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ऑनलाइन परीक्षा हुई
ऑनलाइन परीक्षा हुई। उत्तर पुस्तिकाएं जांचने के लिए आईं। आश्चर्य इस बात का हुआ कि वाक्य बनाने के एक सवाल का जवाब कई लोगों ने एक ही तरह से लिखा था। आखिर ऐसा कैसे हो गया? यह उत्तर सही होते हुए भी सही नहीं था। क्लॉस में जो उत्तर लिखवाया गया था, वह तो ऐसा नहीं था। फिर जो उत्तर सामने आया है, वह एक जैसा कैसे है? काफी सोच-विचार के बाद याद आया, अरे! यह तो हमारे गूगल बाबा की करामात है। एक सवाल का जवाब बच्चों ने गूगल बाबा की मदद से लिखा। इसलिए कई विद्यार्थियों के उत्तर एक जैसे थे। इसका मतलब साफ है कि बच्चे आजकल अपनी भाषा नहीं बोल रहे हैं और न ही लिख रहे हैं। उन पर एक वायवीय हमला हो गया है। वे संवादहीनता की स्थिति में जी रहे हैं। उनकी बातचीत न तो अपने माता-पिता से हो पा रही है और न ही रिश्तेदारों से।
दोस्तों से जो बातचीत होती है, वह आजकल की बेहूदा भाषा में होती है। यही कारण है कि बच्चे गूगल बाबा की शरण में जा रहे हैं। पीढ़ियों का अंतर हर दौर में रहा है। आज अत्याधुनिक संसाधनों से लोग एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। पर वे कितने जुड़े हैं, यह तो तब पता चलता है, जब किसी के यहां कोई हादसा हो जाता है, तो सामने वाला जानते हुए भी उस सूचना को फेसबुक या वाट्स एप में आने का इंतजार करता है। आखिर में बात यही सामने आती है कि उसने अपने साथ हुए हादसे की जानकारी एफबी या वाट्स एप में नहीं दी। इसलिए हम सही समय पर नहीं पहुंच पाए। यह हमारे समाज में संवादहीनता का एक छोटा-सा उदाहरण है।
आज घर में रिटायर व्यक्ति खुद को उपेक्षित महसूस करता है। भावी पीढ़ी से उनका संवाद एक तरह से खत्म ही हो गया है। आजकल के बच्चों के शब्दकोश से क्षमा, दया, स्वाभिमान, कृपा, संयम, त्याग और निष्ठा जैसे शब्द गायब हो गए हैं। शहरी बच्चों का इन शब्दों से दूर-दूर का नाता दिखाई नहीं देता। उनके लिए ये शब्द केवल हिंदी की किताबों में ही मिलते हैं। बच्चों की शरारतें भी अब सीमित होने लगी हैं। उनकी निष्पाप हंसी भी गायब हो गई है। अब बच्चों की खिलखिलाहट में मासूमियत दिखाई नहीं देती। शरारतों ने आंखों से रिश्ता ही तोड़ लिया है। कुछ दशक पहले ही बच्चों का बुजुर्गों से जीवंत रिश्ता हुआ करता था। इन बुजुर्गों से उन्हें अनजाने में ही ज्ञान का खजाना मिल जाया करता था। कभी किस्से-कहानियों के रूप में, कभी बातचीत में। बुजुर्ग अपने अनुभवों के मोतियों को बच्चों पर लुटाते थे, जिससे बच्चे संस्कारवान बनते थे। आज हालात बदल गए हैं। बच्चों-बुजुर्गों के बीच एक खालीपन आ गया है। रिश्तों की डोर कमजोर होने लगी है। अब उनमें आपसी संवाद नहीं होता। इसके लिए सबसे बड़ी बाधा है, भाषा। आज बच्चों की भाषा कुछ ऐसी है कि वह बूढों को समझ में नहीं आती।
दूसरी ओर बूढ़ों की भाषा बच्चों को समझ में नहीं आती। इन दोनों के बीच जो पीढ़ी संवाद सेतु का काम कर सकती है, उसके पास वक्त भी भारी कमी है। वे न तो अपने माता-पिता पर ध्यान दे पा रहे हैं और न ही बच्चों पर। बच्चों के शब्द भंडार में अंग्रेजी के शब्द अधिक हैं। बुजुर्गों के शब्द भंडार में हिंदी के शब्द अधिक हैं। दोनों पीढ़ियों के बीच संप्रेषण एक तरह से टूट ही गया है। इसलिए उनमें संवाद नहीं होता। संवादहीनता की इस स्थिति में बुजुर्गों ने भी अपनी अलग दुनिया बना ली है, जिसमें बच्चों का कोई दखल नहीं है। घर का कोना-कोना संवादहीन है। घर के सदस्यों ने कई दिनों से न तो चिड़ियों का चहचहाना ही सुना, न ही कबूतरों का समूह में उड़ना देखा। अब तो बच्चों को यह भी नहीं पता कि गाय कैसे रंभाती है। उन्होंने बकरी का मिमियाना भी नहीं सुना।
संवादहीनता के कारण हृदय की पीड़ा घनीभूत हो जाती है। घर में सभी सदस्य पूरी तरह से व्यस्त होते हैं। किसी के पास किसी के लिए भी समय नहीं है। पड़ोस का मैदान भी अब किलकारियों से नहीं गूंजता। शायद इन्हीं परिस्थितियों को देखते हुए गुलजार साहब ने कहा है-खाली पड़ा है मेरे पड़ोस का मैदान, एक मोबाइल बच्चों के गेम चुरा ले गया...।
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