सम्पादकीय

श्राद्ध के दिन सिर्फ अपने पुरखों की आत्माओं को याद करने के लिए नहीं, बल्कि यह अवसर है अपने संस्कारों को बेहतर बनाने का

Rani Sahu
27 Sep 2021 6:56 AM GMT
श्राद्ध के दिन सिर्फ अपने पुरखों की आत्माओं को याद करने के लिए नहीं, बल्कि यह अवसर है अपने संस्कारों को बेहतर बनाने का
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अभी श्राद्ध के दिन चल रहे हैं, मतलब परिवार की जिन आत्माओं ने शरीर छोड़ा

बीके शिवानी। अभी श्राद्ध के दिन चल रहे हैं, मतलब परिवार की जिन आत्माओं ने शरीर छोड़ा, उन्हें याद करने के दिन। जो आत्माएं शरीर छोड़कर गईं वे आज कहां हैं? श्राद्ध के दिनों का मतलब सिर्फ यह नहीं कि उन्हें याद करें, साथ में यह भी याद रखना होगा कि जिस दिन हम जाएंगे, अपने साथ क्या-क्या लेकर जाने वाले हैं। एक क्षण आएगा, हमें पता भी नहीं होगा कि कब शरीर छोड़ना है। अगर पता चल जाए है कि चार घंटे के बाद शरीर छोड़ना है, तो मैं इस चार घंटे में क्या-क्या करूंगी।

हर चीज मुझ आत्मा पर रिकॉर्ड है, वह आत्मा के साथ आगे जाएगी, अगले शरीर में। अगर हमें शक्ति मिले तो चार घंटे के अंदर हम कौन-कौन से संस्कार अपने अंदर ला सकते हैं। हम जीवन में तो इन बातों का बहुत ध्यान रखते हैं कि जब हम जाएंगे तो पीछे क्या छोड़कर जाएंगे। हम अपना बीमा करवा लेते हैं कि इससे परिवार का ध्यान रखा जाएगा। कितना बड़ा मन होता है औरों का ध्यान रखने के लिए। लेकिन हम ये ध्यान नहीं रखते कि हम साथ में क्या लेकर जाने वाले हैं।
आध्यात्मिकता का मतलब इस बात का भी ध्यान रखना है कि साथ में क्या लेकर जाएंगे। दुनिया कहती है कि खाली हाथ आए थे, खाली हाथ जाना है। ये सच नहीं है। जो सबकुछ दिखता है वह न लेकर आए थे न लेकर जाना है। जो नहीं दिखता है वो लेकर भी आए थे और साथ में लेकर भी जाएंगे। अब विचार करें कि क्या छोड़ेंगे पीछे। पहले तो जो सबकुछ हमने कमाया था वो छूटेगा, फिर परिवार छूटेगा, शरीर भी छूटेगा। आत्मा के साथ क्या-क्या जाएगा? संस्कार और सारे कर्म जो हमने किए हैं, वो हमारी आत्मा पर रिकॉर्ड हो जाते हैं।
इसीलिए आत्माएं किसी और नए शरीर में जाती हैं, तब एक ही समय और एक ही दिन, उसी ग्रह के प्रभाव में जन्मे दो बच्चे का भाग्य बिल्कुल अलग-अलग होता है। यह किस आधार से बना? एक ही घर में एक ही माता-पिता के उसी क्षण दो बच्चे पैदा होते हैं, ग्रह भी वही, समय भी वही, माता-पिता भी वही, फिर भी दोनों बच्चों का भाग्य बिल्कुल अलग-अलग होता है। क्योंकि वो आत्मा जो लेकर आए हैं वो अलग-अलग है।
कोई बच्चा बहुत शांत है, कोई बहुत नाराज हो जाता है, कोई बहुत रोता है, कोई डरता है, कोई बच्चा अपना सबकुछ लोगों के साथ साझा करता है, कोई बच्चा अपने खिलौने किसी को भी नहीं देता है। तो अपने-आपको जांचते रहो कि मैं जो बच्चा बनूंगा वो कैसा बच्चा बनूंगा। खुश रहने वाला, सदा हंसते रहने वाला या छोटी-छोटी बातों में रूठने वाला, दूसरों के साथ चीजें बांटने वाला या अपनी चीजें सदा पकड़कर रखने वाला।
दूसरों की सफलता में खुश होने वाला या दूसरों की सफलता से ईर्ष्या करने वाला। जो पीछे रह जाएगा, उस पर तो इतनी मेहनत करते हैं और जो साथ जाएगा उस पर कम ध्यान देते हैं। तो जो श्राद्ध के दिन आते हैं ये सिर्फ इसलिए नहीं आते कि उनको याद करूं जो चले गए। जिन लोगों को थोड़ा समय मिल जाता है उनको कहा जाता है, सबको माफ करो। सबसे माफी मांगो। भगवान को याद करो, सब लोगों को शुक्रिया करो।
ये वही लोग कर सकते हैं जिनको थोड़ा-सा समय मिल जाए। इसलिए बहुत ध्यान रखना पड़ता है कि किन चीजों में जीवन में अटके हुए हैं। क्योंकि एक क्षण आया तो उन्हीं अटक, उन्हीं रस्सियां, उन्हीं गांठों के साथ चले जाएंगे। ऐसा नहीं होना चाहिए। सबके बीच रहें लेकिन कैसे रहते हुए एकदम हल्के रहें। कुछ लोग तो परिवार को भी बोल देते हैं कि मेरे जाने के बाद भी फलाने से बात मत करना। सोचो जो आत्मा ऐसी सोच लेकर जाएगी क्या वो शांत रह पाएगी।
यह इसलिए है कि जीवन की प्राथमिकता स्पष्ट नहीं है। छोटी-छोटी बातों में नाराजगियां पकड़कर रखी हुई है। तो इन श्राद्ध के दिनों में उन सारी नाराजगियों को छोड़ देना है। जब तक वो सारी चीजें छोड़ेंगे नहीं, तब तक नवरात्रि नहीं आ सकती। देवी का आह्वान नहीं होगा। जहां मन और चित पर मैल है, वहां दिव्यता नहीं आ सकती। इसीलिए हर चीज जो संस्कृति में बनी वो सीखने के लिए थी। पहले श्राद्ध के दिन थे। फिर उसके बाद नवरात्रि आएंगी।
फिर नौ दिनों के बाद दशहरा आएगा। फिर उसके 20 दिनों के बाद दीवाली आएगी। मतलब पहले अपने संस्कारों को ठीक करें। जीवन ऐसा बनाएं कि जिस क्षण मुझ आत्मा को उड़ना पड़े, वह तैयार रहे। जैसे कहते हैं ना कि लेन-देन कभी पेडिंग नहीं होनी चाहिए। पेडिंग रह गया तो कैरीफार्वड हो जाएगा। लेन-देन सिर्फ धन का नहीं बल्कि अपने मन के अंदर भी होता है। सब चुकता होना चाहिए।


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