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सम्पादकीय
बेलगाम होते इंटरनेट मीडिया के खतरे, अब बुद्धि, विवेक और भावना सब को नियंत्रित कर रहा
Gulabi Jagat
14 Jun 2022 8:30 AM GMT
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बेलगाम होते इंटरनेट मीडिया के खतरे
गिरीश्वर मिश्र। सभ्यताओं के विकास की कहानी बताती है कि परिवेश में बदलावों की लंबी कड़ी में इंटरनेट मीडिया की सत्ता आज सबसे अधिक महत्व की हो चली है। मानव इतिहास की नवीनतम सर्वव्यापी घटना के रूप में सूचना-संचार का गठन आज कई मानकों का अतिक्रमण कर नए-नए प्रतिमान स्थापित कर रहा है। इस क्रम में ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम, वाट्सएप जैसे इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म ने एक बड़ा अध्याय जोड़ा है। इनका दूरगामी प्रभाव पड़ रहा है। मनुष्य के लिए अपनी आत्माभिव्यक्ति और दूसरों के साथ उसे साझा करना एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इंटरनेट मीडिया ने इस प्रवृत्ति को एक होड़ में बदल दिया है।
आज इंटरनेट मीडिया समाज और सामाजिकता पर हावी हो रहा है। इसका तात्कालिक प्रभाव इतना जबरदस्त होता है कि उसकी गिरफ्त में जो फंसता है, उसे कोई दूसरी राह नहीं सूझती। उलटे उससे जुड़े रहने का चाव और चाहत ऐसे तीव्र और सघन ढंग से बढ़ती जाती है कि ज्यादातर लोगों को समय कम पड़ने लगता है। आज इंटरनेट मीडिया हमारे अस्तित्व के हर निजी और सार्वजनिक पहलू को स्पर्श कर रहा है। सूचना का बढ़ता साम्राज्य हमारे परिवेश में सबसे व्यापक और प्रभावशाली बदलाव साबित हो रहा है। सूचना तो हमेशा ही जरूरी थी और ज्ञान एवं शिक्षा से उसका निकट का रिश्ता भी पुराना था, परंतु उसका दखल इतना बढ़ जाएगा, यह किसी ने नहीं सोचा था। आज जीवन के हर क्षेत्र में इंटरनेट मीडिया का अनिवार्य हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। निजता-सार्वजनिकता, दोनों का दायरा बढ़ाते हुए आज सारी चीजें उसी के अधीन होती जा रही हैं। हम हर बात के लिए इंटरनेट मीडिया पर निर्भर हुए जा रहे हैं। नैसर्गिक और वास्तविक दुनिया में बनने वाले मानवीय रिश्तों और उनके बीच आपसी संबंध को स्थगित और विस्थापित कर इंटरनेट मीडिया उनका नया गणित बना रहा है और नई पीढ़ी उसी के हिसाब से चलने को तत्पर है।
इंटरनेट मीडिया अब बुद्धि, विवेक और भावना सब को नियंत्रित कर रहा है। प्रेम, घृणा, लोभ, उत्साह, विषाद या द्वेष के भाव हों अथवा किसी क्षेत्र में कुशलता अर्जित करने की चुनौती हो, सबकी और सारी राहें इंटरनेट मीडिया से या उसके पास से होकर गुजरती हैं। इंटरनेट मीडिया अब संदेश का माध्यम मात्र नहीं रहा। वह संदेश का जनक और लक्ष्य भी नहीं रहा, बल्कि इससे आगे बढ़कर उसे रचने वाला भी होने लगा है। हम सब अपने को इंटरनेट मीडिया के अनुरूप ढालने लगे हुए हैं। इसका आकर्षण इतना है कि अपनी छवि बनाने को लेकर हम अतिरिक्त रुचि के साथ इंटरनेट मीडिया के उपयोग के लिए सतर्क, सजग और सक्रिय रहने लगे हैं। इसे देखकर इंटरनेट मीडिया के जरिये व्यक्ति, समुदाय और समाज के मानस को अपने निहित उद्देश्यों की पूर्ति के उद्देश्य से ढालने या 'मैनिपुलेट' करने की व्यापक कोशिशें भी चल पड़ी हैं। ऐसी कोशिशें कई बार वैमनस्य और कलह का कारण बनती हैं।
इंटरनेट मीडिया के लगातार अभ्यास के साथ उपजती आसक्ति तरह-तरह के व्यसन का रूप लेती जा रही है। कई बार व्यसन के चलते बच्चे और बड़े अपना आपा खो देते हैं और वह सब करने लगते हैं जो अस्वाभाविक और हानिकारक भी हो सकता है। दैनिक व्यवहार में इंटरनेट मीडिया की उपस्थिति और संगति जिस तरह बढ़ रही है, वह खतरे का संकेत दे रही है। लोग घंटों ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम और वाट्सएप पर लगे रहते हैं और अपने अन्य कार्यों की उपेक्षा करते हैं। तमाम लोग 'लाइक, शेयर, कमेंट और सब्सक्राइब' करते रहने के दबाव में रहते हैं।
इंटरनेट मीडिया के प्रकोप से जुड़ी घटनाएं हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ी हैं। ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि के जरिये फरेब, धोखा, प्रेम, सहायता और परोपकार हर तरह की सत्य-कथाएं आए दिन चर्चा में आती रहती हैं। पबजी सरीखे तमाम वीडियो गेम ऐसे हैं, जो न केवल सामान्य जीवन में व्यवधान पैदा करते हैं, बल्कि प्राणलेवा भी साबित हो रहे हैं। अक्सर ऐसे व्यसन उन परिवारों में अधिक देखने को मिल रहे हैं, जहां अभिभावक बच्चों के साथ पर्याप्त संवाद नहीं रखते। नए संदर्भ में इंटरनेट मीडिया की तीव्र उपस्थिति के सत्य को स्वीकार करते हुए समाज में अभिभावकों के दायित्व की समझ और चेतना फैलाना बड़ा आवश्यक है। चूंकि इंटरनेट मीडिया दोधारी तलवार जैसा है, इसलिए उसका उपयोग संभाल कर होना चाहिए। पुरानी हिदायत है कि किसी भी चीज की अति खतरनाक होती है। ध्यान रहे कि इंटरनेट मीडिया झूठी खबरों और दुष्प्रचार का जरिया भी बन रहा है।
हमें इंटरनेट मीडिया के उपयोग की विधाओं और सीमाओं पर गौर करते हुए आवश्यक कदम उठाने होंगे। इसे व्यसन मानकर मनोरोग की श्रेणी में डाल देना तो सांस्कृतिक क्षरण का प्रमाण है। हमें इसके समाधान की ओर ध्यान देना होगा। इसके लिए तात्कालिक आर्थिक फायदों को किनारे रखकर कैसी सामग्री उपलब्ध की जा सकती है, इसके लिए उचित कायदे-कानून बनाने होंगे। फिलहाल तो यही लगता है कि डिजिटल होती दुनिया और भी डिजिटल होगी। बाजार, आफिस और स्कूल हर जगह इसका विस्तार हो रहा है। इसके फायदों और सुभीते को देखते हुए यह भी जरूरी होगा कि डिजिटल साक्षरता के साथ डिजिटल के नफे-नुकसान की शिक्षा भी मिले। तभी उसके फायदे मिल सकेंगे। बदल रहे देश-काल में इंटरनेट मीडिया की अनिवार्य भूमिका को देखते हुए उसके सकारात्मक उपयोग की दशाओं और दिशाओं पर सतर्कता के साथ कदम उठाना आवश्यक है।
(लेखक पूर्व प्रोफेसर एवं पूर्व कुलपति हैं)
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