सम्पादकीय

श्रेष्ठता का यह मापदण्ड कि आपको कितने लोग जानते हैं- ख़तरनाक है

Gulabi
9 Jan 2022 3:56 PM GMT
श्रेष्ठता का यह मापदण्ड कि आपको कितने लोग जानते हैं- ख़तरनाक है
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सतही सरोकारों से जुड़ा सृजन सुन्दरता की कौंध तो जगा सकता है, लेकिन
सतही सरोकारों से जुड़ा सृजन सुन्दरता की कौंध तो जगा सकता है, लेकिन मन की परतों पर उसके गाढ़े-गहरे और ठहर गये असर की संभावनाएं क्षीण ही होती हैं. रूपंकर के आधुनिक परिसर में देवीलाल पाटीदार किसी भी हड़बड़ी, होड़ और हल्लाबोल की हदबंदी से हटकर मनन की रुचियों का रूप रचने वाले गंभीर कलाकार हैं. मध्यप्रदेश के पश्चिम निमाड़ के देहाती परिवेश और ज़मीनी संस्कारों ने उनकी शखि़्सयत पर ऐसा असर किया कि उन छापों को आज भी उनकी अभिव्यक्ति के मुहावरों में साफ पढ़ा जा सकता है. लगभग चार दशकों में फैली उनकी सर्जना नई, अनूठी और सार्थक कोशिशों की तस्दीक करती रही है. वे चित्र सिरजते हों या फिर मिट्टी की कोई मूरत वे गढ़ रहे हों, तकनीक और कौशल जो शक्लें अख्तियार करते हैं उन पर देवीलाल के दस्तख़त जैसे ख़ुद बोल पड़ते हैं.
सजावट और निवेश का ज़रिया बनती जा रही आज की कला के आयातित आग्रहों तथा रातों-रात बाज़ी मार लेने के बनियाई समीकरणों से तौबा कर पाटीदार मनुष्यता को पुकार लगाने वाले देशज रचनाकर्म पर भरोसा करते हैं. कला-साहित्य के परिसरों में उनकी आवा-जाही तमाम ख़ानाबंदियों को तौबा कर दोस्ताना रिश्तों की मिसाल है. उनकी अभिरूचियों का आसमान बहुत फैला है. संगीत, नृत्य, नाटक और कविता-कहानी की बैठकों-महफि़लों से लेकर मित्रों के बीच गप्प-गोष्ठियों के हंसी-ठहाकों में समान रूप से उनका मन रमता है. जि़ंदगी के केनवास पर बिखरे इन्हीं रंगों से पाटीदार ने अपनी बिंदास शख्सियत को पेंट किया है. शिखर सम्मान के लिए उनका चयन करते हुए मध्यप्रदेश की सरकार ने निश्चय ही एक जैनुईन कलाकार के पक्ष में मोहर लगायी.
दरअसल देवीलाल एक प्रकृत कलाकार हैं. उनकी बुद्धि, उनका ज्ञान, विचार, अनुभव और प्रतिक्रियाएं कभी भी उनकी कला के लिए बंधनकारी नहीं रहे. प्रकृति ही उनके सृजन का बुनियादी तत्व रहा है जिसकी लय में आबद्ध होकर वे जीवन के अबूझे रहस्यों के कपाट खोलते रहे हैं. पाटीदार अक्सर इस फि़क्र से भरे पेश आते हैं कि मनुष्य का भाव-संसार लगातार सिमट रहा हैं. प्रेम और करुणा के रंग काफूर हो रहे हैं. यह दौर भीषण संकट का है जब प्रकृति नष्ट हो रही है और मनुष्यता के पास भी अपनी असल पहचान को बचाये रखने की नैतिक ताक़त सिमट रही है. ऐसे में कला के पास जाकर ही बेचैनियों के समाधान संभव है.
देवीलाल पाटीदार को मध्य प्रदेश सरकार ने शिखर सम्मान से नवाजा है.
कलाओं के मरकज़ भारत भवन के रूपंकर प्रभाग का जि़म्मा देवीलाल पाटीदार के पास है. देश-देशांतर के मुख्तलिफ़ चित्रकारों, शिल्पियों और दीगर माध्यमों में सक्रिय कलाकारों के काम को वे बरसों से क़रीब से देखते रहे हैं. यही वजह है कि उनकी कलात्मक दृष्टि लगातार व्यापक, गहरी और पैनी भी हुई है. कला की दुनिया में आए बदलावों से वे वाबस्ता हैं. लिहाज़ा पाटीदार से संवाद करना हमेशा ही रोचक होता है. वे बेलाग बोलते हैं. इसलिए उनका कहा हमेशा काबिल-ए-ग़ौर होता है. मिट्टी से उन्हें बेइंतहा प्यार है. उनका मानना है कि भारतीय विचार मूलतः मिट्टी की महिमा से गुंथा है. मिट्टी में निखर आयी उनकी कलाकृतियों पर निगाह जाती है तो आकार और विचार का युग्म वहां दिखाई देता है. चित्रों में भी कमोबेश यही कौंध आकर्षित करती है. पाटीदारी का मन्तव्य और गन्तव्य साफ़ है-
जहां तक मैं समझता हूं वंशगत अनुभव संसार किसी भी कला माध्यम से प्रति ज़्यादा विराट और संवेदनशील होता है. एक कुम्हार के लड़के में मिट्टी और कला की समझ और संवेदना कहीं अधिक गहरी होगी बनिस्बत कला की तालीम प्राप्त मेरे जैसे आर्टिस्ट से. यहां भेद शिक्षा और व्यवहारिक अनुभव का है. जैविक रूप से जानना और 'मेंटल लेवल' पर जानना दोनों अलग है. एक उदाहरण देता हूं- जिस आर्ट कॉलेज से आपने आर्ट सीखा, उसका सिलेबस लंदन आर्ट अकादमी का है. यही आपकी सामर्थ्य और दिशा निर्धारित कर देता है. उनमें चीजों को देखने और करने का नज़रिया ही एक तरह से बदल जाता है. वह आपको जीवन भर 'डॉमिनेट' करता है. मूल को जाने बिना ही आप नए सृजन में जुट जाते हैं, यह ग़लती हमसे हो जाती है. हमारा पारंपरिक काम शैलीगत है और उन शैलियों को जाने बिना ही हमने अपनी निजी शैली बनाने का काम किया.
जैसे संगीत में राग निश्चित है और गायकों या संगीतकारों ने पहले उन्हें समूल रूप में जाना, उनका रियाज़ किया और फिर सृजन किया. या फिर उसी राग को अपने अंदाज़ में गाया. यहां उसकी अपनी टोन, मिठास, मुरकियों, भराव, ठहराव जैसे कई बारीकियों के कारण हर गायक ने एक दूसरे से अलग अपनी जगह बनाई. तो हमने यह भूल की कि सृजन के लिए जो आधुनिक मुहावरा मिला उसके दबाव में काम किया. हालांकि मैं यहां पर यह भी कहना चाहूंगा कि पिछली पीढ़ी पर ये दबाव ज्यादा था. हमारी पीढ़ी जो शिल्प में काम कर रही है उन पर इस दबाव का दबदबा नहीं है बल्कि कहना चाहूंगा कि उनका सृजन सामर्थ्य और साधना अधिक देशज है.
हमारे वरिष्ठ कलाकारों में 'देशज' गुण कम ही देखने में आया है, टार्सो (धड़) या घोड़े जैसे विषयों तथा पोर्ट्रेट-लैन्डस्केप पर वे ज्यादा केन्द्रित रहे हैं. हमारा मूर्तिशिल्प, पत्थर माध्यम का, हेनरी मूल के आसपास ही 20-25 साल घूमता रहा. कुछ तो आज भी वहीं चक्कर लगा रहे हैं. अभी जो मूर्तिकला के श्रेष्ठ कलाकार की तरह स्थापित हैं उन्होंने 'मूर' या उसी की तरह की आयातित ज़मीन पर ही फसल उगायी. हां, अपवाद हर जगह हैं. रामकिंकर वेज जैसे अलग तरह के लोग भी हैं जो मौलिक काम कर रहे हैं. उनका काम चिरपरिचित देशज बिम्ब है.
सिरेमिक माध्यम के रूप में 'कामर्शियल' रहा है. 'आर्ट', में यह बहुत बाद में आया. सिरेमिक में कलात्मक अभिव्यक्ति एक तरह से नयी कोशिश है. मूर्तिकला में पत्थर, मिट्टी, लकड़ी, धातुओं में रंगों का वह समन्वय नहीं जो सिरेमिक में हैं. सिरेमिक माध्यम में तरह-तरह के रंग भी हैं और त्रिआयामी सामर्थ्य भी. इसीलिए मैं समझता हूं कि यहां अभिव्यक्ति की ताक़त चित्र और मूर्ति दोनों मिलाकर काफी बढ़ जाती है. जहां तक माध्यम का प्रश्न है वह अपने में निर्दोष और शुद्ध होता है. कलाकार के सामाजिक सरोकार से ही वह आकार लेता है. मेरे लिए मेरा माध्यम 'टारगेट' नहीं, 'टूल' है. समाज और मनुष्य के परिष्कार के लिए ही कला है ऐसा मैं मानता हूं. जब बदलाव या परिष्कार की भावना मेरे अंतर्मन में होगी तभी तो वह कैनवॅस पर या मूर्ति में आएगी.
आप दरवाज़ों और खिड़की को पढ़ना शुरू करें तो इनका चाहे गृहशास्त्र कह लें या अर्थशास्त्र या समाजशास्त्र, काफी गहरा है. ये दरवाज़े विचार के दरवाज़े हैं, आस्था-अनास्था के दरवाज़े हैं, चोरों के दरवाज़े हैं. पेटिंग्स में तो इन पर काम मैंने किया है पर सिरेमिक में अभी नहीं. जो प्रकृति प्रदत्त भौतिक जगत है और जो मनुष्य निर्मित चीज़ें हैं उनके फ़र्क को ख़ासकर कलाकार के नाते उसके निर्माण, टेक्निक को, अच्छाइयों, बुराइयों को हमें पहचानना चाहिए और अपने कला माध्यम में उसी पहचान को अभिव्यक्त करना चाहिए.
देवीलाल पाटीदार अभी भोपाल के भारत भवन में कार्यरत हैं.
मेरे मानस पर भी प्रभाव तो कई तरह के आते-जाते रहते हैं लेकिन प्रभाकर बर्वे को मैं आइडियल पेंटर मानता हूं. रंगों का, रूपों का अपना आवेग होता है, उन्होंने उनको उससे मुक्त किया है. मेरा मानना है कि प्रिंट मीडिया, मूर्तिकला या सिरेमिक को दर्शाने में सक्षम नहीं है, क्योंकि यह कला त्रिआयामी है. मीडिया से आपको देश-विदेश की जानकारी भी मिल रही है यह अच्छी बात है पर यहीं पर ख़तरा भी है कि मीडिया से हमारा गहरा संबंध हमें 'पॉपुलर कल्चर' के खड्ड में ले जाकर पटक देगा. अब जैसे बिस्मिल्लाह खान शहनाई के पर्याय की तरह जाने जाते थे. वे अपनी साधना और काबिलियत से प्रख्यात शहनाई वादक थे. लेकिन अगर आज कोई फन्ने खां का संबंध रेडियो या दूरदर्शन से हो जाए और लगातार प्रदर्शित हो तो पूरा देश उन्हें श्रेष्ठ मानने लगेगा. श्रेष्ठता का यह मापदंड कि आपको कितने लोग जानते हैं, ख़तरनाक है.
हमें अपनी 'रीजनल आईडेंटिटी' का इतना विस्तार करना होगा कि वो यूनिवर्सल हो जाए. जैसे गैलरी में चित्र के नीचे नाम का भारतीय होना यह सिद्ध नहीं करता कि वह भारतीय चित्र है. जब तक कि उसका विषय सौन्दर्य के भारतीय मानदण्ड व चित्र की अंकन पद्धति देशज न हो.
सृजनकर्म हो या औद्योगिकीकरण, आप जितने बड़े बाज़ार में जाएंगे वो एकरूपता पैदा करेगा, वो आपकी क्षेत्रीयता को, पहचान को या तो खत्म करेगा या सस्ता और बिकाऊ बना देगा. यह सब चिंता जनक है. भारतीय शिल्प, स्थापत्य के अंग की तरह यहां तक आया है और समकालीन शिल्प ने स्थापत्य के अंग की तरह नहीं, वरन् उसमें अलंकरण की तरह जगह बनायी है. अब वह सजावटी हुआ है घर-घर की टेबिल पर और ड्राइंग-रूम में सज रहा है. इस सजावटीपन के लिए जो समझौते हो रहे हैं वे कला के लिए घातक है. आज स्थापत्य शिल्पकला से पृथक होने के कारण ही कंक्रीट का जंगल बढ़ता जा रहा है और मनुष्य की कला उसके सामने बौनी हो रही है. कलाकारों को इसे समझना चाहिए. हम कांक्रीट के जंगल को भले ही न तोड़ पाएं लेकिन शिल्प को उसके बीच उचित स्थान दिलाना होगा.
कभी-कभी मुझे लगता है कि कला में अमूर्तता भी एक तरह की 'कमोडिटी' सुविधा है. एलीट और नवधनाढ्य वर्ग हमारे समाज की विसंगतियों व उसकी समस्याओं से आंख चुराता है, वह किसी भी चीज़ को 'फेस' करना नहीं चाहता इसलिए वो अपने कोठियों और बंगलों और फ्लैट में ऐसी चीज़ों सजाता है जो प्रश्न के रूप में उसे परेशान न करती हों. कलाकार के लिए भी विषय और रूप चुनने के लिए असंख्य मूर्त चीज़ें हैं. इस उलझन से बचने के लिए वह अमूर्ति चुन लेता है तो वह सब चीज़ों से बाहर हो गया. बचने का रास्ता मिल गया. मुझे लगता है यह एप्रोच ही निगेटिव है. कोई भी आकार किसी चीज़ को 'रिप्रजेन्ट' करता है, उसकी अपनी जाति है. अमूर्त उसके अस्तित्व के खिलाफ है. वह किसी भी चीज़ को 'रिप्रजेन्ट' नहीं करता. मैं भले ही किसी पार्टी विशेष से नहीं जुड़ा हूं लेकिन मेरा और मेरी कला का गहरा सरोकार मनुष्य से है, उसके सुख-दुख से है.



(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ब्लॉगर के बारे में
विनय उपाध्याय
विनय उपाध्याय कला समीक्षक, मीडियाकर्मी एवं उद्घोषक

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