सम्पादकीय

रूस, बेलारूस, तुर्की और श्रीलंका के उदाहरण बताते हैं कि तानाशाही महंगा सौदा है

Gulabi Jagat
12 April 2022 8:29 AM GMT
रूस, बेलारूस, तुर्की और श्रीलंका के उदाहरण बताते हैं कि तानाशाही महंगा सौदा है
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न्यूयॉर्क यात्रा के दौरान व्लादीमीर पुतिन ने स्वयं को निवेशकों के सामने एक ऐसे आर्थिक-सुधारक की तरह प्रस्तुत किया था
रुचिर शर्मा का कॉलम:
वर्ष 2003 में अपनी न्यूयॉर्क यात्रा के दौरान व्लादीमीर पुतिन ने स्वयं को निवेशकों के सामने एक ऐसे आर्थिक-सुधारक की तरह प्रस्तुत किया था, जो पश्चिमी पूंजीवादियों से संवाद करना चाहता है। उन्होंने सबको बताया था कि रूस एक पेट्रो-स्टेट से बढ़कर है और एक यूरोपियन राष्ट्र के मूल्यों को साझा करता है। यूक्रेन पर हमला करने के बाद वे शब्द भले ही खोखले मालूम होने लगे हों, लेकिन जब उन्होंने ये कहा था, तब वे इसको लेकर संजीदा लगते थे।
1990 के दशक में एक वित्तीय संकटग्रस्त देश की कमान सम्भालने के बाद वे निजीकरण और नियम-कानूनों में ढील पर जोर दे रहे थे। तेल की कीमतों में मिले बूस्ट से सुधारों को गति मिली और रूस की प्रति व्यक्ति आय वर्ष 2000 में 2 हजार डॉलर से बढ़कर 2010 के दशक के आरम्भ में 16 हजार डॉलर तक पहुंच गई। लेकिन ताकत और कामयाबी ने पुतिन को बदल दिया। उन्होंने विदेशी फंड प्रबंधकों से मिलना बंद कर दिया।
उनके एक सहयोगी ने मुझे बताया कि इस तरह की मीटिंग्स छोटी ताकतों के लिए ठीक हैं, अमेरिका और रूस जैसी महाशक्तियों के लिए नहीं। वर्ष 2010 में मुझे रूसी अर्थव्यवस्था पर एक बेबाक स्पीच देने के लिए मॉस्को बुलाया गया था। श्रोताओं में पुतिन भी थे। मुझे नहीं पता था कि मेरे सेशन को टीवी पर दिखाया जाएगा। मैंने कहा कि रूस के लिए अपनी सफलता को कायम रखना मुश्किल होगा।
एक मिडिल-इनकम मुल्क के रूप में तरक्की करने के लिए रूस को तेल से आगे बढ़ना होगा, बड़ी सरकारी कम्पनियों पर निर्भरता घटाना होगी और व्यापक भ्रष्टाचार की नकेल कसना होगी। अगले दिन मैंने एक पुतिन-समर्थक मीडिया में अपना नाम देखा। मुझे इस बात के लिए फटकार लगाई गई कि मैंने मेहमान होने की गरिमा का निर्वाह नहीं किया और यह कहा गया कि मेरे जैसे विदेशी की हिदायतों के बिना भी रूस का काम चल सकता है।
कुछ माह बाद मैंने जॉर्ज डब्ल्यू बुश का इंटरव्यू लिया। उन्होंने भी यही पाया कि पुतिन पहले व्यावहारिक नेता थे, लेकिन 2000 के दशक के अंत तक वे दम्भी हो गए। मेरी रिसर्च दिखाती है कि लोकतांत्रिक नेताओं की तुलना में तानाशाहों के राज में किसी देश का आर्थिक प्रदर्शन अधिक डावांडोल रहता है। जितने समय तक इस तरह के नेता सत्ता में रहते हैं, आर्थिक स्थिति बिगड़ती ही चली जाती है।
विशेषकर तेल पर आधारित अर्थव्यवस्थाओं में तो यही पाया जाता है। पुतिन में ये तीनों गुण हैं- वे एक तेल-उत्पादक देश में ऐसे तानाशाह हैं, जो एक लम्बे समय से सत्ता में हैं। वास्तव में 2000 के दशक के अंत तक पुतिन लापरवाह हो गए थे और सुधारों के लिए प्रयास करना छोड़ चुके थे। 2014 में क्रीमिया पर धावा बोलने के बाद जब पश्चिम ने उन पर सैक्शंस लगाए तो उन्होंने एक नया बदलाव किया।
अब वे विकास को आगे बढ़ाने के बजाय रूस को एक ऐसे मजबूत किले के रूप में तैयार करने में व्यस्त हो गए, जिसमें विदेशी पूंजी का प्रवाह मुश्किल हो जाए। अब नए प्रतिबंधों के दबाव में यह नीति टूटकर बिखरने लगी है। रूस की प्रतिव्यक्ति आय 16 हजार डॉलर के शीर्ष से गिरकर 2022 के अंत तक 10 हजार डॉलर के नीचे चले जाने की ओर अग्रसर है।
तानाशाह कभी-कभी आर्थिक बूम का कारण बनते हैं, लेकिन इस तरह की हरेक सफलता के पीछे तीन-चार ऐसे भी तानाशाह होते हैं, जो आर्थिक विकास में गतिरोध उत्पन्न करते हैं। 1950 में दुनिया के 150 देशों में 43 में से 35 ऐसे तानाशाही शासन वाले थे, जहां एक दशक तक 7% से अधिक की विकास दर दर्ज की गई थी।
138 में से 100 ऐसे भी थे, जहां दशक की विकास दर 3% से धीमी थी। 36 ऐसे थे, जो दशकों तक रैपिड ग्रोथ और निगेटिव ग्रोथ के बीच झूलते रहे थे और इनमें से 75% तानाशाहीपूर्ण थे। इनमें भी अनेक नाइजीरिया, ईरान, सीरिया और इराक जैसे पेट्रो-स्टेट थे। पुतिन रूस को इसी श्रेणी में लेकर जा रहे हैं।
पश्चिमी ताकतें उम्मीद कर रही हैं कि पुतिन रूस के आर्थिक संकट से टूट जाएंगे। उन्हें पता होना चाहिए कि तानाशाहों की यह प्रवृत्ति होती है कि वे राजनीति और अर्थव्यवस्था के सम्बंधों को काटकर अनिश्चितकाल तक सत्ता में बने रह सकते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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