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सम्पादकीय
मजहबी दुस्साहस की पराकाष्ठा, आबादी के लिहाज से भारत के दूसरे सबसे बड़े समूह में कट्टरता का प्रसार चिंता का विषय
Gulabi Jagat
6 April 2022 2:03 PM GMT

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सनसनीखेज वारदात में मुर्तजा अहमद अब्बासी नामक एक युवक ने गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर पर तैनात सुरक्षा कर्मियों पर धारदार हथियार से हमला बोला
विकास सारस्वत। बीते दिनों एक सनसनीखेज वारदात में मुर्तजा अहमद अब्बासी नामक एक युवक ने गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर पर तैनात सुरक्षा कर्मियों पर धारदार हथियार से हमला बोल दिया। आइआइटी बांबे से केमिकल इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त मुर्तजा गोरखपुर के एक पढ़े-लिखे मुस्लिम परिवार से संबंध रखता है। यह कोई पहला मौका नहीं, जब उच्च शिक्षा प्राप्त कोई मुस्लिम युवक ऐसी गतिविधि में लिप्त पाया गया हो। आइआइटी बांबे का ही एक अन्य छात्र शरजील इमाम और जेएनयू का छात्र उमर खालिद दिल्ली दंगों में बतौर आरोपी जेल में निरुद्ध है। अहमदाबाद दंगों में हाल में जिन 49 आतंकियों को सजा हुई, उनमें डाक्टर, इंजीनियर, कंप्यूटर विशेषज्ञ आदि शामिल थे। इस्लामिक स्टेट यानी आइएस में शामिल होने वाले भारतीयों में कई शिक्षित मुस्लिम थे। इसके अलावा 9/11 समेत अन्य तमाम आतंकी घटनाओं में डाक्टर, इंजीनियर आदि शामिल पाए गए हैं। इससे यह स्पष्ट है कि मजहबी कट्टरता का अशिक्षा से कोई लेना-देना नहीं और इस्लामी मतांधता पढ़े-लिखे वर्ग को भी अनपढ़ लोगों की ही तरह प्रभावित करती है।
आबादी के लिहाज से भारत के दूसरे सबसे बड़े समूह में कट्टरता का इतने बड़े स्तर पर प्रसार अत्यधिक चिंता का विषय है, परंतु इस समस्या पर समग्र चिंतन का अब भी अभाव है। इस मतांधता का संज्ञान करौली जैसे दंगों या गोरखपुर जैसी घटनाओं के होने पर ही लिया जाता है, जबकि यह कट्टरता की वह चरम अवस्था है, जो मजहबी श्रेष्ठता, गैर मुस्लिमों के प्रति असहिष्णुता, खान-पान, पहनावे जैसे मजहबी प्रतीकों के सार्वजनिक जीवन में प्रक्षेपण और देश के कई हिस्सों में जनसंख्या अनुपात बदलने के प्रयासों जैसे तमाम चरणों की पराकाष्ठा है। हिंसा या हिंसा की धमकी द्वारा शासन और लोकनीति को प्रभावित करने के प्रयास भी इसी कड़ी का हिस्सा हैं। इसी क्रम में कुछ दिन पहले तमिलनाडु तौहीद जमात ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के उन जजों को जान से मारने की धमकी दी, जिन्होंने स्कूली कक्षाओं में हिजाब पहनने की जिद को यूनिफार्म की अवहेलना करार दिया था। इस जमात के सदस्यों ने जजों को धनबाद में वाहन द्वारा कुचलकर मारे गए जज की तरह अंजाम भुगतने की चेतावनी दी। एक अन्य ने जजों को धमकाया कि जमात को पता है कि जज अपने परिवारों के साथ छुट्टिïयां मनाने अथवा सुबह टहलने के लिए कहां जाते हैं।
मूर्ति पूजा के विरोध में घोर हिंदू विरोधी रैलियां निकालने वाली तौहीद जमात पहले भी सुर्खियों में रही है। 2020 में श्रीलंका में चर्च पर हुए हमलों में भी तौहीद जमात का हाथ होने की बात सामने आई थी। इस जमात के लोग कश्मीर की आजादी की मांग करते हुए खुले आम धरना दे चुके हैं। हालांकि जमात के चार सदस्यों कोवई रहमतुल्ला, जमाल उस्मानी, हसन बादशाह और हबीबुल्ला को कर्नाटक पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, लेकिन सवाल यह है कि मुख्यधारा का कोई संगठन खुलेआम जजों को जान से मारने की धमकी देने का दुस्साहस कैसे जुटा पाता है? यह दुस्साहस यकायक नहीं बना। लंबे समय तक हाजी याकूब कुरैशी जैसे छोटे-बड़े मुस्लिम नेता चुनिंदा लोगों को इस्लाम विरोधी बता उन्हें मारने के लिए इनाम राशि घोषित करते रहे हैं। मजहबी उन्मादियों ने कमलेश तिवारी से लेकर वी. रामालिंगम तक देश भर में अनेक लोगों की हत्या की है। दरअसल पूरे देश में हिंसा और भय का ऐसा माहौल बनाने की कवायद जारी है, जिसमें मजहबी कट्टरपंथियों की मनमानी चल सके। इस प्रयास का मकसद एक ओर जहां मजहबी कट्टरता के प्रसार और उसे किसी भी प्रकार की चुनौती पर किसी भी प्रकार की बहस को रोकना है, वहीं दूसरी ओर इसका उद्देश्य भारतीय शासकीय व्यवस्था और न्यायपालिका को भयाक्रांत करना भी है। नागरिकता संशोधन कानून पर राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन और बड़े पैमाने पर हुई हिंसा इसी मंतव्य के तहत की गई थी। पूर्व नियोजित दिल्ली दंगे भी इसी प्रयास का हिस्सा थे।
कïट्टरपंथियों द्वारा मुस्लिम समुदाय के भीतर भी भय का माहौल बनाने की कोशिश होती रहती है। इसका ताजा उदाहरण है आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के महासचिव मौलाना खालिद सैफुल्ला रहमानी का यह बयान कि देश के मुसलमान 1857 और 1947 से भी ज्यादा मुश्किल हालात से गुजर रहे हैं। कïट्टरपंथियों की हिंसा केवल मजहबी असहमति से प्रेरित नहीं है, बल्कि उनकी नजर में राजनीतिक मतभिन्नता के लिए भी कोई स्थान नहीं है। इसी कारण अभी हाल में कुशीनगर में भाजपा की जीत का जश्न मना रहे बाबर अली की पड़ोसियों ने पीट-पीटकर निर्मम हत्या कर दी। यही नहीं, कई बार के सांसद और सपा नेता शफीकुर्रहमान बर्क ने बाबर की हत्या का यह कहकर बेशर्मी से बचाव किया कि उसे भाजपा की जीत का जश्न नहीं मनाना चाहिए था, क्योंकि मुसलमान भाजपा को नहीं चाहते। असहिष्णुता की ऐसी ही अन्य घटनाओं में जहां बरेली में भाजपा को वोट देने के लिए एक मुस्लिम महिला को उसके घर वालों ने तीन तलाक की धमकी दी, वहीं रायबरेली में एक और महिला को उसके ही बेटे और बहू ने घर से निकाल दिया। कुछ वर्ष पूर्व कोयंबटूर में फारूक नामक युवक की उसके ही मित्रों ने इसलिए हत्या कर दी थी, क्योंकि वह इस्लाम की अवधारणा से असहमत था। एक्स मुस्लिमों को भी जान से मारने की धमकियों का सिलसिला तेज होता जा रहा है।
यह भारतीय लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती है कि जिस कट्टरता को जनता ने लोकतांत्रिक तरीके से हराया है, उसे शासन-प्रशासन और न्याय व्यवस्था भी उसी कड़ाई के साथ कुचलने का हौसला दिखाए। शासकीय तंत्र को अपने दृढ़ निश्चय के माध्यम से यह भरोसा दिलाना पड़ेगा कि न तो भारत मजहबी हिंसा या सड़कों पर होने वाले उन्मादी प्रदर्शनों के आगे झुकेगा और न ही शाहबानो मामले की तरह अपने विधायी अथवा नीतिगत कदम पीछे खींचेगा। यदि मजहबी कट्टरता पर प्रभावी नियंत्रण पाना है तो हिंसक वारदातों से पहले धमकी, दुराग्रह, भड़काऊ बयानों और घृणात्मक लेखन आदि जैसे मतांधता के हर प्रदर्शन को गंभीरता से लेना होगा।
( लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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