सम्पादकीय

कृषि कानूनों को लेकर सरकार और किसान संगठनों के बीच वार्ता के एक और दौर पर लगीं देश की निगाहें

Neha Dani
30 Dec 2020 1:59 AM GMT
कृषि कानूनों को लेकर सरकार और किसान संगठनों के बीच वार्ता के एक और दौर पर लगीं देश की निगाहें
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कृषि कानूनों को लेकर सरकार और किसान संगठनों के बीच होने वाली बातचीत पर सभी और खासकर दिल्ली-एनसीआर |

कृषि कानूनों को लेकर सरकार और किसान संगठनों के बीच होने वाली बातचीत पर सभी और खासकर दिल्ली-एनसीआर के लोगों की निगाहें होना स्वाभाविक है, क्योंकि वही किसान आंदोलन से सबसे अधिक त्रस्त हैं। लंबे गतिरोध के बाद यह बातचीत किसी नतीजे पर पहुंचनी ही चाहिए, लेकिन यह उम्मीद तब पूरी होगी जब किसान संगठन अपनी यह जिद छोड़ेंगे कि सरकार कृषि कानूनों को वापस ले। किसान संगठनों को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि कोई भी आंदोलन तभी सफल होता है, जब उसे जनता की सहानुभूति हासिल होती है और जिसकी मांगें ताíकक होती हैं। जब सरकार कृषि कानूनों में संशोधन को तैयार है तब फिर उन्हें वापस लेने की जिद केंद्रीय सत्ता को नीचा दिखाने वाली हरकत ही अधिक जान पड़ती है। इस जिद के आगे झुकने से सरकार के साथ-साथ संसद की भी हेठी होगी। इसके अलावा संवैधानिक और लोकतांत्रिक परंपराओं की भी अवमानना होगी। नि:संदेह लोकतंत्र में जनता की भावनाओं का सम्मान होना चाहिए, लेकिन इस बहाने किसी समूह-संगठन को मनमानी करने का अधिकार नहीं। देश में सैकड़ों किसान संगठन हैं और उनमें से तमाम कृषि कानूनों में कोई खामी नहीं देख रहे हैं। ऐसे में महज 40 किसान संगठनों का सड़क पर उतरकर यह दावा करने का कोई मतलब नहीं कि वे देश भर के किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी मांग समस्त किसानों की चाहत है।

कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग इसलिए किसी भी सूरत में नहीं मानी जानी चाहिए, क्योंकि इससे एक किस्म की अराजकता को ही बल मिलेगा। कल को कोई अन्य समूह-संगठन दस-बीस हजार लोगों को दिल्ली लाकर इसी तरह किसी अन्य कानून को वापस लेने की जिद पकड़ सकता है। क्या किसान नेता यही चाहते हैं? यदि नहीं तो फिर उन्हें सरकार के साथ बातचीत में सकारात्मक और ताíकक रवैया अपनाना चाहिए। यह ठीक नहीं कि वे यह कहकर आम किसानों को गुमराह करने में लगे हुए हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था खत्म की जा रही है और अनुबंध खेती से किसान अपनी जमीनों से हाथ धो बैठेंगे। यह किसान आंदोलन किस तरह छल-कपट के सहारे भी चल रहा है, इसका पता उन अंबानी-अदाणी के खिलाफ शरारत भरी अफवाहें फैलाने से चल रहा है, जो सीधे किसानों से अनाज खरीदते ही नहीं। पंजाब में जियो के मोबाइल टावरों पर हमले खुली अराजकता के अलावा और कुछ नहीं। इस तरह की घटनाएं किसान संगठनों को ही नहीं, आम किसानों को भी बदनाम करने वाली हैं। वास्तव में किसानों को अपने उन नेताओं से सावधान रहने की जरूरत है, जो उनकी आड़ लेकर उनके हितों ही नहीं, उनकी छवि से भी खेल रहे हैं।


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