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नैशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस की ओर से जारी किए गए पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे के ताजा आंकड़ों के मुताबिक अक्टूबर से दिसंबर 2020 की तिमाही में शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी दर 10.3 फीसदी रही। ये लगातार तीसरी तिमाही रही,
नैशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) की ओर से जारी किए गए पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक अक्टूबर से दिसंबर 2020 की तिमाही में शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी दर 10.3 फीसदी रही। ये लगातार तीसरी तिमाही रही, जिसमें बेरोजगारी दर दस फीसदी से ऊपर दर्ज की गई, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इन तीनों तिमाहियों के दौरान लॉकडाउन के चलते आर्थिक गतिविधियां करीब-करीब ठप हो चुकी थीं। उस असाधारण स्थिति से आहिस्ते आहिस्ते उबरने की कहानी इन आंकड़ों में देखी जा सकती है।
इससे ठीक पहले की यानी जुलाई से सितंबर 2020 की तिमाही में शहरी बेरोजगारी दर 13.3 फीसदी थी। हालांकि इससे आगे की अवधि भी कम उतार-चढ़ाव वाली नहीं रही। कठिन दौर को पीछे छोड़कर जब अर्थव्यवस्था पटरी पर आती हुई दिखने लगी थी, तभी कोरोना की दूसरी प्रचंड लहर ने एक बार फिर जैसे सब तहस-नहस कर दिया। वैसे पहले दौर का अनुभव काम आया और महामारी का मुकाबला करते हुए भी सरकारों ने देशव्यापी लॉकडाउन के बदले विभिन्न क्षेत्रों में जरूरत के मुताबिक स्थानीय और सीमित लॉकडाउन की नीति अपनाई, जिससे आर्थिक गतिविधियां भी जहां तक संभव हो सका, चलती रहीं।
इसी का परिणाम था कि दूसरी लहर का कहर थमने के बाद इकॉनमी को दोबारा संभलने में पिछली बार जितनी कठिनाई नहीं हुई। इसी शुक्रवार को जारी इंडेक्स ऑफ इंडस्ट्रियल प्रॉडक्शन (आईआईपी) के आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं। इसके मुताबिक जुलाई के फैक्ट्री उत्पादन में 11.5 फीसदी की बढ़ोतरी को भले इस अर्थ में भ्रामक कहा जाए कि यह पिछले साल के लो बेस इफेक्ट की वजह से बेहतर दिख रही है, लेकिन यह तथ्य जरूर उत्साह बढ़ाने वाला है कि औद्योगिक उत्पादन महामारी से पहले वाले स्तर को छूने लगा है। निश्चित रूप से यह भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी मजबूती का संकेतक है।
मगर असली पेच बेरोजगारी पर ही फंसा हुआ है। सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक इस साल अगस्त में भी बेरोजगारी दर 8.3 फीसदी रही। पिछले महीने देश भर में 19 लाख लोगों को रोजगार गंवाना पड़ा। जाहिर है, इस स्थिति में लोगों की क्रय शक्ति तो कम होती ही है, उनकी क्रय-इच्छा पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। आसपास के लोगों की नौकरियां जाते देख जिनकी नौकरियां नहीं गई हैं, उनका मन भी आशंकित हो जाता है।
नतीजतन, जरूरत और क्षमता होते हुए भी वे खरीदारी की योजना स्थगित कर देते हैं। मांग की कमी की समस्या से जूझती अर्थव्यवस्था के लिए यह स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती। सरकार द्वारा कुछ दिनों पहले घोषित मॉनिटाइजेशन पॉलिसी के पीछे निवेश बढ़ाकर आर्थिक विकास दर तेज करने और रोजगार के मौके बनाने की मंशा है। लेकिन सही मंशा काफी नहीं है। चुनौती तो इस मंशा को अमली जामा पहनाते हुए जमीन पर उतारने की है।
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