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जब मैं पहली बार रोहतांग गया था तब मैं वहां का दृश्य देखकर हतप्रभ रह गया था
अतिथि संपादक : चंद्ररेखा ढडवाल, मो. : 9418111108
श्रीनिवास जोशी, मो.-9027066929
हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -8
विमर्श के बिंदु
कविता के बीच हिमाचली संवेदना
क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
हिमाचली कविता में स्त्री
कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी
जब मैं पहली बार रोहतांग गया था तब मैं वहां का दृश्य देखकर हतप्रभ रह गया था। वहां से जब मैंने फैली लाहुल घाटी को देखा था तब मेरे कानों में शून्य से उपजी एक आवाज सुनाई पड़ी थी, एक नाद ऐसा था जिसके वशीभूत हो गया था मैं, एक शब्द सुनाई दिया जिसमें पूरा सृजन भरा पड़ा है…ओ…म! क्या यह वही आवाज थी जिसके बारे में कठोपनिषद कहता है कि 'ओम' आदिकालिक ध्वनि है जिससे तमाम सृजन तथा सब नाद उत्पन्न हुए हैं? क्या यह वही शक्ति है जिससे कुल अस्तित्व और सृजन उत्पन्न हुआ है? क्या पहाड़ों से उठे कविता के स्वर भी उसकी उत्पत्ति हैं? मैं नहीं जानता, पर पहाड़ों से उठते कविता के स्वर मुझे मुग्ध कर देते हैं। अनंत पहाड़ों से उभरी ओम की आवाज बरबस ही मुझे गुलेरी जी के मां भारत के यशोगान की ओर आकर्षित करती है जब वह कहते हैं : 'छिन्न भिन्न ही नबल एक्य से पाओगे बल/माता मुख उज्ज्वल करो, कौन भय?' पहाड़ के पुत्रों में वह अग्रणी सृजनकर्ता थे। किसी भी कविता से संबंधित आलेख में उन्हें स्मरण मात्र कर लेना आलेख को गरिमा प्रदान करता है। पहाड़ से जो कविता के स्वर कभी उठे थे, उन्हें हम भुल चुके हैं और भूल चुके हैं उन कवियों को जो इन कविताओं के जन्मदाता हैं।
यहां यदि में सभी भूले-बिसरे कवियों की बात करूं तो यह कॉलम अनंत चलता रहेगा। इसलिए में कुछ का वर्णन कर रहा हूं। सबसे पहले कैलाश भारद्वाज, जो हिमाचल के कालेजों में हिंदी के प्राध्यापक रहे, समाज की चीख पुकार को सुनकर अंधे-बहरे पत्थर से कह उठते हैं : 'सोचता हूं/चीख पुकारों की/दुख-दर्दों की दुनिया में/पत्थर/प्रभु का प्रतीक/उचित ही है।' ज़िया सिद्दीकी को मालूम है कि कल दफ्तर के बाद उन्हें आटे की कतार में खड़ा होना है, इसलिए जितने प्रश्न हैं वह आज की रात ले लेना चाहते हैं, बेतुके से प्रश्न: 'जय-स्तम्भ पर कितने कबूतर बैठ सकते हैं/ध्वज फहराने के लिए हवा का क्या वेग हो/ठंडी रातों में/शीशे टूटी खिड़की से हवा के साथ/और अनेक प्रश्न आते हैं।' ज़िया लोक संपर्क विभाग में अधिकारी थे और लोगों द्वारा बेहद पसंद किए जाते थे।
प्रकृति समाज का अंगभूत है, तभी तो कवि प्रकृति के गुणगान करता है। यदि वह प्रकृति या पर्यावरण को सुधार ले तो समाज भी सुधरेगा। चंबा के नंदेश, जो चंबा संग्रहालय में ही कार्यरत थे, प्रकृति की प्रशंसा पर कह उठते हैं: 'संध्या नहाती/बनदेवी/साकार हो उठती/स र र र र/मौन के उगते सुरों में धीमे गाती/डूबते सूर्य के रंग/देह से पसरती/खो जाती।' धर्मशाला के 96 वर्षीय परमानंद शर्मा अपने गीतों के माध्यम से साबित करते हैं कि उनके लेखन में संस्कृति प्रेम है और पारंपरिक मान्यताएं उभरती हैं। एक देवी की प्रतिमा से वह कहते हैं : 'मैं युगों से अर्चना करता चला आया तुम्हारी/साथ इक इक सांस के है आरती मैंने उतारी/ओ शुभे! ओ मौन वदने! आज तुम भी अधर खोलो/आज प्रतिमा तनिक बोलो।' आज हम इस कॉलम के माध्यम से पीयूष गुलेरी को याद कर लेते हैं।
पीयूष, मेरे विचार से, बहुत ही संगीतमय कवि थे। पहाड़ी में तो वह थे ही, पर हिंदी कविता 'यह लो शरद सुंदरी आई' की ताल का आनंद लें 'ठुमक ठुमक ताल मिलाती/छंदबंध की याद दिलाती/अरुण चरण नववर्ण मनोहर/रूप, सरसता, गंध, धरोहर।' हिमाचल के लोकसाहित्य में रुचि रखने वालों में से एक थे रामदयाल नीरज। नीरज हिमप्रस्थ के संपादक थे। उन्होंने हिमाचल के लोकगीतों पर जो पुस्तक निकाली थी, वह स्मरणीय है। पर इस कविता में उनका शिकवा अजीब है, पर कितना जीवंत है 'देखो तो पागल नहीं ये लोग/उखाड़ लाए हैं कब्र से/अपने बाप का बयालीस से पहले का कंकाल/और कहते हैं मुझे/चढ़ाओ इस पर चमड़ी/जो खैंची गई थी तुम्हारे नाम।' श्रीनिवास श्रीकांत हिमाचल में लिखी जाने वाली कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर थे। हाल में उनका स्वर्गवास हुआ है। अधिकतर चुप रहने वाले श्रीकांत की कविता खूब बोलती है और झिंझोड़ देती है। 'अनाचारी मित्र के जुदा होने पर' लिखी कविता में वह कहते हैं 'कभी तुम देवदत्त बने/कभी मारीच/कभी दुर्योधन/और अंधी राजकता को पुत्र मोह का दम देकर/गांधारी के तप की आड़ में/महाभारत करते रहे।' 'मुसर्रत' शीर्षक से कविता करते समय सत्येंद्र शर्मा बर्तानिया द्वारा भारत छोड़ते वक्त उनकी मुसर्रत का वर्णन कर रहे हैं। कैसा छोड़ गए थे वे हमें? 'वे हमारे सभी चित्रों को/एक कमरे में बंद कर/उस कमरे को आग लगा गए थे/और जहाज की सीढि़यां चढ़ते वक्त/खुश हो रहे थे/कि हम खाली गैलरी में ताउम्र/आहत सर्प से फुफकारेंगे।' सुंदर लोहिया मूलतः कहानीकार हैं। अपने परिवेश के प्रति गहरा लगाव और सुथरा शिल्प उनकी कविताओं की विशेषता है 'मैं अच्छी तरह जानता हूं/मेरी हत्या हो चुकी है/गर्म विषाक्त चुंबन से/मुझे मारा जा चुका है/हत्यारा छाती से उतर दिल में घुसकर/सुरक्षित हो गया है।'
अनिल राकेशी में अब वह आग नहीं रह गई है जो युवा अनिल में होती थी। वह मानते हैं कि सामाजिक दायित्व का गहरा एहसास और विद्रोही चेतना सही लेखन की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। यही विद्रोही चेतना उनकी कविता 'शुरुआत' में नजर आती है 'मैंने तय कर लिया था/उनके अहाते से/बार-बार गुजरूंगा/इसी तरह/उद्दंड, अनाहूत, विस्फोटक।' मेरे इस आलेख में अमिताभ, चतुर सिहं और रामकृष्ण कौशल भी होते, अगर मुझे कुछ और शब्द डालने की इजाजत होती। पहाड़ से उभरे कविता के स्वरों की पहली कड़ी यहीं समाप्त कर रहा हूं।
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