सम्पादकीय

हम पर हावी दवा 'बीमारी'!

Rani Sahu
3 Jan 2022 9:41 AM GMT
हम पर हावी दवा बीमारी!
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‘वर्ल्ड ड्रग रिपोर्ट’ द्वारा किए गए अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में पाया गया है

शिरीष खरे 'वर्ल्ड ड्रग रिपोर्ट' द्वारा किए गए अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में पाया गया है कि आधे से ज्यादा भारतीय जरूरत से ज्यादा दवाइयों का सेवन कर रहे हैं. इस सर्वेक्षण से अलग भी यदि हम कई खबरों और अपने अनुभवों के आधार पर सोचें, तो इन दिनों अपने शरीर के लिए दवाइयों के बढ़ते प्रचलन की हकीकत से आंख नहीं मूंद सकते हैं. सवाल है कि इसके पीछे सबसे बड़ा कारण क्या है? पहली बात तो यह है कि हमारे पास दवा उद्योग और चिकित्सा पेशे के बीच पर्दे के पीछे चल रही इस तरह की अनैतिक गतिविधियों को रोकने की सुविधा नहीं है, जबकि समय की दरकार है कि नीतिगत स्तर पर इस तरह की अनैतिक गतिविधियों को रोकने के लिए एक सख्त निगरानी तंत्र विकसित किया जाए

वहीं, सख्त निगरानी तंत्र के अभाव में इसके सीधे और परोक्ष दुष्प्रभाव भी पड़ रहे हैं, जिसके बारे में एक विस्तृत अध्ययन की भी जरूरत है. यही वजह है कि आवश्यकता न होने के बावजूद ज्यादा से ज्यादा दवाएं लेने की आदत देश में बढ़ती ही जा रही है. इस क्षेत्र के जानकारों की मानें तो इसमें पुरानी दवाइयों के रूप में नए नामों से बहुत सारी दवाएं भी बाजार में बिक रही हैं.
'पॉलिफार्मेसी' का खतरा
इस तरह के सर्वेक्षण से एक बात यह भी जाहिर होती है कि हमारे देश में आधे से ज्यादा घरों में दवाइयों का ओवरडोज होता है. इन्हें 'पॉलिफार्मेसी' श्रेणी में रखा जा सकता है. दरअसल, एक समय में एक से अधिक कम-से-कम पांच दवाइयों लेने वाले व्यक्ति को 'पॉलिफार्मेसी' के रूप में वर्गीकृत किया गया है.
सरल भाषा में इसे 'बहु-औषधीय जीव' कह सकते हैं. इस स्थिति तक पहुंचने के कई कारण हो सकते हैं, जैसे: बुढ़ापा, प्राकृतिक जीवन के विपरीत जीने के कारण पैदा हुईं जटिलताएं और कई गंभीर व नई बीमारियां. हालांकि, इनमें से कई बीमारियों के पीछे की वजह बदलती जीवन शैली के कारण हमारे स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रतिकूल प्रभाव ही हैं, लेकिन भारत जैसे देश में जहां स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा लचर बना हुआ है और मेडिकल से संबंधित समुचित परामर्श का अभाव है, वहां खास तौर पर दूरदराज के इलाकों में बड़ी संख्या तक हर साल यदि आम लोग बीमार पड़ते हैं, तो उनका हल क्या है, जबकि ज्यादातर बीमारियों के उपचार में यदि कम-से-कम दवा दी जा सकती है, तो यह समझने और बताने वाला वहां कौन है कि हर मल्टीकास्ट ड्रग एब्यूसर नहीं होता और साथ ही यह सच है कि हर कोई जो कई दवाएं लेता है, उसे कम-से-कम किया भी जा सकता है या नहीं?
हालांकि, दवा की बढ़ती 'बीमारी' की गिरफ्त में पूरी दुनिया ही आ रही है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण का आंकड़ा बताता है कि इस 'बीमारी' से हमारा देश अधिक चपेट में हैं, तो उसके कई कारण भी हैं. वहीं, कई तरह की बीमारियों के उपचार में आधे से अधिक भारतीयों द्वारा अधिक दवाएं लेना चिंता का सबब बनता है. दूसरी तरफ, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस बीच लोगों का एक बड़ा समूह उभरा है, जो बगैर चिकित्सकीय परामर्श के ही उपचार पर भरोसा करता है और उसे दवाइयों के नाम भी पता हो गए हैं, इसलिए कोई बीमारी होने पर वह तुरंत मेडिकल स्टोर से सीधे दवाएं खरीदकर खा लेता है.
स्वयंभू फार्मासिस्ट की दवाइयों का असर
दूसरी तरफ, हमारे पास ऐसे लोगों का भी एक बड़ा वर्ग है जो नई दवाओं के साथ प्रयोग करना पसंद करते हैं और उनकी कई किस्म की दवाओं की खोज बेरोकटोक जारी है. इस वर्ग की खासियत यह है कि यह स्वयंभू फार्मासिस्ट इस कथित दवा के गुणों को दूसरों के सिर में डाल देता है और यदि मरीज या उसके परिजन मेडिकल क्षेत्र में जागरूक नहीं हैं, तो यह अत्यधिक दवाओं के उपयोग में एक और खरतनाक आयाम जोड़ देता है. इससे मरीज को फौरी राहत हो सकती है मिल जाए, लेकिन उसके स्वास्थ्य पर बुरा असर होने की आशंका बनी रहती है.
इस ड्रग ओवरडोज के पीछे तीन मुख्य कारण हैं. एक तो यह कि समय और धन में चिकित्सा सलाह प्राप्त करना संभव नहीं है, इसलिए दवा दुकानों से सीधे दवा लेने वाले पहली श्रेणी के लोग हैं. यह वर्ग मुख्यतः आर्थिक रूप से कमजोर हैं.
दूसरा वर्ग आर्थिक रूप से संपन्न है, इस वर्ग के दो घटक हैं: पहला डॉक्टर का करीबी रिश्तेदार या परिजन. इन्हें चिकित्सा संबंधी मामूली अनुभव होता है, जिसके चलते यह अपने अनुभव के आधार पर दूसरों को अंधाधुंध दवाइयां लिख रहे हैं. ऐसे समूह हम अपने आसपास ही आसानी से देख सकते हैं. उसके बाद जो दूसरा घटक है वह Google आदि पर सर्च करता है और खुद या परिजनों को दवाई देता है. इस वर्ग का उदय हाल ही में हुआ है.
इंटरनेट पर मुफ्त जानकारी भी आधार
अगर इंटरनेट पर मुफ्त जानकारी के आधार पर इलाज किया जा सकता है, तो आज देश में 130 करोड़ में से न्यूनतम 100 करोड़ खुद को डॉक्टर कहते. लेकिन, इनकी बढ़ती संख्या भी दवाइयों के अत्यधिक उपयोग की प्रमुख वजह बनती जा रही है.
तीसरा कारण स्वयं चिकित्सा से जुड़ा कारोबार है. इस कारोबार को समझने के लिए दवा कंपनियों और चिकित्सकों के बीच की सांठगांठ पर ध्यान देना होगा, जो आधुनिक समय में और अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और सार्वजनिक होते जा रहे हैं. इसके तहत अक्सर कंपनियां अपने उत्पादों को अधिक से अधिक बेचने में रुचि रखती हैं, जिसके लिए वे आमतौर पर चिकित्सकों को मुनाफा देकर उनकी मदद लेती हैं. हालांकि, इस क्षेत्र के सभी चिकित्सक और दवा कंपनियों ऐसी नहीं हैं.
इन तीन कारणों के अलावा एक अन्य कारण भी है. यह है प्राचीन चिकित्सा पद्धति की आड़ में झोलाछाप चिकित्सा पद्धति को बढ़ावा देना, जिस पर शिकंजा कसने की जितनी कोशिश होनी चाहिए उतनी होती नहीं दिख रही है.
ताकि प्रथम विश्व युद्ध का दौर न लौटे
यह आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत में दवाओं का ओवरडोज बढ़ रहा है. वहीं, एक समय था, जब हमारी जनता की अज्ञानता के कारण भारत को दवा कंपनियों के लिए एक प्रयोगशाला के रूप में देखा जाता था. इस संदर्भ में प्रथम विश्व युद्ध के अंत में जब इंग्लैंड की कुछ सबसे शक्तिशाली कंपनियों ने कुछ घातक रसायनों का उत्पादन किया, तो उनकी सरकार ने उन्हें भारत में परीक्षण करने का आदेश दिया था.
इसके पीछे कारण यह था कि तब भारत में उपचार के दौरान किसी व्यक्ति की मृत्यु भी हो जाती थी, तो भी उसकी मौत के पीछे की वजह को जानने के लिए गंभीर प्रयास नहीं किया जाता था, न ही इस तरह से हुई उसकी मुद्दा बन पाती थी.
किन, अब बदली हुई परिस्थिति में नये खतरा मंडरा रहा है, तो यह सावधानी रखनी ही चाहिए कि इन रासायनिक कंपनियों को हाल के दिनों में दवा कंपनियों द्वारा प्रतिस्थापित तो नहीं किया जा रहा है. यहां सावधानी बरतने की पहली शर्त यह होनी चाहिए कि हमें अकारण और अत्यधिक दवाइयों से मुक्ति मिले. ऐसा होगा तभी मेडिकल क्षेत्र में पसरा शोषण कमजोर होगा.


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