सम्पादकीय

आपकी मौत और हमारी मौत का फर्क

Rani Sahu
11 May 2022 7:09 PM GMT
आपकी मौत और हमारी मौत का फर्क
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बौराये हुए लोग शहरों से उखड़ कर गांवों की ओर, और गांवों में कोई ठिकाना न पाकर फिर शहरों की ओर लौट रहे हैं

बौराये हुए लोग शहरों से उखड़ कर गांवों की ओर, और गांवों में कोई ठिकाना न पाकर फिर शहरों की ओर लौट रहे हैं। बहुत बरस हुए जो पंछी अपने नीड़ छोड़कर विदेशों की ओर उड़े थे, उन्हें तो आज नष्ट नीड़ की कहानी दुहरा कर सुनाई जा रही है। यहां तो घोंसलों का तिनका-तिनका बिखर गया और जिस स्वप्न द्वीप को पा लेने कल्पना परदेस में की थी, वहां उन्हें आगंतुक अनिमंत्रित करार दे दिया गया। 'चल खुसरो अपने देस' लौटते हुए निराश चेहरे जैसे अपना अंतस टटोल कर कह देना चाहते हैं। लेकिन कहां है देस, किसका देस, कहां है ठिकाना? ठिकाने तो जर्जर हो गए, कहीं भी अपने नहीं लगते। नौकरी छिनने और महंगाई बढ़ने की बात न कीजिए। बेकारी और कीमत वृद्धि के जो आंकड़े आपको डरा रहे हैं, वह तो उन दिनों के हैं जब महामारी ने अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू किया था। फिर आया महामारी काल। न जाने कितने कामगारों की बंधी-बंधाई नौकरियां छूट गयीं। गांव से शहर और शहर से गांव के आवागमन में न जाने कितने गृहस्थी उजड़े प्राणी हांफ-हांफ कर दम तोड़ गये। कितने अनियमित छोटे व्यापारियों और फड़ी रेहड़ी वालों का काम धंधा उजड़ा, इसके आंकड़े, हिसाब-किताब या लेखा-जोखा किसी के पास नहीं है। लोकसभा में मंत्री महोदय आंकड़े न होने पर बेबसी दिखा रहे हैं।

प्रगति सूंचकांक ऐतिहासिक गिरावट दिखाते हुए जैसे अपना सिर पीट रहे हैं, लेकिन फिर भी सरकारी कक्ष अपनी टूटी बांसुरी पर मधुर स्वप्न राग छेड़ रहे हैं कि सही है इस बरस महामारी की अकृपा से सकल विकास दर नौ प्रतिशत नीचे आ गई, लेकिन अगला बरस आने दीजिए, बिस्तर पर पड़ा हुआ कराहता और दम तोड़ता संक्रमित रोगी न केवल उठ जाएगा, बल्कि विकास की मैरॉथन में स्वर्ण पदक भी जीत लाएगा। कैसे बताएं कि फिसड्डी लोगों के स्वर्ण पदक जीत लेने के सपने हर बरस नपुंसक हो जाते हैं और गांवों से महानगर और महानगर से विदेश जाकर अपने लिए स्वप्न महल खड़ा कर लेने का सपना, किसी उजड़े हुए हातिमताई की दास्तां लगने लगता है। गरीब और फटीचर हातिमताई को समझाया जाता है कि यह भुखमरी, यह बेकारी, यह फटीचर जि़ंदगी महामारी का मुकाबला न कर पाने की असमर्थता से पैदा नहीं हुई, लोग तो यहां सदियों से गरीबी और भुखमरी झेल रहे हैं। उन्हें भूख से मरने की आदत हो गयी है, इसलिए मौतों के ये आंकड़े महामारी के प्रकोप के खाते में डालिये।
लोग मर रहे हैं क्योंकि यह पिछड़ा हुआ देश पहले से ही मन्दीग्रस्त था। मरने और मरने में अंतर होता है। हम तो जो कोरोना से मरा, उसी की गिनती करेंगे। जो भूखा, बेकारी और अर्थिक दुरावस्था की वजह से मरे वह कोरोना प्रकोप से इतर कारणों से मरे हैं, मसलन हमारे योजनाबद्ध आर्थिक विकास का बंटाधार, देश में दायित्वहीनता की पराकाष्ठा, या अपने देश का दुनिया के दस सबसे महाभ्रष्ट देशों में से एक होना। असली कारणों का गला नापने की जगह आप तो कोरोना को महाकाल बताए जा रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि इस समय देश में कोरोना संक्रमण से तंदुरुस्त हो जाने की दर 79 प्रतिशत हो चुकी है और इससे होने वाली मृत्यु दर को हमारे चिकित्सा शास्त्रियों ने घटा कर निम्नतम एक दशमलव छह प्रतिशत कर दिया है। बंधुओ, यह समय कोरोना योद्धाओं के अभिनंदन का है। इनमें शामिल वह पुलिस योद्धा भी हैं जो आपके मुंह पर मास्क न रहने की वजह से आपका चालान करके भारी राशि उगाह रहे थे। न जाने कैसे समझ आएगी कि ऐसे चालान योद्धाओं को रसीद विहीन चिरौरी भेंट कर किसी पतली गली से निकल जाइए। लेकिन नहीं आपको तो कानून पर चलना है, सरकार का खाली खज़ाना भरना है। भरिये-भरिये जनाब. देश में चंद सत्यवादी भी तो होने चाहिएं।
सुरेश सेठ


Rani Sahu

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