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सम्पादकीय
वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ने से कोरोना महामारी का असर अधिक घातक साबित हो रहा
Tara Tandi
2 July 2021 7:19 AM GMT
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कोविड महामारी की पहली लहर का लगभग सफलतापूर्वक सामना कर लेने से सरकार और जनमानस दोनों में आई
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | अभिषेक। कोविड महामारी की पहली लहर का लगभग सफलतापूर्वक सामना कर लेने से सरकार और जनमानस दोनों में आई आत्मसंतुष्टि ने इसकी दूसरी दूसरी लहर को अधिक भयावह बना दिया। शायद यही कारण है कि समय रहते तीसरी लहर की आशंका को देखते हुए इससे निपटने की तैयारी हरेक स्तर पर जारी है। इस तैयारी में कोविड के प्रसार और घातकता पर नियंत्रण के लिए कमर कसी जा रही है।
इस बीच वायु गुणवत्ता आयोग ने भी सतर्कता दिखाते हुए दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए अपनी तैयारी शुरू कर दी है। वैसे तो वायु प्रदूषण कम करने की कोशिश स्वयं में ही एक अच्छी खबर है, किंतु आयोग के इन प्रयासों से कोविड के रोकथाम में अवश्य मदद मिल सकती है। ऐसे में हमें यह भी समझना चाहिए कि इस महामारी को रोकने में वायु प्रदूषण नियंत्रण का क्या योगदान हो सकता है।
इस संबंध में हमें यह समझना होगा कि किसी भी शोध की शुरुआत एक अनुमान से होती है जो या तो अनुभव या पुराने शोधों पर आधारित होता है। अनुमान को वैज्ञानिक परिकल्पना में बदलने की पहली शर्त यह है कि उसमें कारण, कारक और प्रभाव तीनों की स्पष्टता होनी चाहिए। इस स्पष्टता के निश्चित हो जाने के बाद उस परिकल्पना को कई परीक्षाओं से गुजरना होता है। इन सभी परीक्षाओं में उपलब्ध जानकारी के आधार पर कारण और प्रभाव का वैज्ञानिक विश्लेषण होता है। इसके कई चरण होते हैं जिससे यह निश्चित किया जा सके कि प्रभाव उसी कारक की वजह से है। बीमारियां शरीर के अंगों को क्यों प्रभावित करती हैं, इसको समझने के लिए संभावित कारकों का पृथक्करण कर अलग अलग मापन और परीक्षण संभव नहीं होता है, जिस कारण ऐसे शोधों की जटिलता और बढ़ जाती है। उल्लेखनीय है कि कोविड-19 एक नई बीमारी है, लिहाजा इसके संदर्भ में बहुत सारे आंकड़े अभी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं। इतना ही नहीं, वैज्ञानिक समुदाय के लिए भी इसके आंकड़े सुलभता से उपलब्ध नहीं हैं। इस महामारी के मरीजों के चिकित्सीय इतिहास से जुड़े आंकड़े और कोविड वायरस शरीर में कैसे घुसता है और सक्रिय होता है, इसको समझने के लिए कई प्रकार के शोध अभी प्रारंभिक अवस्था में हैं।
मगर इन सीमाओं का अर्थ यह नहीं है कि हम कोविड और वायु प्रदूषण को लेकर कोई वैज्ञानिक अनुमान लगा ही नहीं सकते हैं। संक्रमण और घातकता से जुड़े व्यक्तिवार आंकड़े भले ही नहीं हों, लेकिन यह संभव है कि कोविड के संक्रमण और घातकता के जो क्षेत्रीय स्तर पर शहरों के समग्र आंकड़े हमारे सामने हैं, उनको उस क्षेत्र के प्रदूषण के आंकड़ों से जोड़ कर देखा जाए। इस वैश्विक महामारी के आरंभ में ही इन्हीं समग्र आंकड़ों के आधार पर पर्यावरण विज्ञानियों ने वायु प्रदूषण के कोविड के साथ संबंधों को समझते हुए अपने प्रारंभिक शोधों के आधार पर यह बताया कि वायुमंडल में कणिका तत्वों की मात्र कोविड की घातकता को बढ़ा सकती है। इसी सिलसिले में प्रदूषण और कोविड के संबंधों को समझने के लिए यूरोपीय देशों में दो शोध हुए। नीदरलैंड में शहरों के वायु प्रदूषण और कोविड महामारी के बीच के संबंधों की पड़ताल की गई। वहीं एक अन्य शोध में मुख्य प्रश्न यह था कि क्या उत्तरी इटली में कोविड के ज्यादा घातक साबित होने में वायुमंडलीय प्रदूषण को सह-कारक माना जा सकता है? शोध को इसी दिशा में आगे बढ़ाते हुए यूरोप के शोधकर्ताओं की एक टीम ने प्रदूषण और कोविड से होने वाली मौतों पर वैश्विक स्तर पर शोध किया। इस टीम ने पूरी दुनिया में कोविड से होने वाली 15 प्रतिशत मौतों में प्रदूषण को सह-कारक माना था। क्षेत्रीय स्तर पर देखें तो ज्यादा प्रदूषित पूर्वी एशिया, उत्तरी अमेरिका तथा यूरोप में कोविड से होने वाली वैसी मौतें जिनमें प्रदूषण सह-कारक था, उसका हिस्सा क्रमश: 15, 27 तथा 19 प्रतिशत माना गया। इस टीम ने भारत में भी कोविड के कारण होने वाली 17 प्रतिशत मौतों में प्रदूषण को सह-कारक माना। भारत में भी डॉक्टरों ने दिल्ली के 13 प्रतिशत संक्रमण के मामलों को वायु प्रदूषण से जोड़कर देखा था।
विज्ञानियों का मानना है कि लंबे समय तक पीएम 2.5 कणों के संपर्क के रहने से वायु प्रदूषण से संबंधित जोखिम मानव शरीर में पैदा होने लगता है। इस कारण से इंसान के शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम होने लगती है। यह भी माना जा रहा है कि कोविड-19 के वायरस मानव शरीर में एक खास एंजाइम के रिसेप्टर के माध्यम से ही प्रवेश करते हैं। ऐसे में यह भी स्पष्ट है कि कोविड महामारी और प्रदूषण के संबंधों के पूरे तंत्र को समझने में विज्ञानियों को अभी काफी समय लगेगा, लेकिन इस संदर्भ में कुछ बातें समझी जा सकती हैं। मसलन हृदय की बीमारियों और सांस संबंधी बीमारियों के मरीजों के लिए कोविड वायरस ज्यादा घातक है। इतना ही नहीं, लंबे समय तक प्रदूषित हवा में सांस लेना इन बीमारियों के जोखिम को पैदा करता है। अगर वायु प्रदूषण का स्तर बहुत ज्यादा होता है तो अल्प समय में भी सांस संबंधी ऐसी अनेक प्रकार की समस्याएं पैदा हो सकती हैं जो सामान्य परिस्थितियों में प्रदूषित वातावरण से बाहर निकलने के कुछ समय बाद अपने आप या सामान्य इलाज से दूर हो जाती हैं। मगर उस अंतराल में कोविड संक्रमण हो जाए तो वह सामान्य परिस्थिति के संक्रमण से ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है। यानी यह स्पष्ट है कि वायु प्रदूषण कोविड के जोखिम को बढ़ा रहा है। यह वायरस इंसान की सांस संबंधी परेशानियों को बढ़ाकर बीमारी की घातकता को सीधे तौर पर प्रभावित करता है। अभी तक के तमाम वैज्ञानिक शोधों के आधार पर ऐसा मानना गलत नहीं होगा कि अगर कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर और वायु प्रदूषण एक साथ मिल जाते हैं तो वह स्थिति काफी खतरनाक साबित हो सकती है।
कोरोना महामारी के घातक असर को कैसे कम किया जाए, इसके लिए निरंतर शोध जारी है। इसी क्रम में भुवनेश्वर के उत्कल विश्वविद्यालय, पुणो स्थित भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और आइआइटी भुवनेश्वर द्वारा संयुक्त रूप से राष्ट्रीय स्तर पर 16 शहरों में प्रदूषण और कोरोना संक्रमण की घातकता के संदर्भ में किए गए अध्ययन में पर्यावरण और कोविड के बीच के संबंधों को दर्शाया गया है, जिसमें अत्यधिक प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में कोरोना संक्रमण का जोखिम अधिक होना बताया गया है।
Tara Tandi
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