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- चारे का संकट और आवारा...
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तभी हम चारे की समस्या से निजात पा सकते हैं।
आजकल पशु चारे का अकाल और लंपी नामक चर्म रोग ने लगभग 15 राज्यों के 20 लाख पशुओं को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। इस बीमारी से करीब एक लाख पशुओं की मृत्यु हो चुकी है। दूसरी ओर कई राज्यों के पशुपालक मवेशियों के लिए चारे की समस्या से जूझ रहे हैं। ज्वार, सोयाबीन और बाजरा जैसी हरे चारे की समस्या कई कारणों से पैदा हुई है।
इस वर्ष जो चारे की कमी आ खड़ी हुई है, उसका तात्कालिक कारण देर से अत्यधिक बारिश है। राजस्थान में विलंब से हुई अत्यधिक बारिश के चलते बाजरे की फसल नष्ट हो गई, जो हरे चारे की मुख्य फसल होती है। धान और गेहूं जैसी फसलों की कटाई पूरे देश में कंबाइन मशीन से होने के कारण फसलों के डंठलों को भूसे या पुआल में बदलने का काम खत्म हो गया है।
खेतों में फसलों के जो अवशेष बच जाते हैं, किसान उसमें आग लगा देते हैं, जिससे वायु प्रदूषण की एक अलग समस्या खड़ी हो जाती है। जो भूसा पहले दो सौ रुपये में एक मन (40 किलोग्राम) मिल जाता था, अब उसकी कीमत 700 से आठ सौ रुपये हो चुकी है। पशु चारे की कीमतों में वृद्धि के चलते ही दूध की कीमतों में बढ़ोतरी हो रही है। राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और पंजाब में पशुओं की संख्या अधिक है।
वहां चारे की उपलब्धता संतोषजनक नहीं है। इंडियन ग्रासलैंड ऐंड फोल्डर रिसर्च इंस्टीट्यूट, झांसी के निदेशक अमरेश चंद्र के अनुसार, हरे चारे की मात्रा में 12 से 15 प्रतिशत और सूखे चारे की उपलब्धता में 25 से 26 प्रतिशत की कमी आ चुकी है। इसके अलावा छोटे होते खेतों के कारण किसानों के पास पर्याप्त चारा उगाने के लिए जमीनें बची नहीं हैं। केवल चार प्रतिशत खेती योग्य जमीनों पर चारे की खेती होती है, जबकि जरूरत लगभग 15 प्रतिशत पर खेती करने की है।
पहले पशुओं को परती जमींनों, तालाबों और नदियों किनारे चराया जाता था। अब न तालाब बचे हैं, न नदी तटों का फैलाव। कई राज्यों में पशु चराने का काम लगभग खत्म हो गया है। चकबंदी के समय गांवों में चरागाहों का निर्माण किया जा सकता था, मगर वह हुआ नहीं। दो साल पहले ही पशुचारे के संभावित संकट का अनुमान कर नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड ने सौ के करीब फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन को पंजीकृत करने की तैयारी की थी।
2019-2020 के बजट में भी 10 हजार फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन स्थापित करने का प्रस्ताव रखा गया था। सदन में कई बार चर्चा के बावजूद इस दिशा में कोई ठोस काम नहीं हो पाया। आशंका है कि 2025 तक हरे और सूखे चारे की उपलब्धता में लगभग 38 और 40 प्रतिशत की कमी हो जाएगी और दाना मिश्रित चारे में 38 प्रतिशत की कमी आएगी। जाहिर है, यह स्थिति पशुधन के लिए ठीक नहीं होगी।
कुछ राज्यों की गलत नीतियों के कारण भी पशुपालन बाधित हुआ है। पशुओं की बिक्री और उनके परिवहन पर रोक के कारण अनुपयोगी पशुओं को किसानों ने आवारा छोड़ना शुरू कर दिया। खेतों में आवारा घूमते और चरते पशुओं के कारण खेती के नुकसान की समस्या अलग से खड़ी हो गई। पहले पशुओं से किसानों का जो आत्मीय रिश्ता था, वह दुश्मनी में बदल गया। नतीजतन किसानों ने उन्हें गांव से खदेड़ना शुरू कर दिया।
इससे आवारा जानवर गांवों को छोड़कर हाई-वे की तरफ रुख करने लगे। इससे पशु और मनुष्य, दोनों के लिए समस्याएं पैदा हुईं। सड़क दुर्घटनाएं बढ़ गईं। आज पशुधन की कमी के कारण चमड़ा उद्योग खतरे में पड़ गया है। हड्डियों से तैयार खाद की किल्लत बढ़ गई है। गोबर की कमी से देशी खाद की अनुपलब्धता ने किसानों के सामने नई मुसीबत खड़ी कर दी है। गोबर की खाद के बिना खेत बंजर बनते जा रहे हैं।
बिना गोबर के कंपोस्ट खाद नहीं बनाया जा सकता। और रासायनिक उर्वरकों के बल पर खेती आगे लाभदायक नहीं रहने वाली है। हमें पशुधन को बचाने के लिए उनकी खरीद-बिक्री को नियंत्रण मुक्त करना होगा। उनके लिए चरागाह की व्यवस्था करनी होगी। साथ ही बड़े-बड़े जोतदारों की जमीनें अधिग्रहित कर चरागाहों का निर्माण करना होगा। तभी हम चारे की समस्या से निजात पा सकते हैं।
सोर्स: अमर उजाला
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