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रांची (Ranchi) शहर में मेरा बचपन बीता. रवीन्द्रनाथ टैगोर हिल वाला शहर बिग बाज़ार वाले शहर में तब्दील हो गया है
Vinay Bharat
रांची (Ranchi) शहर में मेरा बचपन बीता. रवीन्द्रनाथ टैगोर हिल वाला शहर बिग बाज़ार वाले शहर में तब्दील हो गया है. 80'- 90' के दशक का शहर बनता था, पुस्तकालय से, किताबों से, किताबों की गलियों से, स्कूल की गलियों से.
लोग घर का पता बताते थे, तो कहते थे कि फलाना किताब की दुकान से बायीं ओर मुड़ जाना. मैगजीन अखबार और किताब की दुकानें वो जॉइंट्स होते थे, जहां से किसी परिचित के घर का पता मालूम चलता था.
चाय का कल्चर नहीं था. पर पान और किताब की दूकान पूरी रौनक हुआ करती थी. तब लोग चाय घरों पे और अख़बार चौराहों पर साथ- साथ साझा करते थे.
वक्त के साथ, तस्वीरें बदलती रहीं
90 के दशक में, बूटी मोड से मेन रोड की ओर बढ़ते हुए चार मुक्कमल किताब की दुकानें हुआ करते थे. HEC रोड की तरफ से मेन रोड आने से लगभग 8 मैगजीन और किताबों की दुकान हुआ करती थी. कोकर चौक से मेन रोड की ओर बढ़ने वक्त तकरीबन छ: अच्छे बुक स्टॉल की मौजूदगी थी. रातू रोड से मेन रोड की ओर आने पर केवल 7 से 8 बेहतरीन किताबों की दुकान हुआ करती थी . आज हमारे शहर में तक़रीबन उन्हीं जॉइन्ट्स पर,जहां कभी किताब की दुकान हुआ करती थी, अब शराब की दुकानें खुल गई हैं.
लोग अगर इतने किताब पढ़ रहे हैं, तो किताब की दुकानें मर कैसे रही हैं आखिर!
चूँकि मैं छात्रों के साथ रहता हूँ, मुझे अच्छे से पता है, अधिकांश अब कोर्स बुक तक नहीं खरीद रहे. वे इंटरनेट नोट्स से काम चला रहे, क्योंकि सेमेस्टर सिस्टम में मार्क्स ऐसे भी मिल जा रहे. पर वे कैल्विन क्लिंस जींस और आदिदास के जूते खरीद रहे हैं.
अगर ये मान भी लिया जाए कि पेपरबुक की जगह लोग किंडल या ई–बुक्स ले रहे हैं तो भी इसका असर शहर की चाल-चलन पर क्यों नहीं दिख रहा? अगर किताब पढ़ने वाले का शहर में बढ़ रहे हैं,
तो शहर में होने वाले नाट्य-थियेटरों से भीड़ गायब क्यों है? पुस्तक प्रेमियों के बीच से आर्ट एंड थियेटर संस्कृति ,जो किताब पढ़ने वाले समाज की अंतिम चाहत होती है,क्यों नहीं पनप पा रही? किसी भी क्लासिकल-लोक नृत्य-गायन व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में कुर्सियां खाली क्यों रहती हैं?
लेकिन आज आलम यह है कि पब्स, डिस्को थेक, हुक्का बार जैसे जगहों पर पाँव रखने की जगह नहीं होती!
शहर की बदलती आबो–हवा ये बता रही है कि शहर से किताबें गायब हो चुकी हैं, वरना कभी शहर मात्र अमर चित्र कथा के मार्फत सही रास्ते पकड़ लिया करती थी.
हालाँकि ये भी एक कड़वा सच है कि ठेले पे किताब बेचने वाले को अब ये शहर वो इज्जत भी नहीं देता. उससे ज्यादा इज्जत ठेले पर चाय-चाउमीन बेचने वाले की है.

Rani Sahu
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