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हम विदेशों में देश की किस तरह की छवि पेश करना चाहते हैं : डिजिटल इंडिया या बुलडोजर इंडिया?
बिना किसी रोक-टोक के एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाना आम तौर पर राजनेताओं की आदतों में शुमार है, जिनके प्रतिनिधि हर दिन टीवी पर प्राइम टाइम बहस में और ट्विटर व अन्य सोशल मीडिया पर लड़ते रहते हैं। अफसोस कि इस बीमारी ने सेवानिवृत्त नौकरशाहों को भी अपनी चपेट में ले लिया है। सेवानिवृत्ति के बाद सिविल सेवक सामान्य नागरिकों की स्थिति में लौट आते हैं। इसलिए उनके द्वारा अपने विचारों को सार्वजनिक रूप में प्रकट करने को गलत नहीं बताया जा सकता, जिन्हें उन्होंने सेवा आचरण नियमों के कारण दशकों से दबा रखा था। और राष्ट्र के सामान्य, पर प्रबुद्ध नागरिकों के रूप में, उन्हें भी सरकार की नीतियों और निर्णयों की प्रशंसा व समर्थन करने या आलोचना करने का अधिकार है। लोकतांत्रिक देशों में यह सामान्य घटना है।
अगर कुछ सेवानिवृत्त नौकरशाहों को लगता है कि प्रधानमंत्री देश के महत्वपूर्ण हितों की सेवा कर रहे हैं, अपने अंतरराष्ट्रीय कद को ऊंचा कर रहे हैं और भारत को गौरवान्वित कर रहे हैं, तो उन्हें इसे बताने का अधिकार है। यह बात किसी को क्यों खटकनी चाहिए? उसी तरह से यदि कुछ पूर्व नौकरशाहों को लगता है कि जैसा दावा किया गया था, चीजें वैसी नहीं हैं और जनहित के कई बड़े मुद्दे अनसुने रह गए और सरकार ठोस परिणामों के बजाय प्रचार और तीखी बयानबाजी में उलझी रह गई, तो उन्हें भी अधिकार है कि वे अपने विचार व्यक्त करें। सरकार की आलोचना के कारण उनकी देशभक्ति पर सवाल क्यों उठना चाहिए? क्या हम इतने असुरक्षित हैं?
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वस्थ आलोचना जरूरी है। लेकिन क्या निराधार और असंतुलित आलोचना को रचनात्मक माना जा सकता है? हिंसा चाहे जिसने भी शुरू की हो, उसकी आलोचना की जानी चाहिए और असली अपराधियों को जितनी जल्दी हो, कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए। मुख्यमंत्री के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी करने, कार्टून बनाने या स्टैंड अप कॉमेडियन के रूप में मजाक करने जैसे तुच्छ आधारों पर गिरफ्तारी लोकतंत्र में अस्वीकार्य है। इसी तरह से गौरक्षा के नाम पर लिंचिंग या सुरक्षा बलों की ज्यादती पर ध्यान आकर्षित करना अपराध नहीं है। बल्कि जनहित में ऐसी घटनाओं को सरकार के समक्ष लाना प्रत्येक विवेकशील नागरिक का कर्तव्य है। नागरिकों को क्या खाना चाहिए और क्या पहनना चाहिए, इसके बारे में निर्देश देना लोकतंत्र की भावना के विपरीत है!
अलबत्ता इन सबके लिए प्रधानमंत्री को दोष देना कितना सही है? देश के अलग-अलग हिस्सों में हो रही कुछ नकारात्मक घटनाओं के बावजूद क्या प्रधानमंत्री को हिटलर कहने और उन पर फासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने का आरोप लगाने का कोई मतलब है? उनके आलोचकों को संतुलन नहीं खोना चाहिए। नेक इरादे से भी की गई आलोचना में संतुलन की कमी अक्सर उसकी विश्वसनीयता खत्म कर देती है। हां, 1.3 अरब से अधिक लोगों की सरकार के मुखिया होने के नाते जब ऐसी चीजें होती हैं, तो प्रधानमंत्री अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। कुछ लोगों का मानना है कि प्रधानमंत्री द्वारा ऐसी घटनाओं की त्वरित, मजबूत और स्पष्ट निंदा और शांति व सद्भाव की अपील स्थिति को नियंत्रण में ला सकती है। हाल ही में मैं कुछ सिविल सेवकों को राष्ट्रीय टीवी चैनल पर अपने साथी नौकरशाहों/महिलाओं पर गंभीर आरोप लगाते हुए देखकर चकित था। उनमें से कुछ 10-15 वर्ष वरिष्ठ हैं और उच्च पदों पर आसीन हैं। उनका आरोप था कि सरकार की आलोचना करने वाले पूर्व नौकरशाह किसी विदेशी शक्ति के इशारे पर काम कर रहे होंगे! यह कितना हास्यास्पद तर्क है!
उनकी और जो भी कमियां रही हों, यह तो मानना पड़ेगा कि नौकरशाहों ने इस देश को एकजुट रखा है और कुछ बुरे लोगों को छोड़कर उन्होंने पूरी निष्ठा के साथ सेवा की है और अपने राजनीतिक आकाओं को सर्वोत्तम संभव सलाह दी है। यदि यह सच नहीं होता, तो ऐसे नौकरशाह नहीं होते, जो विभिन्न राजनीतिक दलों के चार-पांच प्रधानमंत्रियों के अधीन कैबिनेट सचिव, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव, गृह सचिव और विदेश सचिव के रूप में कार्य कर चुके होते! जो कभी कैबिनेट सचिव या विदेश सचिव या विभिन्न मंत्रालयों में सचिव और बड़े राज्यों में पुलिस महानिदेशक के रूप में कार्य करते थे, उन पर यह आरोप लगाना बेतुका है कि वे विदेशी शक्तियों के लिए कार्य कर सकते हैं। यह पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान के आरोप जैसा है कि अमेरिका उनकी सरकार गिराना चाहता था!
केंद्रीय मंत्रिमंडल के एक वरिष्ठ सदस्य, जो तीन प्रमुख मंत्रालयों के प्रभारी हैं, 40 वर्षों तक भारतीय विदेश सेवा के सदस्य रहे और उन्होंने 11 प्रधानमंत्रियों के साथ सेवा की। उनकी ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, योग्यता और व्यावसायिकता पर कभी किसी ने सवाल नहीं उठाया। अन्य सेवानिवृत्त नौकरशाहों के लिए इससे अलग तथ्य क्यों होना चाहिए?
शायद विभिन्न प्रकार के स्वयंभू रक्षकों से प्रेरित और टीवी चैनलों पर चौबीसों घंटे की देशभक्ति की चर्चा से खुराक पाने के बाद कुछ सेवानिवृत्त नौकरशाहों ने खुद को मौजूदा सरकार का रक्षक मान लिया हो। अपने अदम्य उत्साह में वे ऐसे किसी पर भी झपट पड़ते हैं, जो वर्तमान सरकार, खासकर प्रधानमंत्री की गलती खोजने की हिम्मत करता है। पर क्या भाजपा और प्रधानमंत्री को ऐसे पूर्व नौकरशाह रक्षकों की जरूरत है? महामारी, चीनी घुसपैठ, पेट्रोल, डीजल व गैस की आसमान छूती कीमतें, यूक्रेन युद्ध के चलते कई उत्पादों की आपूर्ति के संकट के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी देश के सबसे लोकप्रिय राष्ट्रीय नेता बने हुए हैं। कोरोना प्रभावित दुनिया में उनका वैश्विक कद और ऊंचा हो गया है। उनकी पार्टी को लोकसभा में अजेय बहुमत प्राप्त है और 18 राज्यों में सरकार है। भाजपा के पास सरकार का बचाव करने के लिए जुझारू, जानकार और मुखर प्रवक्ता हैं। फिर कुछ सेवानिवृत्त नौकरशाह किस वजह से अपनी ही बिरादरी के सदस्यों पर हमला करते हैं? क्या यह नेशनल टीवी पर कुछ देर जगह पाने का लालच है?
हम तमाम विदेशी आलोचनाओं को खारिज कर सकते हैं, लेकिन क्या आज सोशल नेटवर्क से कुछ छिपाया जा सकता है? हम विदेशों में देश की किस तरह की छवि पेश करना चाहते हैं : डिजिटल इंडिया या बुलडोजर इंडिया?
सोर्स: अमर उजाला
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