- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- आपकी मौत और हमारी मौत...

बौराये हुए लोग शहरों से उखड़ कर गांवों की ओर, और गांवों में कोई ठिकाना न पाकर फिर शहरों की ओर लौट रहे हैं। बहुत बरस हुए जो पंछी अपने नीड़ छोड़कर विदेशों की ओर उड़े थे, उन्हें तो आज नष्ट नीड़ की कहानी दुहरा कर सुनाई जा रही है। यहां तो घोंसलों का तिनका-तिनका बिखर गया और जिस स्वप्न द्वीप को पा लेने कल्पना परदेस में की थी, वहां उन्हें आगंतुक अनिमंत्रित करार दे दिया गया। 'चल खुसरो अपने देस' लौटते हुए निराश चेहरे जैसे अपना अंतस टटोल कर कह देना चाहते हैं। लेकिन कहां है देस, किसका देस, कहां है ठिकाना? ठिकाने तो जर्जर हो गए, कहीं भी अपने नहीं लगते। नौकरी छिनने और महंगाई बढ़ने की बात न कीजिए। बेकारी और कीमत वृद्धि के जो आंकड़े आपको डरा रहे हैं, वह तो उन दिनों के हैं जब महामारी ने अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू किया था। फिर आया महामारी काल। न जाने कितने कामगारों की बंधी-बंधाई नौकरियां छूट गयीं। गांव से शहर और शहर से गांव के आवागमन में न जाने कितने गृहस्थी उजड़े प्राणी हांफ-हांफ कर दम तोड़ गये। कितने अनियमित छोटे व्यापारियों और फड़ी रेहड़ी वालों का काम धंधा उजड़ा, इसके आंकड़े, हिसाब-किताब या लेखा-जोखा किसी के पास नहीं है। लोकसभा में मंत्री महोदय आंकड़े न होने पर बेबसी दिखा रहे हैं।
