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आदित्य चोपड़ा: इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि भारत में चुनावों से पहले मतदाताओं को मुफ्त सौगात देने के वादे करने की परिपाठी राजनीति में पैदा हो रही है जिसकी वजह से पूरी चुनाव प्रणाली मतदान के एवज में रिश्वत की पेशकश किये जाने के तन्त्र में बदल रही है। यदि इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार किया जाये तो यह 'लोकतन्त्र' में राजा-महाराजाओं या बादशाहों की तरह जनता की दयनीय स्थिति देख कर उसे खैरात बांटने के समकक्ष है। लोकतन्त्र में इस मानसिकता को राजशाही के अन्दाज का तरीका ही कहा जायेगा क्योंकि प्रजातन्त्र में कोई भी सरकार आम जनता की सरकार ही होती है और सरकारी खजाने में जो भी धन जमा होता है वह जनता से वसूले गये शुल्क या टैक्स अथवा राजस्व का ही होता है। राजशाही के विपरीत लोकतन्त्र में जनता के पास ही उसके एक वोट की ताकत के भरोसे सरकार बनाने की चाबी रहती है । जबकि राजतन्त्र में राजा या बादशाह खानदानी विरासत के बूते पर बनता है। उसे चुनने में जनता की कोई भूमिका नहीं होती। उसे हुकूमत से लेकर खजाने तक सब कुछ विरासत के आधार पर ही मिलता है। अतः गद्दी पर बैठ कर वह जनता पर दया भाव दिखाने की गरज से खैरात या सौगात बांटने का काम करता है परन्तु लोकतन्त्र में उल्टा होता है। लोगों द्वारा चुने गये प्रतिनिधि जनता के 'मालिक' नहीं बल्कि 'नौकर' होते हैं और केवल पांच साल के लिए जनता उन्हें देश या प्रदेश की सम्पत्ति या खजाने का रखरखाव (केयर टेकर) करने के लिए चुनती है। चुनावों से पहले ही मुफ्त सौगात देने के वादे करके राजनीतिज्ञ या राजनीतिक दल जनता के खजाने को निजी सम्पत्ति समझ कर मनचाही सौगात बांटने की जो घोषणा करते हैं। वह पूरी तरह लोकतन्त्र को आधिकारिक रिश्वतखोरी के तन्त्र में बदलने का कुत्सित प्रयास ही कहा जा सकता है और इसे हम 'मुफ्त की रेवड़ियां बांटने' के अलावा किसी दूसरी निगाह से नहीं देख सकते। यह प्रवृत्ति कम्युनिस्ट पद्धति के शासकों और एकाधिकारवादी हुक्मरानों की होती है क्योंकि लोकतन्त्र में जो भी अधिकार या सौगात जनता को दी जाती है वह उनके हक या संवैधानिक अधिकार के रूप में स्थायी रूप से दी जाती है। इस सन्दर्भ में भारत के आजादी के वर्ष से कुछ पहले तक नई दिल्ली और मास्को (रूस) में तैनात रहे 'वाशिंगटन पोस्ट' अखबार के विशेष संवाददाता 'लुई फिशर' ने 'गांधी और स्टालिन' पुस्तक लिख कर महात्मा गांधी के सिद्धान्तों पर बनने वाली लोकतान्त्रिक सरकार और मास्को की स्टालिन की कम्युनिस्ट सरकार की तुलना की थी और लिखा था कि गांधीवाद और साम्यवाद में मूल अन्तर यह है कि स्टालिन जो भी सुविधाएं अपनी जनता को देते हैं वे अपनी अनुकम्पा या कृपा करके देते हैं जबकि गांधीवाद कहता है कि जनता को लोकतन्त्र में जो भी सुविधा मिलेगी वह उसके अधिकारों के तौर पर स्थायी रूप में मिलेगी। स्वतन्त्र भारत में ऐसा हुआ भी। (लुई फिशर वही था जिन्होंने महात्मा गांधी के बारे में यह रहस्योद्घाटन किया था कि वह किसी नौजवान से भी ज्यादा तेज चलते हैं) भारत में नागरिकों के मूल अधिकारों से लेकर सम्पत्ति रखने का संवैधानिक अधिकार है जो उसे संसद ने दिया है। शिक्षा के अधिकार से लेकर भोजन का अधिकार भी संसद ने दिया और पूरे देश मे कहीं बसने या रोजगार करने का अधिकार उसे संविधान ने ही दिया। परन्तु स्वतन्त्र भारत में लोगों की गरीबी का लाभ उठाते हुए चुनावों से पहले मुफ्त सौगात देने के वादों की शुरूआत दक्षिण भारत के राज्य तमिलनाडु से हुई और वहां के द्रमुक व अन्ना द्रमुक दलों ने इस बाबत एक-दूसरे से प्रतियोगिता करते हुए सरकारें भी बनाई जबकि हकीकत यह है कि इस राज्य में गरीबी में खास अंतर नहीं आया है। इसका असर केरल को छोड़ कर अन्य दक्षिणी राज्यों में आन्ध्र प्रदेश पर सबसे पहले पड़ा और 1982 में राज्य की राजनीति में फिल्म अभिनेता एनटीआर की तेलगू देशम् पार्टी के उभरने के बाद महिलाओं को मुफ्त धोती देने से लेकर दो रुपये किलो चावल तक देने के वादे किए गये।संपादकीय :अमृत महोत्सव : दर्द अभी जिंदा है-3नूपुर को राहतअमृत महोत्सव : दर्द अभी जिंदा है-2अमृत महोत्सवः दर्द अभी जिंदा हैमध्य प्रदेश में लोकतन्त्र जीतासंसद का मानसून सत्र वास्तव में यह गरीब जनता की गरीबी का मजाक उड़ाने से ज्यादा कुछ नहीं है। लोकतन्त्र में सरकारों की जिम्मेदारी होती है कि वे गरीबों के आर्थिक स्तर को ऊपर उठाने के लिए नीतिगत निर्णय लें न कि उन्हें गरीब ही बनाये रखने और दया के पात्र बनाये रखने के तरीके खोजें। उनके सम्यक विकास के लिए किसी भी राज्य या क्षेत्र का विकास इस तरह किया जाये कि वहां के गरीब लोगों की आमदनी बढे़ जिससे उनकी क्रय क्षमता में वृद्धि हो। इस मामले में हाल ही में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 'बुन्देलखंड एक्सप्रेस-वे' का उद्घाटन किया जाना उल्लेखनीय है। इस राजमार्ग के दिल्ली से सीधा जुड़ जाने की वजह से बुन्देलखंड के समूचे इलाके का शहरीकरण व औद्योगीकरण होने में जबर्दस्त मदद मिलेगी और यहां के लोगों के जीवन में बदलाव आयेगा । लोकतन्त्र ऐसे ही स्थायी उपाय करता है वरना इससे पहले हम बुन्देलखंड के लिए दिये गये 'विशेष पैकेजों' के बारे में ही सुनते रहे हैं। परन्तु मंगलवार को विदेश मन्त्री श्री एस. जयशंकर ने श्रीलंका की स्थिति के बारे में एक सर्वदलीय बैठक बुलाई और चेतावनी दी कि मुफ्त सौगात बांटने की राजनीति का हश्र श्रीलंका जैसा ही होता है क्योंकि वहां की राजपक्षे की सरकार ने चुनाव जीतने के लिए मुफ्त सौगात बांटने को कानूनी रूप दिया और अपने देश की शुल्क प्रणाली को बिना 'आगा- पीछा' सोचे जनता में लोकप्रिय होने की गरज से संशोधन किया जिससे यह पूरा देश ही दिवालिया हो गया। इसलिए वित्तीय फैसले जिम्मेदारी के साथ किये जाने चाहिएं और मुफ्त सौगातों का प्रचलन समाप्त होना चाहिए। भारत में बहुत से ऐसे राज्य है जहां राजनीतिक दलों ने मतदाताओं को मुफ्त सौगात बांटने के वादे किये और सत्ता में भी आ गये मगर खजाने खाली हो गये और यहां की सरकारें भारी कर्जदार हो गईं। लोकतन्त्र में मतदाता राजनीतिक दलों की नीतियों व सिद्धान्तों व भविष्य के कार्यक्रमों को देख कर वोट देते हैं। मगर दक्षिण भारत से शुरू हुई रेवड़ी बांटने की रवायत अब उत्तर भारत में भी शुरू हो गई है। मुफ्त लेपटाप या साइकिल बांटने या अन्य जीवनोपयोगी जरूरी सुविधाएं देने से किसी गरीब परिवार का क्या भला हो सकता है जब तक कि उसकी आय बढ़ाने का स्थायी साधन न खोजा जाये और उसे इनका कानूनी हक न दिया जाये।क्योंकि सरकार बदलने पर इनका जारी रहना जरूरी नहीं होता । इन सुविधाओं को पाने के लिए तो उसे हमेशा गरीब ही बने रहना होगा? संसद का वर्षाकालीन सत्र चल रहा है और ऐसा माना जा रहा है कि इसी सत्र में 'रेवड़ी बांटने' के विरुद्ध मोदी सरकार कोई विधेयक भी ला सकती है। क्योंकि भारत के गांवों में यह कहावत आज भी प्रचिलित है कि 'मुफ्त की रेवड़ी रोज-रोजना बंटी करतीं।'