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रवि शंकर: जलवायु परिवर्तन न सिर्फ आजीविका, पानी की आपूर्ति और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहा है, बल्कि खाद्य सुरक्षा के लिए भी चुनौती खड़ी कर रहा है। ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि क्या भारत जलवायु परिवर्तन के खतरों के बीच आने वाले समय में इतनी बड़ी जनसंख्या का पेट भरने के लिए तैयार है?
पूरी दुनिया का ध्यान इस समय रूस-यूक्रेन युद्ध पर लगा है। इससे पहले दुनिया कोरोना संकट से जूझ रही थी। रूस का हमला और कोरोना महामारी दोनों मौजूदा विश्व व्यवस्था को प्रभावित करने वाली घटनाएं हैं। लेकिन दुनिया के सामने एक और बड़ी समस्या खड़ी है और वह जलवायु परिवर्तन की है। हाल ही में जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (आइपीसीसी) की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन से दुनिया के कितने लोग असुरक्षित हैं। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन कई देशों की खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बन चुका है।
रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि इस सदी के अंत तक धरती का तापमान एक से चार डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो भारत में चावल की पैदावार तीस फीसद तक कम हो जाएगी। मक्का जैसे दूसरे मोटे अनाजों की पैदावार पर भारी असर पड़ेगा और इसमें सत्तर फीसद तक की कमी देखने को मिल सकती है। अगर ऐसा हुआ तो भारत के लिए गंभीर संकट होगा। ऐसे में करोड़ों लोगों के लिए अनाज का बंदोबस्त करना मुश्किल हो जाएगा।
बहरहाल, विभिन्न रिपोर्टों और आंकड़ों के विश्लेषण से यह तथ्य उभर कर आया है कि विश्व में बढ़ते तापमान व जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पादन में कमी दर्ज की जा रही है। फसल चक्र अनियमित और असंतुलित होता जा रहा है। इससे संपूर्ण विश्व के लिए खाद्य सुरक्षा एक अहम चुनौती बनती जा रही है। एक अनुमान के अनुसार अगर 2040 तक तापमान डेढ़ डिग्री तक बढ़ता है तो फसलों की पैदावार पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ेगा। इतना ही नहीं, बढ़ते कार्बन उत्सर्जन से इस शताब्दी में विश्व में झगड़े, भुखमरी, बाढ़ और पलायन जैसी समस्याएं भी तेजी से बढ़ेंगी। इसलिए भविष्य में दुनिया के सभी देशों को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने के लिए सभी विकल्पों पर विचार करना होगा।
गौर करने वाली बात यह है कि विश्व के नेता रियो में, पेरिस में या ग्लासगो में मिलते हैं तो जलवायु परिवर्तन की चिंता करते हैं और उसके बाद सब उसे भुला देते हैं। जिस तरह से अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जलवायु परिवर्तन को असली समस्या नहीं मानते थे, उसी तरह दुनिया की बड़ी आबादी और दुनिया के देशों के नेतृत्व का बड़ा हिस्सा भी इसे गंभीर संकट के रूप में नहीं देख रहा है। जो इसे समस्या मानते हैं वे भी सिर्फ मानने के लिए मान रहे हैं और इसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं।
मालूम हो कि कृषि पद्धतियां पूरी तरह मौसम की परिस्थितियों पर आधारित हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार अनुमान लगाया गया है कि अगर इसी तरह तापमान बढ़ेगा तो दक्षिण एशियाई देशों में कृषि पैदावार में तीस फीसद तक गिरावट आ सकती है। इसलिए विकास की तीव्र आंधी में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संपूर्ण विश्व की अधिकांश आबादी की आजीविका का मुख्य आधार कृषि ही है। साफ है, यदि इसी तरह से हम प्रकृतिक के साथ खिलवाड़ करते रहे हैं तो कृषि पर दिन-प्रतिदिन दबाव बढ़ता जाएगा और अधिकांश हिस्सों में खाद्य संकट खड़ा हो जाएगा। अगर आसी नौबत आई तो 2030 तक दुनिया से भुखमरी खत्म करने का लक्ष्य भी कोसों पीछे छूट जाएगा।
भारत में पिछले चार दशकों में वर्षा की मात्रा में निरंतर गिरावट आ आई है। बीसवीं सदी के प्रारंभ में औसत वर्षा एक सौ इकतालीस सेंटीमीटर थी, जो नब्बे के दशक में कम होकर एक सौ उन्नीस सेंटीमीटर रह गई है। उत्तरी भारत में पेयजल का संकट तीव्रतर होता जा रहा है। यहां हर तीन साल में अकाल और सूखे की काली छाया मंडराती है। यही नहीं, गंगोत्री हिमनद हर साल तीस मीटर की दर से सिकुड़ रहा है।
अगर ऐसा होना जारी रहा तो आगामी कुछ दशकों में गंगा को भी सूखने से रोका नहीं जा सकेगा। ज्ञातव्य है कि उत्तराखंड की कोसी नदी पहले ही सूख कर 'वैश्विक तापमान' की व्यथा अभिव्यक्त कर रही है। देश के विभिन्न क्षेत्रों में भू-जलस्तर में तीव्र गिरावट दर्ज की जा रही है, जिसके कारण खेती के लिए सिंचाई व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लग गया है। पानी के अभाव में खेती घाटे का सौदा बन गई है। ऐसे में खेती को लेकर किसानों का रुझान कम होते जाना स्वाभाविक है, जो कि चिंता का विषय है।
गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण न केवल फसलों की पैदावार में कमी हो रही है, अपितु उत्पादन की गुणवत्ता में भी ह्रास हो रहा है। अनाज व अन्य खाद्य फसलों में पोषक तत्वों व प्रोटीन की कमी हो जाएगी, जिसके कारण संतुलित व पौष्टिक भोजन की व्यवस्था करना दिवा-स्वप्न मात्र बन कर रह जाएगा। भारत के लिए यह और ज्यादा चिंता का विषय है, क्योंकि हमारे देश की सत्तर प्रतिशत जनता खेती से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी है। कृषि ही उनके जीवन-यापन का मुख्य स्रोत है। वहीं भारत की जनसंख्या अभी 1.04 फीसद की सालाना दर से बढ़ रही है। इस दशक के अंत तक भारत की जनसंख्या डेढ़ अरब तक पहुंचने का अनुमान है, लेकिन इतनी बड़ी आबादी का पेट भरने के लिए खाद्यान उत्पादन में अनेक समस्याएं हैं।
जलवायु परिवर्तन न सिर्फ आजीविका, पानी की आपूर्ति और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहा है, बल्कि खाद्य सुरक्षा के लिए भी चुनौती खड़ी कर रहा है। ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि क्या भारत जलवायु परिवर्तन के खतरों के बीच आने वाले समय में इतनी बड़ी जनसंख्या का पेट भरने के लिए तैयार है? भारत आज जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनमें से खाद्य सुरक्षा की चुनौती सबसे बड़ी है। न सिर्फ भारत बल्कि अन्य विकाशील देशों के सामने भी ये चुनौतियां हैं। जैसे-जैसे चुनौतियां बढ़ रही हैं, हमें बड़ी तत्परता से काम करने की जरूरत है। साथ ही, जलवायु परिवर्तन के भयावह खतरों से निपटने के लिए प्रभावी रणनीति का क्रियान्वयन अतिशीघ्र किया जाना आवश्यक है।
जलवायु संकट और खाद्य सुरक्षा परस्पर एक दूसरे से संबंधित हैं। अत: एक चुनौती के समाधान हेतु दूसरे का समुचित प्रबंधन वांछनीय है। यह आवश्यक है कि कृषि के विभिन्न तरीकों का पुनरावलोकन कर सर्वाधिक उत्पादक एवं पर्यावरण को कम से कम क्षति पहुंचाने वाली तकनीकों का प्रयोग किया जाए। इसके लिए खाद्य और कृषि प्रणाली को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाने की जरूरत है।
साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का उचित इस्तेमाल करना होगा और खेती के बाद होने वाले नुकसान में कमी के साथ ही फसल की कटाई, भंडारण, पैकेजिंग, ढुलाई और विपणन की प्रक्रियाओं और बुनियादी ढांचे में सुधार करना होगा। इसके अलावा किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार और अंतरराष्ट्रीय नीतियों में आशावादी बदलाव वांछनीय है। इसके लिए विश्व-स्तर पर कृषि एवं पर्यावरण शोध से संबंधित तंत्र की आवश्यकता है। तभी हम आने वाले समय में नौ अरब से अधिक की जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने के साथ-साथ पर्यावरणीय ह्रास से होने वाले संकटों से भी बचा पाएंगे।
आज भी दुनिया उन्हीं सवालों से जूझ रही है, जो दशकों पहले हमारे सामने थे। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि पहले कमुकाबले स्थितियां और गंभीर ही हुई हैं। आर्थिक विकास के माडल लड़खड़ाने लगे हैं। भूख और खाद्य असुरक्षा ने न केवल गरीब देशों पर असर डाला है, बल्कि धनी देशों को भी परेशानी में डाल दिया है। आइपीसीसी की रिपोर्ट में बहुत साफ शब्दों में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान के बारे में पहले जो अनुमान लगाए गए थे,उनके मुकाबले नुकसान कहीं ज्यादा बड़ा होगा। सो, उसे रोकने का प्रयास भी बहुत बड़ा होना चाहिए और इसका बीड़ा विकसित देशों को ही उठाना है।