सम्पादकीय

साहित्य संसार में हिंदी की गूंज

Rani Sahu
31 May 2022 10:22 AM GMT
साहित्य संसार में हिंदी की गूंज
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पिछले दिनों दो ऐसी घटनाएं घटीं, जिनकी अनुगूंज हिंदी भाषा और साहित्य की दुनिया में देर तक सुनाई देगी

विभूति नारायण राय,

पिछले दिनों दो ऐसी घटनाएं घटीं, जिनकी अनुगूंज हिंदी भाषा और साहित्य की दुनिया में देर तक सुनाई देगी। यह हिंदी के अधिक आत्मविश्वास से भरपूर होते जाने और दुनिया भर में उसकी रचनात्मकता के शिनाख्त का समय है। याद रहे, आज जिसे हम हिंदी के नाम से जानते हैं, नागरी लिपि में लिखी जाने वाली उस खड़ी बोली का साहित्य मुश्किल से सवा सौ साल पुराना है। इतने कम समय में न तो सौ करोड़ से अधिक लोगों के बीच संपर्क भाषा बनने की क्षमता हासिल करना आसान था और न ही रचनात्मकता के उस शिखर तक पहुंचना संभव था, जहां देश-दुनिया की समृद्धतम भाषाएं उसमें रचे गए को नजरंदाज न कर सकें। इसीलिए इन दोनों घटनाओं को गौर से देखा जाना चाहिए।
महात्मा गांधी ने पहली बार हिंदी को राष्ट्रभाषा की पदवी दी और आजादी की लड़ाई के एक महत्वपूर्ण औजार के रूप में उसका महत्व स्वीकार किया था। देश की संविधान सभा ने अनुच्छेद-8 में उल्लिखित सभी भाषाओं को राष्ट्रभाषा का दर्जा देते हुए हिंदी को अंग्रेजी के साथ संघ की राजभाषा बनाया। इस एक परिवर्तन से हिंदीप्रेमियों का आत्मविश्वास कितना डिग गया था, इसका पता सिर्फ इसी से लगता है कि संविधान में अकेली राजभाषा के रूप में हिंदी को लागू करने की तिथि 26 जनवरी, 1965 के निकट आने पर जब तत्कालीन मद्रास प्रांत में हिंसा भड़क उठी, तो सेठ गोविंद दास जैसे उत्साही हिंदीप्रेमियों ने सेना भेजकर वहां हिंदी लागू करने की बात की थी। यह अलग बात है कि भाषा आंदोलनों से निपटने के लिए सरकार को ऐसा कानून बनाना पड़ा कि अब अंग्रेजी अनिश्चित समय तक हिंदी के साथ संघ की राजभाषा बनी रहेगी। ऐसी ही एक दिलचस्प स्थिति है कि ज्यादातर हिंदीप्रेमी मानते हैं कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है। कई बार तो वे इसे लेकर विरोधियों से लड़ने के लिए भी तैयार हो जाते हैं। इसीलिए गाहे-बगाहे उच्च न्यायालयों को स्पष्ट करना पड़ा है कि संविधान के अनुसार, हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा है।
पिछले कुछ दशकों में, जब यह लगभग मान लिया गया कि राष्ट्रभाषा बनने की जिद निरर्थक है और सरकारों के लिए हिंदी का मतलब हर साल मनाया जाने वाला राजभाषा पखवाड़ा मात्र है, कुछ अद्भुत चीजें हुईं। आर्थिक तरक्की और भारी पैमाने पर औद्योगीकरण के चलते बड़ी बसावटें बनीं, जिनमें उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम से आकर लोग बसे और फिर हिंदी ने वह भूमिका निभानी शुरू की, जिसके लिए वह सर्वथा उपयुक्त थी, अर्थात वह तमिल, गुजराती, उड़िया या नगा जैसे समाजों के बीच संपर्क भाषा का काम करने लगी। आज मुंबई, बेंगलुरु, पुणे, कोयंबतूर, गुवाहाटी या तिरुवनंतपुर में हिंदी बोलकर आप मजे से अपना काम चला सकते हैं। इस भूमिका के लिए उसका समावेशी होना सबसे अधिक मददगार सिद्ध हुआ। किसी भी भाषा का शब्द उसका अपना है। तभी तो एक शताब्दी की उम्र वाली खड़ी बोली ने अपभ्रंश, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली और बहुत-सी बोलियों की साहित्यिक और शब्द संपदा को अपनाकर अपना इतिहास लिखा। सरकार भले न बनाए, जनता ने उसे राष्ट्रभाषा बना दिया है। बाजार ने सरकार की कमी पूरी कर दी है।
इस बदली हुई हैसियत ने हिंदी का आत्मविश्वास बढ़ाया है। इसी का परिणाम था कि नई शिक्षा नीति में हर छात्र के लिए मातृभाषा के अतिरिक्त एक अन्य भारतीय भाषा पढ़ना जरूरी किए जाने पर जब दक्षिण के कुछ नेताओं ने विवाद खडे़ करने शुरू किए, तो हिंदी पट्टी ने वैसी उत्तेजना नहीं दिखाई, जो आजादी के शुरुआती सालों में दिखती थी। यह स्पष्ट हो गया है कि इस बहुभाषिक समाज में संपर्क भाषा तो हिंदी ही रहेगी और हर छात्र बिना दबाव दूसरी भाषा के तौर पर हिंदी ही पढ़ेगा। इसी बढ़े आत्मविश्वास का नतीजा था, जब दक्षिण के कुछ कलाकारों ने हिंदी के खिलाफ विषवमन करना शुरू किया, तो छिटपुट प्रतिक्रियाओं को छोड़कर कहीं से गुस्से भरे बयान नहीं आए।
दूसरी बड़ी घटना एक हिंदी रचना को बुकर सम्मान मिलना है। गीतांजलि श्री के उपन्यास रेत समाधि को इस वर्ष के बुकर सम्मान से नवाजे जाने के निहितार्थ बहुत बड़े हैं। इस बड़बोले समय में, जब हमारे बहुत से लेखक खूब बोलते हैं और सिर्फ अपने बारे में बोलते हैं, किसी ऐसे रचनाकार को दुनिया के बड़े पुरस्कारों में से एक मिलना, जिसे हम अपनी रचना के बाहर विरले ही बोलते देखते हैं, किसी चमत्कार से कम नहीं है। वाद विवादों या आत्म प्रचार से दूर गीतांजलि हिंदी के वृहत्तर पाठक समुदाय के लिए काफी हद तक अपरिचित नाम था, लेकिन साहित्य के गंभीर अध्येता मानते हैं कि भाषा के रचनात्मक उपयोग की जो क्षमता उन्होंने विकसित की है, वह उनके समकालीनों के लिए स्पृहा की वस्तु हो सकती है। यह अलग बात है कि गीतांजलि ने जो मुहावरे रचे हैं, उन तक पहुंचने के लिए पाठक को भी कुछ अतिरिक्त कदम चलने पड़ेंगे। यहां सिर्फ लेखकीय तैयारी से काम नहीं चलेगा, पाठकीय तैयारी की भी उतनी ही जरूरत पड़ेगी। शायद इसी तैयारी की कमी थी कि सोशल मीडिया पर कई लोगों ने स्वीकार किया कि उन्होंने गीतांजलि श्री का नाम ही बुकर सम्मान के लिए शॉर्ट लिस्टिंग के बाद सुना।
अपने एक इंटरव्यू में गीतांजलि ने सही ही कहा है कि इस एक पुरस्कार से विश्व का ध्यान हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं में हुए महत्वपूर्ण लेखन पर जाएगा। अभी तक, खास तौर से पश्चिम का ध्यान भारतीय लेखकों द्वारा सिर्फ अंग्रेजी में रचे पर जाता रहा है। इसके लिए डेजी राकवेल जैसी अनुवादिका की भी जरूरत पड़ेगी, जो गीतांजलि को मिलीं। अनुवादक का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि अपने कालजयी उपन्यास वन हंडरेड इयर्स आफ सोलिट्यूड का स्पैनिश भाषा से अंग्रेजी में अनुवाद कराने के लिए मारखेज ने अनुवादक ग्रेगरी रबासा के खाली होने का वर्षों इंतजार किया। अनुवाद के बाद इस उपन्यास के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला। हिंदी में गद्य और पद्य, दोनों में पिछले सौ वर्षों में बहुत कुछ ऐसा लिखा गया है, जिसे अंग्रेजी, फ्रेंच या स्पैनिश जैसी भाषाओं में अनुवाद किया जाना चाहिए, जिससे उन्हें विश्व-साहित्य में वह स्थान मिल सके, जिसके वे हकदार हैं। रेत समाधि को बुकर सम्मान मिलने से इसकी संभावना और उम्मीद बनती है।

सोर्स- Hindustan Opinion

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