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सम्पादकीय
यूरोपीय देश भारत को जो उपदेश दे रहे, उस पर खुद ही अमल नहीं कर पा रहे!
Gulabi Jagat
3 May 2022 11:00 AM GMT
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सम्पादकीय
यूक्रेन पर रूस के हमलों के बीच भारतीय प्रधानमंत्री की यूरोपीय देशों की यात्रा इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस हमले से यही देश सबसे अधिक प्रभावित हैं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ये देश यह चाहते हैं कि भारत रूस की उसी तरह निंदा करे, जिस तरह उनकी ओर से की जा रही है। उनकी इस चाहत के बाद भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यूरोप के तीन महत्वपूर्ण देशों-जर्मनी, डेनमार्क और फ्रांस की यात्रा पर जाना यह बताता है कि इन देशों के साथ भारत की समझबूझ बढ़ रही है। इसका पता इससे चलता है कि जहां बर्लिन में जर्मन चांसलर ने रूसी राष्ट्रपति से युद्ध रोकने को कहा, वहीं भारतीय प्रधानमंत्री ने भी यह कहने में संकोच नहीं किया कि इस युद्ध में किसी की भी जीत नहीं होगी। उनका यह कथन रूस को भी संदेश है।
भारत इसके पहले भी कई बार यह कह चुका है कि न तो यूक्रेन की संप्रभुता का उल्लंघन होना चाहिए और न ही संयुक्त राष्ट्र चार्टर की अनदेखी। नि:संदेह रूस के रवैये को सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन अमेरिका और यूरोप को भी इस पर विचार करना चाहिए कि यूक्रेन को नाटो का हिस्सा बनाने की पहल ने रूस को उकसाने का काम किया।
चूंकि डेनमार्क में भारत-नार्डिक सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री की मुलाकात आइसलैंड, फिनलैंड, स्वीडन और नार्वे के शासनाध्यक्षों से भी होगी, इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि इससे न केवल भारत व यूरोपीय देशों के बीच संबंध और प्रगाढ़ होंगे, बल्कि यूरोपीय समुदाय के साथ मुक्त व्यापार समझौते की संभावना भी प्रबल होगी। भारतीय प्रधानमंत्री की यूरोप यात्र यह भी बताती है कि यूरोपीय देश इस नतीजे पर पहुंच रहे कि अपने पड़ोस में चीन के आक्रामक और अतिक्रमणकारी रवैये के चलते भारत चाहकर भी यूक्रेन संकट के मामले में उनकी जैसी भाव-भंगिमा नहीं अपना सकता।
यह अच्छा हुआ कि इन देशों को अपनी इस अपेक्षा की निर्थकता का भी आभास हो गया कि भारत को अपनी ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति रूस से नहीं करनी चाहिए। ऐसा इसीलिए हुआ, क्योंकि भारत ने इस तथ्य को रेखांकित करने में देर नहीं की कि यूरोपीय देशों के मुकाबले भारत कहीं कम ऊर्जा सामग्री रूस से आयात कर रहा है। क्या यह विचित्र नहीं कि यूरोपीय देश भारत को जो उपदेश दे रहे, उस पर खुद ही अमल नहीं कर पा रहे? यदि उनकी कुछ विवशता है, तो ऐसी ही स्थिति भारत की भी है। यह अच्छा हुआ कि भारत ने यूरोपीय देशों के दोहरे मापदंड को बयान करने के साथ उन्हें यह भी याद दिलाया कि चीन के अतिक्रमणकारी रवैये को लेकर किस तरह उनके मुंह से उसके खिलाफ एक शब्द भी नहीं निकला था।
दैनिक जागरण से सौजन्य से सम्पादकीय
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