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- खटिया तो मानिनी है
अरुणेंद्र नाथ वर्मा: चुनाव का माहौल है। दिन का न्यूनतम तापक्रम भले चार दशमलव पांच डिग्री हो, पर राजनीतिक भाषणों का पारा पैंतालीस डिग्री सेल्सियस छू रहा है। राजनीतिक बतरस चुनावी तू तू-मैं मैं में बदल चुका है। हर नेता का एक ही उद्घोष है- उसकी पार्टी सारे विरोधी दलों की खटिया खड़ी कर देगी। ऐसे बड़बोलों से और कोई आहत हो न हो, लगता है सदा सबकी सेवा को तत्पर बेचारी खटिया स्वयं सबसे ज्यादा आहत होगी।
वैसे भी शहरों में अब स्वयं खटिया की ही खटिया खड़ी हो चुकी है। मगर खटिया की सच्चाई कुछ और है। महानगरों के वातानुकूलित कमरों से लेकर छोटे, मंझोले शहरों और कस्बों के व्यक्तित्वविहीन कमरों तक, सभी में नींद के आगोश में आने के लिए अब लकड़ी के 'डबल' या 'सिंगल बेड' का ही सहारा लिया जाता है। साल भर बिछे रहने वाले डनलप के गद्दों पर करवटें बदलने वाले क्या समझेंगे, गर्मियों में पानी के छिड़काव की सोंधी सुगंध के बीच खटिया पर सोने के सुख को। लगातार इस्तेमाल से ढीली हो चुकी खटिया भी हाड़तोड़ परिश्रम करके आए शरणागत को उतनी ही मीठी नींद देती है, जितनी किसी क्लांत कृशकाय मजदूरनी मां के निचुड़ चुके आंचल में उसका शिशु ढूंढ़ लेता है।
बात सिर्फ सोने की नहीं है। खटिया उनके काम की नहीं, जिनके 'बेड' पर बैठ कर खा नहीं सकते, जिनके ड्राइंग रूम का सोफा खाने की मेज से बिचकता है, और जिनके खाने की मेज वाली कुर्सियों की कंप्यूटर वाली मेज से नहीं बनती। खटिया को सबकी संगत पसंद है। वह हरफन मौला है, हर हाल मे खुश रहती है। कड़ी धूप हो तो घर के अंदर रखिए, गुलाबी ठंड मे धूप सेंकनी हो तो बाहर ले जाइए। गली के किनारे और चबूतरे के ऊपर, वह हर जगह साथ निभाएगी।
राजमार्गों के किनारे बने ढाबों की तो शान होती है वह। मीलों ट्रक चला कर थक गया ड्राइवर उस पर लेट कर पीठ सीधी करे या उसकी बाहों मे फंसे तख्ते पर परोसी गई रोटी-दाल खाए, वह अहर्निश सेवा में लगी रहती है। उसका प्रेरणासूत्र है 'कम खर्च बाला नशीं'। उसका दिल कुर्सी के दिल जैसा छोटा नहीं, जो एक वक्त मे सिर्फ एक इंसान को बैठने देती है। वह बड़े दिल वाली है। चार लोग उसके चारों कोनों में बैठ जाएं, चाहे कोई बीच में भी घुस ले, वह भरसक सहयोग करती है। पहले जब उसके शरीर पर केवल मूंज या जूट की रस्सी होती थी, तो पैताने का कुछ हिस्सा ओंचन के नाम पर छोड़ दिया जाता था।
मिजाज ढीला होता, तो ओंचन खींचने से वह फिर से चुस्त-दुरुस्त बन जाती, यद्यपि ओंचन पर किसी का बैठना उसे सुहाता नहीं था। प्लास्टिक या सूत की निवाड़-पट्टियों से बुन कर जब खटिया को चारपाई का संभ्रांत नाम दिया गया, तो पैताने और सिरहाने का वर्गभेद मिट गया और किसी हिस्से पर बैठने का प्रतिबंध नहीं रहा। लेकिन चारपाई और पलंग में जनकल्याण की वह भावना कहां, कि कस्बों और गांवों की महिलाएं पापड़ बड़ी से लेकर धूप मे कपड़े सुखाने तक उनका प्रयोग कर सकें। 'बान' से बुनी खटिया पर रगड़ कर नए आलू का छिलका उतारने का विचार किस पलंग वाली शहरी गृहिणी को आएगा?
इंसान की अकृतज्ञता देखिए कि इतनी उदार और परोपकारी खटिया के नाम को खटिया खड़ी होने, करने वाले मुहावरे में घुसा कर नाकामी से जोड़ दिया। पर खटिया की अपनी भावनाओं को खड़ी होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी हल्की-फुल्की काया से जन्मी गतिशीलता या 'मोबिलिटी' उसे गर्मी की रातों में कमरे से बाहर छत पर ले जाने और बारिश आने पर वापस कमरे में लाने योग्य बनाती है। इसी की बदौलत तो आकस्मिक बरसात से खाट को बचाने के प्रयोजन से बनाया गया छत का छायादार हिस्सा उत्तर भारतीय भवन वास्तुकला की विशिष्टता बन कर बरसाती की संज्ञा पा गया।
बरसाती में अपनी ही सुरक्षा के लिए खड़ी किए जाने का खटिया बुरा क्यों माने। उसकी शराफत का फायदा उठा कर कभी-कभी खटमल जैसे अनचाहे मेहमान उसके पास आकर टिक जाएं तो भी 'अतिथि तुम कब जाओगे' जैसे धृष्ट सवाल पूछना उसकी फितरत में नहीं। उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, लेकिन अपने प्रणेता का खून चूसा जाना उसे सह्य नहीं। तभी खटमलों से निपटने में वह पूरा सहयोग करती है, भले इंसान उसके पोर-पोर में उबलता पानी डाल कर उसे कड़ी धूप में खड़ा कर दे।
मगर वह उस जहरीले सांप की कहानी से भी परिचित है, जिसने डंसना छोड़ दिया, तो लोगों ने उसे मार-मार कर घायल कर दिया। फिर किसी ऋषि ने सुझाया कि जोर जुल्म के प्रतिकार में नाग भले डंसे नहीं, लेकिन उसे फुफकारना जरूर चाहिए। तभी खटिया भी बरसात में खुले में छोड़ दिए जाने के अपमान का प्रतिकार करने के लिए उटंग मुद्रा में एक टांग आक्रामक ढंग से उठा लेती है। लेकिन वह मानिनी है, अभिमानिनी नहीं। चारों चरण छूकर मनाने पर फिर मुस्कुरा देती है।