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कहते हैं कि हर चीज की एक्सपायरी डेट होती है यानी हर चीज को किसी न किसी समय खत्म होना होता है।
कहते हैं कि हर चीज की एक्सपायरी डेट होती है यानी हर चीज को किसी न किसी समय खत्म होना होता है। क्या किसान आंदोलन धीरे धीरे एक्सपायरी डेट की तरफ बढ़ रहा है? आंदोलन पिछले 81 दिन से चल रहा है। कई राज्यों के किसान दिसंबर-जनवरी की भयावह ठंड के बीच दिल्ली की अलग-अलग सीमा पर डटे रहे। अब भी किसान दिल्ली की कई सीमाओं पर आंदोलन कर रहे हैं। पर कई कारणों से ऐसा लग रहा है कि आंदोलन की तीव्रता कम हो रही है। इसमें संदेह नहीं है कि आंदोलन का दायरा बढ़ रहा है। दिल्ली की सीमा से निकल कर यह आंदोलन देश के गावों में पहुंच रहा है। किसान नेता भी देश के दूसरे राज्यों का दौरा करने की तैयारी में हैं, जहां वे स्थानीय किसान संगठनों के साथ आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए समन्वय बनाने की बातचीत करेंगे।
देश के कई राज्यों में स्वंयस्फूर्त आंदोलन होने लगे हैं। दिल्ली से सटे हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कई शहरों और गांवों में किसान महापंचायत हुई है, जिनकी तस्वीरों और वीडियो से जाहिर हुआ है कि आंदोलन की चिंगारी दूर-दराज के क्षेत्रों में पहुंच रही है। हरियाणा के जींद के मशहूर कंडेला गांव में हुई महापंचायत में हजारों की संख्या में लोग जुटे थे। हरियाणा के ही दादरी और खटकड़ में भी बड़ी किसान पंचायतें लगीं। उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर में बड़ी महापंचायत हुई थी, जिसके बाद शामली, बिजनौर, बागपत, मथुरा और अमरोहा में किसानों की पंचायत हुई। सहारनपुर की किसान महापंचायत में हजारों की भीड़ जुटी, जिसमें कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा भी शामिल हुई थीं। राजस्थान में कई जगह किसान महापंचायत हुई और राहुल गांधी के दो दिन के दौरे में कई रैलियां भी हुईं। कर्नाटक में किसानों ने आंदोलन किया तो बिहार में पटना और पूर्णिया में किसानों का प्रदर्शन हुआ। किसान महापंचायत का चेहरा बन कर उभरे राकेश टिकैत हरियाणा के अलावा महाराष्ट्र और राजस्थान के दौरे पर जाने वाले हैं ताकि आंदोलन का विस्तार किया जाए।
इससे यह तो जाहिर हो रहा है कि किसान आंदोलन का दायरा बढ़ रहा है। लेकिन आंदोलन के केंद्र में यानी दिल्ली की सीमा पर इसकी तीव्रता कम हो रही है। आंदोलन को लंबा चलाए रखने की तैयारी के बावजूद ऐसा लग रहा है कि आंदोलन का पुराना जोश नदारद है। राकेश टिकैत ने सरकार को दो अक्टूबर तक की समय सीमा दी है और कहा है कि उसके बाद किसान तय करेंगे कि आगे क्या करना है। लेकिन दो अक्टूबर में अभी बहुत समय है। यह समझ में नहीं आने वाली बात है कि इतनी दूर की समय सीमा तय करने के पीछे क्या सोच है? ध्यान रहे किसान आंदोलन अभी ढाई महीने का हुआ है और दो अक्टूबर आने में साढ़े सात महीने बाकी हैं। 26 नवंबर से चल रहे किसान आंदोलन को बारीकी से देखें तो दिखाई देगा कि शुरुआती जोश, उत्साह, बेचैनी आदि सब धीरे धीरे कम होता जा रहा है। अब एक किस्म की शांति और स्थिरता दिखाई दे रही है। जब ढाई महीने में आंदोलन की तीव्रता इतनी कम हो गई तो सोचा जा सकता है कि अगर सचमुच साढ़े सात महीने और किसानों को बैठना पड़ा तो क्या स्थिति बनेगी? दो अक्टूबर तक आंदोलन चलने की संभावना मात्र से किसानों का जोश और उत्साह ठंडा हुआ है। आंदोलन की तीव्रता बनाए रखने के लिए सबसे जरूरी यह होता है कि लक्ष्य हासिल करने की समय सीमा छोटी रही और छोटे-छोटे अंतराल पर कुछ न कुछ कार्यक्रम होता रहे। लंबी समय सीमा आंदोलन में शामिल लोगों और दूर से इसका समर्थन करने वालों को शिथिल और बहुत हद तक लापरवाह बना देती है।
यह ध्यान रखना होगा कि आंदोलन का लंबा चलना किसी नतीजे की गारंटी नहीं होती है। नतीजे की गारंटी आंदोलन की तीव्रता से होती है। जैसे अन्ना हजारे का आंदोलन दो हफ्ते से कम का था लेकिन उस आंदोलन ने सरकार को मजबूर किया कि वह संसद में लोकपाल का बिल पास करे और कानून बनाए। कह सकते हैं कि वह समय अलग था और सरकार भी अलग लोगों की थी, यह सरकार वैसे झुकने वाली नहीं है। ध्यान रहे कोई भी सरकार झुकने वाली नहीं होती है। वह समझौता तभी करती है, जब आंदोलन का दबाव महसूस करती है। कोई भी आंदोलन चाहे कितना ही पवित्र और नैतिक क्यों न हो अगर उसमें तीव्रता नहीं है तो सरकारें समझौता नहीं करती हैं। मिसाल के तौर पर इरोम शर्मिला के आंदोलन को देखा जा सकता है। उनको 'आयरन लेडी ऑफ मणिपुर' कहते हैं और 2014 में एमएसएन के एक पोल में उनको 'टॉप वूमन आइकॉन ऑफ इंडिया' चुना गया था। वे सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को अपने राज्य से हटवाने के लिए 16 साल तक भूख हड़ताल पर रहीं। उस दौरान बारी-बारी से भाजपा और कांग्रेस दोनों की सरकारें रहीं पर किसी ने उनके आंदोलन पर ध्यान नहीं दिया।
उनके आंदोलन का उद्देश्य पवित्र था और साधन भी पवित्र था। सही अर्थों में वह एक गांधीवादी आंदोलन था पर किसी को उसकी परवाह नहीं थी क्योंकि आंदोलन में तीव्रता नहीं थी। तीव्रता का मतलब किसी किस्म की हिंसा या आक्रामकता नहीं होती है। किसान आंदोलन के दौरान 26 जनवरी से पहले तक न कोई हिंसा हुई थी और न कहीं आक्रामकता थी, लेकिन आंदोलन में जोश था, उत्साह था, आंदोलन में शामिल लोगों में अपना लक्ष्य हासिल करने की बेचैनी थी और यहीं तीव्रता होती है, जो किसी आंदोलन को सफल बनाती है। 26 जनवरी की हिंसा के बाद तो उलटे वह भाव गायब हो गया। क्या यह 26 जनवरी को हुई घटना का अपराध बोध है? या 26 जनवरी को हुई घटना का दोहराव रोकने के लिए बरती जा रही अतिरिक्त सावधानी की वजह से ऐसा हो रहा है? या कहीं यह शिथिलता आंदोलन का चेहरा और केंद्र बदलने की अनिवार्य परिणति तो नहीं है?
ध्यान रहे गणतंत्र दिवस के दिन ट्रैक्टर परेड के दौरान पुलिस और किसानों के बीच हुई झड़प के बाद आंदोलन का पूरा स्वरूप बदल गया है। आंदोलन के पहले दो महीने में सरकार अपने तमाम साधनों के बावजूद जो नहीं कर पाई थी वह गणतंत्र दिवस की घटना ने कर दिया। किसान दबाव में आ गए। आंदोलन और उसके तरीके को लेकर संदेह पैदा हुआ। सरकार को आम लोगों के बीच आंदोलन विरोधी धारणा बनवाने में कामयाबी मिली और इस घटना के बाद ही आंदोलन का नेतृत्व बदल गया। पंजाब और हरियाणा के किसान नेताओं की जगह उत्तर प्रदेश के राकेश टिकैत आंदोलन का चेहरा बन गए और अपने आप नेतृत्व भी उनके हाथ में आ गया। इसके बाद ही पहली बार किसान आंदोलन में दरार भी दिखी। छह फरवरी को किसानों के चक्का जाम को लेकर टिकैत ने एकतरफा ऐलान किया कि दिल्ली, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को इससे बाहर रखा जाएगा।
इसके बावजूद टिकैत की प्रतिबद्धता पर कोई सवाल नहीं है लेकिन उनका नेतृत्व आंदोलन को वह धार नहीं दे पाया, जिससे सरकार के ऊपर दबाव बने। सरकार ने 22 जनवरी से बातचीत बंद कर रखी है। प्रधानमंत्री ने पहले 30 जनवरी को सर्वदलीय बैठक में और फिर आठ व दस फरवरी को संसद में कहा कि सरकार किसानों से बातचीत के लिए तैयार है। किसानों ने हर बार सकारात्मक प्रतिक्रिया दी पर सरकार से बातचीत नहीं शुरू हो पाई। इससे जाहिर हो रहा है कि सरकार ने आंदोलन को रूटीन में ढाल दिया है। सरकार के इस रुख से किसान संगठनों में आंदोलन को लेकर संशय पैदा हो रहा है। आंदोलन में शामिल किसान भी थकने लगे हैं और जैसे जैसे बैसाखी नजदीक आ रही है यानी फसल कटने का समय नजदीक आ रहा है वैसे वैसे किसानों की बेचैनी भी बढ़ रही है।
इस बीच एक और बदलाव यह हुआ कि कमजोर होते आंदोलन को थामने के लिए राजनीतिक दलों ने हाथ बढ़ाया, जिसे किसान संगठनों ने थाम भी लिया। इस वजह से भी आंदोलन का स्वरूप बदल गया है और एडवांटेज सरकार के हाथ में चली गई है। अब किसानों के सामने बड़ी चुनौती आंदोलन में पुरानी तीव्रता लौटाने की है। यह तब होगा, जब आंदोलन में शामिल लोगों के मन में लक्ष्य हासिल करने का भरोसा बने और आंदोलन की कमान संभाल रहे नेता अपनी तरफ से ऐसी अव्यावहारिक समय सीमा न तय करें, जिससे आंदोलन में शिथिलता आए।
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