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मोदी सरकार के पिछले सात सालों में वैसा ही बना हुआ है
राजदीप सरदेसाई एक रोचक सवाल है : क्या भ्रष्टाचार कम हुआ है, बढ़ा है या मोदी सरकार के पिछले सात सालों में वैसा ही बना हुआ है? खैर, अब यह कर्नाटक के कॉन्ट्रैक्टर्स को कहें, जहां राज्य के कॉन्ट्रैक्टर संघ ने प्रधानमंत्री कार्यालय को पिछले महीने पत्र लिखकर दावा किया कि बेंगलुरु में कोई भी लोक निर्माण से जुड़ा काम शुरू करने से पहले उन्हें 25-30 प्रतिशत स्थानीय जनप्रतिनिधियों को देना पड़ता है और आगे बिल पास करवाने के लिए 5 फीसदी अलग से देना होता है। या गोवा का मामला लें।
जहां बीजेपी विधायक ने अपने ही लोक निर्माण विभाग के मंत्री पर हर विभागीय पोस्टिंग के लिए 25-30 लाख रुपए की रिश्वत लेने का आरोप लगाया है। या महाराष्ट्र के पुलिस अधिकारियों से कहें, जहां पूर्व पुलिस अधिकारी ने राज्य के पूर्व गृह मंत्री पर 100 करोड़ रुपए की वसूली का आरोप लगाया था। कर्नाटक और गोवा बीजेपी शासित राज्य हैं। महाराष्ट्र में विपक्ष का गठबंधन है। साक्ष्य बताते हैं कि संस्थागत भ्रष्टाचार उसी स्तर पर बना हुआ है।
ऐसे में सवाल उठता है कि पीएम की भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की प्रतिबद्धता का क्या हुआ? इस साल जनवरी में भारत ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के वार्षिक भ्रष्टाचार सूचकांक में छह पायदान नीचे फिसलकर 86वें क्रम पर आ गया, हालांकि 2013 के 94वें पायदान से स्थिति थोड़ी बेहतर है। वैश्विक रिश्वत जोखिम सूचकांक में भारत बड़ी छलांग लगाते हुए 2014 में 185वें क्रम से 2020 में 77वें क्रम पर आ गया। देश में व्यापार करने वाले विदेशी निवेशक इस सूची को तवज्जो देते हैं।
चाहे टैक्स कलेक्शन का मामला या हो लोकसेवा से जुड़े काम, डिजिटलीकरण और कई विभागीय प्रक्रियाओं में तकनीक के प्रयोग ने विवेकाधीन शक्तियों के दुरुपयोग की गुंजाइश कम की है। सरकार का दावा है कि यूपीए सरकार की तरह इस सरकार में कोई बड़ा भ्रष्टाचार घोटाला नहीं है। मंत्रिस्तर पर छंटनी करके यह तर्क दिया गया कि यूपीए गठबंधन सरकार में कमजोर मंत्रिस्तरीय जवाबदेही को फिर से बहाल किया गया है। पर बड़े स्तर का भ्रष्टाचार उजागर करना अक्सर मजबूत निगरानी संस्थाओं या स्वतंत्र मीडिया संस्थाओं के बलबूते ही होता है।
पर कुछ सालों में संस्थागत पतन होने के संकेत दिखते हैं। अब आरटीआई के जवाब आते भी हैं, तो कुछेक के ही संतोषपूर्ण जवाब मिल पाते हैं। नियंत्रक और महालेखापरीक्षक रिपोर्ट (सीएजी) अब गर्म बहसों का मुद्दा नहीं रहे। सब हो-हल्ला के बाद भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल औचित्यहीन बना हुआ है। भारी-भरकम और अधिकांश रूप से अनियमित चुनावी फंडिंग प्रणाली के केंद्र में स्थित विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्ड का उदाहरण लें।
प्रमुख चुनावी साल 2019-20 के आंकड़े बताते हैं कि राजनैतिक पार्टियों को मिले 3,249 करोड़ रुपए चंदा में से 2,606 करोड़ रुपए बीजेपी को मिले या कहें कि इलेक्टोरल बॉन्ड का 75 फीसदी पैसा। यहां ज्यादा परेशान करने वाली बात गैर-पारदर्शी सूचना है, जिस तक पहुंच सिर्फ सत्ताधारी दल तक की है। इससे पक्षपात और मिलीभगत का संदेह पैदा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इलेक्टोरल बॉन्ड मामले को टाल दिया है।
हमारे यहां हर साल कोई न कोई चुनाव होते रहते हैं, जहां पैसों की जरूरत पड़ती है। अगर बड़ी पार्टियां फंडिंग के लिए बड़े कॉर्पोरेट्स पर भरोसा करती हैं, तो निचले स्तर पर चुनाव में स्थानीय गठजोड़ से अपनी वित्तीय जरूरतें पूरी करते हैं। आप देखें कि कैसे चुने हुए नेताओं की संपत्ति में चंद सालों में कई गुना का इजाफा हो जाता है।
पुनश्च : पिछले महीने मैंने मेघालय के मुखर गवर्नर सत्यपाल मलिक का इंटरव्यू किया, जिन्होंने दावा किया कि गोवा गर्वनर के तौर पर उनके पूर्व कार्यकाल में गोवा सरकार भ्रष्टाचार में लिप्त थी। और उन्होंने पीएम को इस बारे में लिखा भी था। मैंने पूछा फिर क्या हुआ? उन्होंने कहा, 'मुझे हटाकर शिलॉन्ग भेज दिया गया।'
Rani Sahu
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