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कृषि कानूनों को लेकर सरकार और किसान संगठनों के बीच होने वाली बातचीत पर सभी और खासकर दिल्ली-एनसीआर के लोगों की निगाहें होना स्वाभाविक है, क्योंकि वही किसान आंदोलन से सबसे अधिक त्रस्त हैं। लंबे गतिरोध के बाद यह बातचीत किसी नतीजे पर पहुंचनी ही चाहिए, लेकिन यह उम्मीद तब पूरी होगी जब किसान संगठन अपनी यह जिद छोड़ेंगे कि सरकार कृषि कानूनों को वापस ले। किसान संगठनों को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि कोई भी आंदोलन तभी सफल होता है, जब उसे जनता की सहानुभूति हासिल होती है और जिसकी मांगें ताíकक होती हैं। जब सरकार कृषि कानूनों में संशोधन को तैयार है तब फिर उन्हें वापस लेने की जिद केंद्रीय सत्ता को नीचा दिखाने वाली हरकत ही अधिक जान पड़ती है। इस जिद के आगे झुकने से सरकार के साथ-साथ संसद की भी हेठी होगी। इसके अलावा संवैधानिक और लोकतांत्रिक परंपराओं की भी अवमानना होगी। नि:संदेह लोकतंत्र में जनता की भावनाओं का सम्मान होना चाहिए, लेकिन इस बहाने किसी समूह-संगठन को मनमानी करने का अधिकार नहीं। देश में सैकड़ों किसान संगठन हैं और उनमें से तमाम कृषि कानूनों में कोई खामी नहीं देख रहे हैं। ऐसे में महज 40 किसान संगठनों का सड़क पर उतरकर यह दावा करने का कोई मतलब नहीं कि वे देश भर के किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी मांग समस्त किसानों की चाहत है।