सम्पादकीय

राजनीतिक दलों का जोर रोजगार, स्वाभिमान और उद्यमिता बढ़ाने पर होना चाहिए, लेकिन वे चुनावों में खैरात बांटने को ही तरजीह देते हैं

Gulabi
25 Jan 2022 5:30 AM GMT
राजनीतिक दलों का जोर रोजगार, स्वाभिमान और उद्यमिता बढ़ाने पर होना चाहिए, लेकिन वे चुनावों में खैरात बांटने को ही तरजीह देते हैं
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राजनीतिक दलों का जोर रोजगार
भरत झुनझुनवाला। चुनावों के इस दौर में विभिन्न दलों में होड़ लगी है कि कौन जनता को सरकारी खजाने से ज्यादा खैरात बांट सकता है। कांग्रेस ने 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले किसानों की कर्ज माफी से इसकी शुरुआत की थी। वर्तमान में मुफ्त शिक्षा, किसानों को मुफ्त बिजली आदि योजनाओं से जनता को लाभ पहुंचाने का उपक्रम किया जा रहा है। वास्तविक जनहित का उपाय है रोजगार, जिससे आय, स्वाभिमान और उद्यमिता का विकास हो। संप्रति रोबोट और आटोमेटिक मशीनों के कारण बड़े उद्योग सस्ते माल का उत्पादन कर रहे हैं और छोटे उद्योग पस्त हैं। मान्यता है कि आर्थिक विकास के लिए सस्ता उत्पादन आवश्यक है। इसीलिए बड़े उद्योगों द्वारा उत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है। जीएसटी और नोटबंदी ने छोटे उद्योगों को प्रभावित किया है। इसीलिए रोजगार सृजन की राह मुश्किल हो गई है। यदि हम आर्थिक विकास के इस ढांचे को नहीं बदल सकते हैं तो द्वितीय श्रेणी के उपाय के रूप में मुफ्त वितरण को हमें अपनाना ही होगा। अन्यथा आम आदमी को न तो रोजगार मिलेगा न ही मुफ्त वितरण से कुछ मिल पाएगा। इसीलिए मुफ्त वितरण का दांव आजमाया जाता है।
मुफ्त वितरण के विरोध में तर्क दिया जाता है कि यह टिकाऊ नहीं है। सरकारी बजट, विशेषकर राज्य सरकारों के बजट में गुंजाइश नहीं है कि जनता को मुफ्त माल वितरित किया जा सके। हालांकि इसकी तह में विषय दूसरा है। सरकारी राजस्व का तीन तरह से उपयोग होता है। एक, निवेश के लिए जैसे हाईवे बनाने के लिए। दूसरा, जनता को मुफ्त वितरण के लिए जैसे मुक्त शिक्षा अथवा नकदी बांटने के लिए। तीसरा सरकारी खपत के लिए जैसे सरकारी अधिकारियों के लिए एसयूवी खरीदने के लिए। अत: यदि हम मुफ्त वितरण को बढ़ावा देंगे तो निवेश अथवा सरकारी खपत में कटौती करनी ही पड़ेगी। मुफ्त वितरण तब तक टिकाऊ नहीं होगा जब तक सरकारी खपत बनी रहे। मुफ्त वितरण तभी टिकाऊ होगा जब सरकारी खपत में कटौती की जाए और निवेश बनाए रखा जाए।
दूसरा तर्क करदाता द्वारा अदा किए गए टैक्स के दुरुपयोग का है। करदाता मुख्यत: अमीर अथवा बड़े उद्यमी होते हैं। इनकम टैक्स अमीरों द्वारा दिया जाता है। जीएसटी और कस्टम ड्यूटी भी अधिकांश उन लोगों द्वारा अदा की जाती है, जो बड़ी कंपनियों द्वारा बना हुआ अथवा आयातित माल की खपत करते हैं। इसलिए यदि करदाता द्वारा अदा किए गए टैक्स का उपयोग आम आदमी को मुफ्त वितरण के लिए किया जाता है तो यह अमीरों का गरीबों के प्रति दायित्व का निर्वाह मानना चाहिए। सरकार ने बड़ी कंपनियों पर कारपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी में लाभ का एक अंश समाज हित के लिए खर्च करने का नियम बनाया है। उसी प्रकार अमीरों द्वारा अदा किए गए टैक्स से सामान्य व्यक्ति को मुफ्त वितरण करना कल्याणकारी राज्य के समरूप दिखता है।
विद्वानों द्वारा विशेष सब्सिडी को मान्यता दी जाती है और मुफ्त वितरण का विरोध किया जाता है। सब्सिडी और मुफ्त वितरण में केवल प्रक्रियागत अंतर है। परिणाम एक ही है। जैसे उर्वरक सब्सिडी का उद्देश्य जनता को किसी विशेष दिशा में बढऩे के लिए प्रेरित करना होता है। एक वक्त देश में जब अकाल पड़ा तो उर्वरक पर सब्सिडी दी गई कि किसान उसके उपयोग से खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ाएं। इसके पीछे मान्यता है कि जनता समझदार नहीं है और वह स्वयं उर्वरक का उपयोग नहीं करेगी तो उसे प्रलोभन देकर उर्वरक का उपयोग बढ़ाने की जरूरत है। उर्वरक का उपयोग बढऩे से खाद्यान्न उत्पादन बढ़ेगा और जनकल्याण हासिल होगा। इसकी तुलना में मुफ्त बिजली-पानी में जनता को विशेष दिशा में प्रेरित करने का पुट नहीं होता है। इससे सीधे जन कल्याण होता है। अंतत: सब्सिडी और मुफ्त वितरण दोनों का परिणाम एक ही होता है। यानी जन कल्याण हासिल करना।
प्रश्न रहता है कि क्या वस्तुओं के माध्यम से यह मुफ्त वितरण करना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष नकदी के रूप में। वस्तुओं के माध्यम से वितरण के पीछे सोच है कि जनता स्वयं अच्छी शिक्षा अथवा उर्वरक के प्रयोग को लेकर सही सोच नहीं रखती। जनता नहीं समझती कि बच्चों को शिक्षित करना कितना जरूरी है। इसलिए सरकार द्वारा मुफ्त शिक्षा दी जाती है। यह सोच लोकतंत्र के मूल विचार के विपरीत दिखती है। यदि जनता सक्षम है कि वह यह तय कर सके कि देश का प्रधानमंत्री कौन होगा तो वह यह भी समझ सकती है कि बच्चे को शिक्षा दिलाना जरूरी है अथवा नहीं? अत: यह विचार कि जनता को सब्सिडी देकर विशेष दिशा में इसलिए प्रेरित करना जरूरी है कि उसकी समझ पर्याप्त नहीं, गले नहीं उतरता है। लोकतंत्र में जनता ही संप्रभु है। राजनीतिक दल मुफ्त वस्तुओं के वितरण लाभ का प्रचार इसलिए करता है कि उसमें सरकारी अधिकारियों को नौकरी के अवसर मिलते हैं। यदि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से जनता को गेहूं दो रुपये प्रति किलो में मिलता है तो गेहूं की खरीद, वितरण, राशन कार्ड बनवाने इत्यादि में सरकारी कर्मियों को नौकरी भी मिलती है और भ्रष्टाचार के अवसर भी खुलते हैं। इसलिए यदि दूसरे स्तर के उपाय के रूप में जनता को मुफ्त वितरण करना ही है तो प्रत्यक्ष नकदी बेहतर विकल्प है। जनता अपने विवेक से उसका व्यय तय करे। जनता की इस संप्रभुता को सरकारी तंत्र की वेदी पर स्वाहा नहीं करना चाहिए।
मूल बात यह है कि जनता के लिए रोजगार, स्वाभिमान और उद्यमिता बढ़ाने का रास्ता प्रशस्त किया जाए। हालांकि इसमें हमारी आर्थिक विकास की मूल सोच आड़े आती है, जिसमें बड़ी कंपनियों और रोबोट से बने सस्ते माल को प्राथमिकता दी जाती है। तीसरे स्तर का उपाय यह है कि जनता को वस्तुओं जैसे सस्ता अनाज इत्यादि उपलब्ध कराकर जनहित हासिल किया जाए। मुफ्त वितरण के इन दोनों अंतिम विकल्पों में बाधा वित्तीय धन नहीं, बल्कि सरकारी खपत है। हमें तय करना है कि सरकारी खपत को बढ़ावा दिया जाएगा अथवा जनता की खपत को। यदि हम रोजगार के सर्वश्रेष्ठ उपाय नहीं अपना सकते तो फिर नकदी वितरण वाला उपाय ही आजमाना चाहिए। वहीं तीसरी श्रेणी की मुफ्त वस्तुओं के वितरण के उपाय से बचना चाहिए। यदि दूसरी श्रेणी के मुफ्त नकद वितरण का कार्य चुनाव के समय पार्टियों के माध्यम से किया जाता है तो इसे तात्कालिक राहत के तौर पर स्वीकार करना चाहिए और सरकार पर रोजगार बढ़ाने का दबाव बनाना चाहिए।
(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)
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