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महाभारत में सबसे बड़ा सवाल यही है कि योग्य कौन है और यदि कोई योग्य है तो उसे समाज द्वारा कैसे प्रोत्साहन दिया जाएगा
कपिल शर्मा। महाभारत में सबसे बड़ा सवाल यही है कि योग्य कौन है और यदि कोई योग्य है तो उसे समाज द्वारा कैसे प्रोत्साहन दिया जाएगा। समूचे विश्व में सामाजिक संघर्ष की एक बड़ी लड़ाई इसी सवाल के ईद-गिर्द ही घूमती है। वर्ष 1958 में ब्रिटिश समाजशास्त्री और राजनीतिज्ञ माइकल यंग ने एक पुस्तक लिखी- द राइज आफ मेरिटोक्रेसी। इस पुस्तक में उन्होंने एक ऐसे समाज की बात कही जहां व्यक्तियों को पद, सत्ता और आर्थिक संपन्नता उनकी योग्यता के आधार पर प्राप्त होगी। पश्चिमी देशों में आज भी इस तरह के मंतव्य के आधार पर योग्यता को मौका दिया जाता है। लेकिन इससे इतर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि योग्यता का पैमाना कैसे तय किया जाए कि कौन योग्य है और कौन नहीं।
योग्यता का निर्धारण करते समय प्रत्येक व्यक्ति को मिल रहे अवसरों की समानता, सामाजिक-आर्थिक और लैंगिक असमानता के स्तर को भी ध्यान में रखना होगा। ऐसे में सवाल उठता है कि जिस व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास का अवसर ही नहीं मिला, तो क्या वह अयोग्य माना जाएगा? हमारे जटिल समाज में विविध जाति, प्रजाति, धर्म, बोली, भाषा व लिंग पर आधारित तथ्यों और इन तथ्यों से जुड़ी असामनता से भी किसी व्यक्ति की योग्यता का निर्धारण होता है, इस बिंदु को नकारा नहीं जा सकता।
भारतीय संविधान के निर्माता इस बात से बहुत अच्छे से अवगत थे, इसलिए उन्होंने संविधान का निर्माण करते समय अवसरों की समानता को सुनिश्चित करने के लिए सामाजिक व आर्थिक न्याय की संकल्पना को भी पूरा स्थान दिया। निश्चित तौर पर समाज में सामाजिक व आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति की अगली पीढ़ी को जो अवसर प्राप्त होंगे, वे अवसर वंचित समुदाय की अगली पीढ़ी के लिए दूर की कौड़ी होंगे। ऐसे में सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए प्रयास करना किसी भी कल्याणकारी राज्य के लिए एक अनिवार्य पहलू है और कोई भी सभ्य समाज इस बिंदु को नकार नहीं सकता। वैसे हम देश-दुनिया के बड़े सफल नामों को देखें तो उनमें से बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो साधारण पृष्ठभूमि से ही आगे आए और अपनी जगह बनाने में कामयाब रहे। लेकिन ऐसे लोग गिनती के हैं और बड़ी संख्या में ऐसे ही लोग ज्यादा सफल हैं जो पीढ़ीगत तौर पर मजबूत स्थिति में रहे हैं। ऐसे में यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सामाजिक असमानता को नजरअंदाज कर केवल योग्यता मूलक समाज की परिकल्पना एक आदर्श राज्य की परिकल्पना है, जहां समाज में व्याप्त असमानताएं समाप्त हो चुकी हों।
लेकिन किसी जटिल समाज में सामाजिक न्याय ही भेदभाव का रूप न बन जाए और योग्यता के विकास को न रोक सके, यह कैसे सुनिश्चित किया जाए। भारत के संदर्भ में समाजशास्त्रियों का एक वर्ग यह भी मानता है कि यहां सामाजिक व आर्थिक न्याय को सुनिश्चित करने के क्रम में पिछड़ेपन की दौड़ भी प्रारंभ हुई है। लोकतंत्र में सामाजिक व आर्थिक न्याय का लक्ष्य असमानता को दूर करना था, लेकिन इसका एक विपरीत प्रभाव यह भी हुआ कि लोकतंत्र में संसाधनों में पहुंच स्थापित करने के लिए ज्यादा से ज्यादा समूह स्वयं को वंचित श्रेणी में लाना चाहते हैं।
इस असमानता के स्थायी चक्र को तोड़ कर सामाजिक व आर्थिक न्याय का विरोधी होने का आरोप कोई भी नहीं लेना चाहता। भारत में लोकतांत्रिक तंत्र का यह एक नकारात्मक प्रभाव है जो योग्यता के चुनाव में प्रभावी है। लेकिन एक अन्य सकरात्मक पहलू भी है, भूंमडलीकरण से उपजी बाजारी अर्थव्यवस्था और इंटरनेट मीडिया के उदय के बाद अब योग्यता के प्रदर्शन के लिए अवसर पहले से ज्यादा बेहतर है और यहां किसी व्यक्ति की पृष्ठभूमि से ज्यादा सफलता की गांरटी इस बात पर है कि उसके पास आइडिया क्या है और क्या वह आइडिया बाजार की जरूरतों को पूरा कर सकता है। क्या वह आइडिया लोकप्रियता हासिल कर सकता है और यदि ऐसा है तो कोई मूंगफली बेचने वाला भी रातों-रात इंटरनेट मीडिया सनसनी बन सकता है। बाजारवादी व्यवस्था की गलाकाट कमियों के बीच में यह एक बड़ा मौका भी है। युवाओं को बाजार से पैदा हो रहे इन मौकों का भरपूर फायदा उठाना चाहिए और अपनी योग्यता को साबित करना चाहिए।
निसंदेह किसी भी प्रगतिशील समाज में योग्यता के आधार पर ही प्रोत्साहन की नीति का विकास होना चाहिए, लेकिन सामाजिक व्यवस्था जटिल परिस्थितियों से बनती है। बाजार में खरीदारी करते समय व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार वस्तुएं और सेवाएं लेने का अधिकार होता है और वह अपनी सक्षम आय सीमा के भीतर ऐसा कर सकता है, लेकिन सामाजिक व्यवस्था में ऐसा नहीं होता और सभ्य लोकव्यवस्था इस मूल्य को स्थापित करने का प्रयास करती है कि समाज में असमानता का स्तर घटे और सामाजिक व आर्थिक न्याय सुनिश्चित हो। इसलिए हम खाद्य सुरक्षा, सब्सिडी और नौकरी में आरक्षण जैसे प्रविधानों को विकसित करते हैं। नीति निर्माण में कई काम ऐसे होते हैं जिनका लाभ सामाजिक व आर्थिक न्याय के परिणामस्वरूप ऐसे समूह को मिलता है जिन्हें इस लाभ के बदले में कोई कर नहीं देना होता है, लेकिन यह लाभ उस समूह से प्राप्त किया जाता है जो नियमित कर देता है। किसी भी योग्य व्यक्ति को अवसर प्राप्त न हो पाना केवल उस व्यक्ति के लिए अवसाद का विषय नहीं है, अपितु लोकव्यवस्था के लिए भी एक सवाल है और सफल लोकव्यवस्था वही है जो योग्यता के चुनाव में असमानता के स्तर को न्यूनतम कर दे।
ऐसे में किसी भी समाज में सफलता और असफलता को तय करने के ऐसे लचीले मानक विकसित किए जाएं जिनके द्वारा हर व्यक्ति अपने समूह और वर्ग के भीतर रहने के बावजूद योग्यता के सर्वाधिक मौकों को बिना किसी जन्मजात या थोपी गई असमानता के प्राप्त कर सके। योग्यता का सही चुनाव ही प्रगतिशील समाज की युवा जनशक्ति में ऊर्जा और मनोबल को बनाए रखता है। ऐसा समाज ज्यादा सर्जक, रचनात्मक, शांत और सद्भावपूर्ण होता है जहां युवाओं को अपनी योग्यता की पहचान का कोई संशय न हो।
( लेखक लोकतांत्रिक विषयों के जानकार हैं )
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