- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- नई तरह की राजनीति के...

x
सोर्स - Jagran
डा. एके वर्मा। कई राज्यों में विधानसभा उपचुनाव होने जा रहे हैं। इसके बाद दिसंबर में गुजरात और हिमाचल के विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। कई राज्यों में पंचायत और नगर निकाय के चुनाव होने हैं। इस प्रकार देखें तो भारतीय राजनीति चुनावमय हो गई है। क्या चुनाव ही अभीष्ट हैं? क्या नेताओं, दलों और जनता के पास और कोई काम नहीं? क्या दलों का उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना मात्र है? लोकतंत्र और राजनीति का अति-चुनावीकरण वर्जित है। प्रख्यात विधिवेत्ता नानी पालकीवाला के अनुसार, 'चुनाव लोकतंत्र की धड़कन हैं। यदि वे बहुत जल्दी-जल्दी होते हैं या बहुत देर में होते हैं, तो दोनों ही खतरे का संकेत हैं।'
हमारे लोकतंत्र में हर समय चुनाव होना खतरे की घंटी तो नहीं? जब लोकतंत्र सत्तामूलक और चुनाव केंद्रित है, तब नेताओं का ध्यान शासन में कैसे लगेगा? वे हमेशा चुनाव में व्यस्त रहते हैं। जिन दलों के पास अपना कैडर नहीं, उनकी समस्या और जटिल है। वे चुनाव जीतने के लिए विचारधारा या मुद्दों के बजाय धनबल, बाहुबल, जातिवाद या सांप्रदायिकता का सहारा लेते हैं। वे मतदाताओं को ऐसे-ऐसे प्रलोभन देते हैं, जो चुनावों की स्वतंत्रता, शुचिता और 'स्पर्धा में समानता' के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं। यह समस्या पुरानी है।
2006 में तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में द्रमुक ने अपने घोषणापत्र में रंगीन टीवी देखने का वादा किया। सरकार बनने के बाद द्रमुक ने इस वादे को पूरा करने के लिए सरकारी खजाने से 750 करोड़ रुपये आवंटित किए। 2011 के विधानसभा चुनाव में द्रमुक ने ऐसे वादों को पुनः दोहराया।
जवाब में प्रतिद्वंद्वी अन्नाद्रमुक ने उससे भी एक कदम आगे बढ़ते हुए घोषणापत्र में सभी मतदाताओं को 'मिक्सर-ग्राइंडर, बिजली के पंखे, लैपटाप, चार ग्राम सोने की वस्तु, विवाह हेतु वधू पक्ष को 50 हजार रु, 20 किलो चावल, गाय और भेड़ देने का वादा किया। अन्नाद्रमुक की भारी जीत हुई। बाद में उसके इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई।
सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में 5 जुलाई, 2013 को सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह आदर्श आचार संहिता में ऐसा प्रविधान करे, जिससे राजनीतिक दल अनर्गल लोकलुभावन घोषणाएं न करें। न्यायालय ने कानून बना कर राजनीतिक दलों पर नियंत्रण का भी सुझाव दिया। आयोग ने सभी दलों से परामर्श कर 2013, 2014, 2015 और 2019 में कुछ कदम उठाए, किंतु वे अपर्याप्त रहे। बीते दिनों आयोग ने इस संबंध में नए प्रस्तावों पर सभी दलों से 19 अक्टूबर तक राय मांगी है।
लगता है आम आदमी पार्टी ने 'तमिलनाडु माडल' अपना लिया है। मुफ्तखोरी वाली योजनाओं के दम पर पहले दिल्ली और फिर पंजाब में अपनी सरकार बनाई। मुफ्तखोरी की राजनीति उसी तरह घातक है, जैसे परीक्षा में नकल करके पास होना। नकल से अंततः छात्र का ही नुकसान होता है। मुफ्तखोरी की राजनीति से जनता, अर्थव्यवस्था और राजनीतिक दलों का भी नुकसान होता है। सत्ता लोभ में वे नहीं देखते कि संसाधन कहां से आएंगे? क्या जनता उसका बोझ सह पाएगी?
जैसे-जैसे नेता और दल जनता को मुफ्तखोरी की लत लगाएंगे, वैसे-वैसे मुफ्तखोरी की उसकी भूख बढ़ती जाएगी। फिर कोई मेहनत क्यों करेगा? जो समाज मेहनतकश नहीं, वह आगे कैसे बढ़ेगा? ऐसे में दलों को जनता में परिश्रम-पुरुषार्थ के संस्कार प्रतिरोपित करने चाहिए। आम आदमी तो बहुत स्वाभिमानी है। उसे मुफ्तखोरी का आदी मत बनाइए। पार्टियां शासन करें, विकास करें, लोक कल्याण करें और गरीबों के प्रति संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह करें, लेकिन जनता के आत्मसम्मान पर आघात कर उसे समाप्त न करें।
आज राजनीतिक दलों के पास एजेंडे का अकाल है। उनका ध्यान सत्ता प्राप्त करने या सत्तारूढ़ दल को गिराने पर है। वे नहीं बताते कि सत्ता मिलने पर उनके पास विकास की क्या वैकल्पिक योजना होगी? उनके पास कितने योग्य लोग हैं? अधिकांश दलों में आपराधिक किस्म के लोगों की आवक हो रही है, जो केवल अपना हित चाहते हैं। उन्हें न अपने कार्य का ज्ञान है, न ही उसमें कोई रुचि। वे विभागीय फैसलों के दूरगामी परिणामों का आकलन करने में भी समर्थ नहीं। अधिकारियों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनका काम करते रहें, चाहे वह नियम विरुद्ध क्यों न हो। नौकरशाह भी जानते हैं कि वर्तमान राजनीतिक संस्कृति में उनके पास कोई विकल्प नहीं है।
क्या नेताओं को आभास भी है कि 21वीं सदी में भारत के बढ़ते वैश्विक प्रभाव के चलते उनको कैसी गंभीरता एवं विशेषज्ञता की जरूरत है? क्या कोई भी राजनीतिक दल साफ-सुथरे, शिक्षित और देश के प्रति समर्पित युवाओं को राजनीति में लाने का गंभीर प्रयास कर रहा है? देश की राजनीति में छात्र संघों का प्रयोग पूर्णतः असफल रहा। उससे इक्का-दुक्का युवा नेता भले निकला हो, पर सामान्यतः उसे गुंडे-बदमाशों ने 'हाईजैक' कर लिया, जिन्हें दलों ने अपना लिया। देश में योग्य युवाओं का जो अक्षय भंडार है, उसे तो किसी पार्टी ने छुआ ही नहीं। क्या किसी पार्टी को यह नहीं सोचना चाहिए कि आगामी 50 वर्षों में स्थानीय, प्रांतीय और राष्ट्रीय राजनीतिक नेतृत्व का स्वरूप कैसा हो?
आजादी के अमृतकाल में हमें नहीं भूलना चाहिए कि जिस लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का हम आनंद उठा रहे हैं, उसके लिए हमारे सर्वश्रेष्ठ विद्वानों और देशवासियों ने अपना सर्वस्व न्योछावर किया था। हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि आरोप-प्रत्यारोप से बाहर निकल राजनीति को स्वच्छ बनाएं। यह तभी संभव होगा, जब हम राजनीति का महत्व समझेंगे। राजनीति समाज में संघर्षों के समाधान की कुंजी है।
वह वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास का साधन है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल में कहा कि जनता ईमानदारी से और बिना भेदभाव के जनहित में लिए गए कठोर निर्णयों को भी पसंद करती है, लेकिन आज हम स्वार्थवश लोकलुभावन निर्णय ले रहें हैं और उसे लोकतंत्र के किसी सिद्धांत के 'रैपर' में लपेट कर जनता को पेश कर दे रहे हैं। इसे बदलना होगा। इसके लिए हमें नई राजनीति और नए-राजनीतिज्ञों का सृजन करना होगा।

Rani Sahu
Next Story