभा चुनाव में वे अपने मतभेद और राजनीतिक स्वार्थों को परे रखने को तैयार भी हो जाएंगे, तो सीटों के बंटवारे को लेकर उन पर अपने कार्यकर्ताओं का भारी दबाव बना ही रहेगा। इसलिए इस एकता का आधार कितना मजबूत साबित होगा, वक्त ही बताएगा।


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