सम्पादकीय

यूक्रेन संकट का तानाबाना उस पश्चिमी मानसिकता ने बुना है, जो दुनिया को अपने हिसाब से चलाना चाहती है

Rani Sahu
1 March 2022 3:11 PM GMT
यूक्रेन संकट का तानाबाना उस पश्चिमी मानसिकता ने बुना है, जो दुनिया को अपने हिसाब से चलाना चाहती है
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यह प्रश्न बहुत परेशान करने वाला है कि यदि यूक्रेन जैसा संप्रभु देश अपनी सुरक्षा के लिए नाटो सरीखे किसी सैन्य संगठन का हिस्सा बनना चाहे तो क्या उसे रूस जैसे ताकतवर पड़ोसियों की शर्तों पर चलना पड़ेगा और यहां तक कि उसके हमले का सामना करना पड़ेगा

आर. विक्रम सिंह।

यह प्रश्न बहुत परेशान करने वाला है कि यदि यूक्रेन जैसा संप्रभु देश अपनी सुरक्षा के लिए नाटो सरीखे किसी सैन्य संगठन का हिस्सा बनना चाहे तो क्या उसे रूस जैसे ताकतवर पड़ोसियों की शर्तों पर चलना पड़ेगा और यहां तक कि उसके हमले का सामना करना पड़ेगा? इसी तरह एक प्रश्न यह भी उठ खड़ा हुआ है कि क्या आपकी अपनी संप्रभुता को किसी तीसरे देश की आशंकाओं का कारण बनना चाहिए? यूक्रेन पर रूस के हमले जारी हैं। इस अर्थहीन युद्ध में जनहानि भी बढ़ती जा रही है। सोवियत संघ के विघटन से जो देश बने, उनमें रूस के बाद यूक्रेन ही दूसरा सबसे बड़ा यूरोपीय देश है। सोवियत संघ के विघटन ने अमेरिका को एकमात्र वैश्विक शक्ति बना दिया। कतिपय अतिउत्साही अमेरिकी टिप्पणीकारों ने इस एकध्रुवीय काल को 'इतिहास का अंत' तक कह डाला। सोवियत रूस के विघटन से अस्तित्व में आए 15 देश किसी संघर्ष या आंदोलन की उपज नहीं थे। उनके पास जनसंघर्ष से निकले तपे हुए नेतागण नहीं, बल्कि नौकरशाह मनोवृत्ति के प्रशासक थे। वे संप्रभुता, लोकतंत्र और राष्ट्रीयता का अर्थ समझे बगैर स्वतंत्र देश के शासक बन गए थे। इन शासकों ने प्राय: लोकतांत्रिक व्यवस्था का उपयोग अपने सत्ताधिकार की औपचारिक स्वीकार्यता के लिए किया।

सोवियत संघ के विघटन के बाद भीषण आर्थिक समस्याओं का शिकार रूस स्वयं किसी भी प्रकार का नेतृत्व दे सकने में असमर्थ था। एकाएक उत्पन्न हुए शक्ति के इस निर्वात को भरने का जो उपाय अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान की समझ में आया, वह था कि सोवियत संघ से निकले देशों में पश्चिमी शासन पद्धति अथवा लोकतंत्र, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एवं नाटो सुरक्षा संधि का विस्तार करना। जब सोवियत संघ अपने साम्यवादी लक्ष्यों के साथ इतिहास के गर्त में जा चुका था और नया रूस पूंजीवादी व्यवस्था को अपना चुका था तो नाटो के अस्तित्व का कोई औचित्य नहीं रह गया था। नाटो का घोषित उद्देश्य ही साम्यवादी व्यवस्था के विस्तार को रोकना था, फिर भी सोवियत संघ के विघटन के बाद न केवल नाटो कायम रहा, बल्कि उसका विस्तार भी होता गया। रूस की पश्चिमोत्तर सीमा से लगे तीन नए बाल्टिक देशों और बुल्गारिया को 2004 में नाटो में शामिल किया गया। इन देशों को यूरोपीय संघ में शामिल करना तो सकारात्मक कदम था, लेकिन नाटो सैन्य सहयोग क्यों? इसका यही आशय निकलता है कि रूस अभी भी अमेरिका का निशाना बना हुआ था। इसी क्रम में 2008 में बुखारेस्ट सम्मेलन में यूक्रेन और जार्जिया को भी नाटो सदस्य बनाने की स्वीकृति दी गई। जब रूस से किसी यूरोपीय देश और अमेरिका को कोई खतरा नहीं रह गया था तो भी उसकी घेरेबंदी का भला क्या औचित्य था? पुतिन ने इसे ही खतरे के संकेत के रूप में लिया। इससे पहले कि नाटो की परमाणु मिसाइलें यूक्रेन और जार्जिया में तैनात होतीं, पुतिन ने जार्जिया के विभाजन के लिए सैन्य अभियान छेड़ दिया। विभाजित जार्जिया के दो राज्य आज रूस के नियंत्रण में हैं। शेष जार्जिया के नाटो देश बनने की अब गुंजाइश नहीं रही। इसके बाद यूक्रेन में आरेंज रिवोल्यूशन के रूप में हुए जन आंदोलन ने वहां रूस विरोधी माहौल बना दिया। पूर्व राष्ट्रपति यानोकोविच को देश छोड़कर भागना पड़ा। परिणामस्वरूप पुतिन ने यूक्रेन के रूसी भाषी क्षेत्र क्रीमिया पर कब्जा कर लिया। इससे क्रीमिया जैसे सामरिक अड्डे का नाटो के लिए उपयोग संभव नहीं रह गया
यूरोप में जब एक रणनीतिक यथास्थिति का माहौल था, तब यूक्रेन और रूस में मिंस्क में हुए समझौते के तहत एक अस्थायी शांति बनी। माना जा रहा था कि दक्षिण चीन सागर में चल रहे रणनीतिक वर्चस्व के चीनी अभियान के किनारे आने तक यूरोप में स्थिरता बनी रहेगी। समस्या यह थी कि ताइवान जैसे टकराव वाले बिंदु के बावजूद हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नाटो जैसा कोई संगठन आकार नहीं ले पाया था। उधर रूस और जर्मनी में बढ़ती जा रही आर्थिक और विशेषकर रूसी गैस आपूर्ति पर निर्भरता अमेरिकी चिंता का बड़ा कारण थी। यूक्रेन को बड़ा राजस्व यूरोप की उस गैस आपूर्ति से मिलता रहा है, जिसकी पाइपलाइन उसकी जमीन से गुजरती है। यूक्रेन में 2014 में हुए सत्ता परिवर्तन की प्रतिक्रिया में रूस ने जर्मनी और यूरोपीय देशों को गैस आपूर्ति की नई वैकल्पिक पाइपलाइन का कार्य पूर्ण किया। यूक्रेन के समक्ष राजस्व की क्षति की आशंका उत्पन्न हो गई। तब ऐसी आवश्यकता उत्पन्न हो गई, जो रूस-जर्मनी की नजदीकियां रोके और नाटो देशों को अमेरिका पर पहले की तरह निर्भर बना दे। इसी कारण रूसी भाषा बहुल देशों के जरिये यूक्रेन-रूस तनाव का माहौल बना, जिसने युद्ध का रूप ले लिया है। अभी तक सब पटकथा के मुताबिक चल रहा है। जर्मनी से नई गैस पाइपलाइन का समझौता टूट गया है। युद्ध का दोष रूस पर आया है। यूक्रेन के प्रति सहानुभूति की लहर चल रही है। यह स्वाभाविक है। अब पुतिन नए खलनायक हैं।
देखा जाए तो यूक्रेन के दीर्घकालिक हित रूस से ही जुड़े थे, जो अब उसका शत्रु बन गया है। यूक्रेन पर रूस के हमलों के बीच एक सवाल यह भी है कि अगर यूक्रेन नाटो में शामिल हो भी जाता तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता। हमारे पड़ोस में भी तो पाकिस्तान पहले अमेरिका और अब चीन से गलबहियां करता आया है। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में सीपैक जैसी संवेदनशील परियोजना के बावजूद हमने कभी बयानों से आगे बढ़कर बात नहीं की। दरअसल यहां एक बड़ा अंतर यह है कि हमारी तरह रूस अपने को रणनीतिक दृष्टि से शत्रुओं का बंधुआ नहीं बनने दे सकता। राष्ट्रीय शक्ति और सम्मान की अपनी-अपनी परिभाषाएं हैं। पुतिन ने एक तरह राख से उठकर अस्तित्व के संकटों का सामना करते हुए रूस का नवनिर्माण किया है। उनके अपने तर्क हैं, जिन्हें नकारा नहीं जा सकता। इस संकट का तानाबाना उस पश्चिमी मानसिकता ने बुना है, जो विश्व की राजनीति और अर्थव्यवस्था को अपने हिसाब से चलाना चाहती है।
निरंतर आक्रामक हो रहे पुतिन ने यूक्रेन में दखल देने वालों को परमाणु आक्रमण की भी धमकी दे दी है। अमेरिका को अपनी शक्ति की वैश्विक पुनस्र्थापना के लिए एक खलनायक की दरकार थी, जो पुतिन के रूप में पूरी हो गई है। और यूक्रेन? उसकी जितनी उपयोगिता थी, वह पूरी होती दिख रही। उसकी हालत वैश्विक शतरंज के पिटे हुए मोहरे की तरह बिसात से उठाकर बगल में रख दिए जाने जैसी लग रही।
Rani Sahu

Rani Sahu

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