सम्पादकीय

पिंजरा चाहे सोने-चांदी का हो, खुले आसमान से अच्छा नहीं हो सकता

Gulabi Jagat
16 March 2022 7:59 AM GMT
पिंजरा चाहे सोने-चांदी का हो, खुले आसमान से अच्छा नहीं हो सकता
x
जिंदगी पिंजरे में कैद परिंदों की तरह है। जैसे किसी पक्षी के भाग्य में लिखा हो कि उसे पिंजरे तो एक से बढ़कर एक मिलेंगे
पं. विजयशंकर मेहता का कॉलम:
जिंदगी पिंजरे में कैद परिंदों की तरह है। जैसे किसी पक्षी के भाग्य में लिखा हो कि उसे पिंजरे तो एक से बढ़कर एक मिलेंगे। चांदी का हो सकता है, सोने का हो सकता है, बड़ा हो सकता है, लेकिन उड़ने के लिए खुला आसमान नहीं मिलेगा। हमारा जीवन भी ऐसा ही है। कभी घर-परिवार की जिम्मेदारी, कभी नौकरी-धंधे की व्यस्तताएं, कभी समाज के प्रति दायित्व बोध, ये सब हमारे पिंजरे हैं और इन्हीं के भीतर रहते हुए हमें मौज भी बचाए रखना है।
चींटी से कुछ सीखा जाए। बात लगती थोड़ी अविश्वसनीय है, पर है सही कि वह अपने वजन से 1300 गुना ज्यादा भार उठा सकती है। तो मनुष्य क्या नहीं कर सकता? छोटे-से दुख को भारी बना सकता है, और बड़े से बड़े दुख को हल्का बनाकर आगे बढ़ सकता है। इसलिए दिनभर में एक या कुछ बार अपने जीवन को देखिएगा जरूर। जीवन को देखा जा सकता है। इस मामले में जिंदगी और आईना एक जैसे हैं।
आईने को बहुत पास से देखें तो कुछ नहीं दिखता, ज्यादा दूर कर लेंगे तो भी चेहरा साफ नहीं दिखेगा। एक निश्चित दूरी जरूरी है चेहरे और दर्पण के बीच। ठीक ऐसा ही जीवन के साथ है। यहां भी एक निश्चित दूरी बनाइए, जो होगी शरीर से आत्मा के बीच। इन दोनों के बीच होता है मन। थोड़ा-सा उसे हटाइए, अपने शरीर से अपनी आत्मा पर देखिए। जीवन दिखेगा, और जीवन को देखना ही सही ढंग से जीना है।
Next Story