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- कवि की सृजनात्मक...
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कल फुर्सत में था सो मुहल्ले के नामचीन कवि के पास जा पहुंचा। सोचा, अपना रोना बहुत सुन लिया। चलो, आज जनता के लिए रोने वाले का रोना सुन लिया जाए। कवि के पास गया तो कवि कायदे से उदास। उसके चेहरे पर पीड़ाएं ही पीड़ाएं। उसके चेहरे के दाएं पीड़ाएं। उसके चेहरे के बाएं पीड़ाएं। उसके चेहरे के ऊपर पीड़ाएं, उसके चेहरे के नीचे पीड़ाएं। उसकी पीड़ाएं देख मैंने उसे विवाहित होने के बाद भी प्रेमिका की तरह गले लगाते पूछा, ‘हे कवि कुलश्रेष्ठ! समाज की पीड़ाओं को इतनी गंभीरता से फील करने की जरूरत नहीं। जिसकी पीड़ाएं हैं, वह फील करे। जनता तो पैदा ही पीड़ाएं भोगने के लिए होती है। उसे जो स्वर्ग भी दे दिया जाए तो वह वहां भी महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार चिल्लाती रहेगी। चिल्लाना जनता का परम धर्म है। वह चिल्लाएगी नहीं तो देश शोर विहीन हो जाएगा।’ ‘मित्र! ये जन पीड़ाएं नहीं। लेखनीय पीड़ाएं हैं।’ ‘लेखनीय पीड़ाएं बोले तो?’ इस पीड़ा से पहली बार वास्ता पड़ा था, सो मुंह लटकाए पूछ बैठा। ‘असल में तुम क्या जानों लेखनीय पीड़ाएं राजस्व विभाग के बाबू! लेखनीय पीड़ाएं जनता की पीड़ाओं से बड़ी होती हैं।’ ‘कितनी बड़ी? इतनी बड़ी? कि इतनी बड़ी?’ मैंने अपने दोनों हाथ फैलाने शुरू किए तो वे बोलेए, ‘नहीं, आसमान से भी बड़ीं!’ ‘मतलब?’ ‘पहले जनता की अधकचरा छपाऊ पीड़ा फील करते कुछ लिखने की सोचो! लिखने की सोचने भर से ही मत पूछो कितनी पीड़ा होती है।’ ‘फिर?’ ‘फिर उसे बार बार लिखो, जब तक वह छपने लायक नहीं हो जाती। लिखने के बाद उसे कहां भेजा जाए, यह तय करो।
कई बार तो अपने मित्र संपादकों को प्रकाशित होने के लिए रचना भेजो तो वे भी प्रकाशित नहीं करते। फिर महीनों रचना की स्वीकृति का इंतजार करते रहो। इन दिनों मत पूछो दिल का क्या हो जाता है! मत पूछो इस बीच किन किन रचना प्रकाशन की पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है।’ ‘फिर?’ ‘फिर रचना छप ही जाए तो महीनों द्वार पर डाकिए के आने का इंतजार करते रहो।’ ‘फिर?’ ‘फिर क्या? और इंतजार करो। रचना का पारिश्रमिक न आए तो मन मसोस कर दुबके रहो’, कह उन्होंने दर्द भरी लंबी आह भरी तो कंबख्त कुछ देर के लिए मेरी सांसों की हवा भी खींच ले गए। ‘तो संपादक से बात क्यों नहीं करते कि रचना का मेहनताना भेजा जाए। लेखक को मेहनत नहीं मिलेगी तो वह खाएगा क्या? यहां तो लोग बिन मेहनत किए ही देश को डकारे जा रहे हैं।’ मैं पता नहीं क्यों देश भक्त हो गया। जबकि मेरे जैसे को देश भक्त होने का कोई अधिकार नहीं। ‘डर लगता है। संपादक को गुस्सा आ गया तो? इसलिए लंबे इंतजार के बाद भी जब पारिश्रमिक नहीं आता तो अगली रचना भेज दो पारिश्रमिक की आस में। जिस तरह पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं लिया जा सकता, उसी तरह लेखन प्रकाशन के कुएं में रहकर संपादक से बैर नहीं किया जा सकता।’ ‘फिर?’ ‘फिर क्या! अब तो पत्रिकाएं भी उन्हीं को मुफ्त में छापती हैं जिन लेखकों ने उसकी सदस्यता ली होती है।
रचना छप ही जाए तो अपने पैसे से मैगजीन खरीद दोस्तों को व्हाट्सएप पर पढऩे के लिए भेजो। यह जानते हुए भी वे पढ़ेंगे नहीं। फिर उनसे पूछते रहो कि उन्होंने अमुक की रचना पढ़ी? कैसी लगी?’ ‘मतलब?’ ‘कोई सच्ची को रचना पढ़ ले तो फिर डूब जाओ अगली रचना लिखने को उदासियों के सागर में’, कह वे इतने उदास हुए किए इतने उदास हुए कि…बॉय गॉड से! जिंदगी में किस्म किस्म के उदासिए पीडि़त तो मैंने बहुत देखे थे, पर इतना पीडि़त मैंने पहली बार नजदीक से कोई देखा था। हे छापने पढऩे वालो! हो सके तो इस कवि को उसकी पीड़ाओं से मुक्ति दो प्लीज! कल को जो कवि को कुछ हो गया तो…।
अशोक गौतम
By: divyahimachal
Rani Sahu
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