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केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू (Kiren Rijiju) ने यह सही कहा कि जज 50 मामलों का निपटारा करते हैं तो 100 और मामले आ जाते हैं
सोर्स- Jagran
केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू (Kiren Rijiju) ने यह सही कहा कि जज 50 मामलों का निपटारा करते हैं तो 100 और मामले आ जाते हैं। चूंकि यह सिलसिला खत्म होते हुए नहीं दिखता इसलिए लंबित मुकदमों (Pending Cases) के बढ़ते बोझ से छुटकारा मिलने के आसार भी नहीं। देश भर में लगभग पांच करोड़ मामले लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट में भी करीब 72 हजार मामले लंबित हैं।
किरण रिजिजू ने यह भरोसा दिलाया है कि लंबित मुकदमों के बोझ को कम करने के लिए तकनीक का सहारा लेने के अतिरिक्त मध्यस्थता को लेकर एक कानून बनाने की तैयारी भी हो रही है। हो सकता है कि इससे कुछ राहत मिले, लेकिन यह समझा जाना चाहिए कि जब तक न्यायिक तंत्र में ठोस सुधार करके तारीख पर तारीख के सिलसिले को खत्म नहीं किया जाता, तब तक बात बनने वाली नहीं है।
यह निराशाजनक है कि न्यायिक तंत्र में व्यापक सुधार कर मुकदमों के शीघ्र निस्तारण की आवश्यकता पर बातें तो खूब की जाती हैं, लेकिन उसे पूरा करने के लिए जैसे कदम उठाए जाने चाहिए, वैसे नहीं उठाए जा रहे हैं। इस मामले में कभी न्यायाधीश कार्यपालिका को उसकी जिम्मेदारी की याद दिलाते हैं तो कभी कार्यपालिका के प्रतिनिधि गेंद न्यायपालिका के पाले में डाल देते हैं। यह सिलसिला बीते तीन दशक से चला आ रहा है और फिर भी नतीजा ढाक के तीन पात वाला है। ऐसा इसीलिए है, क्योंकि कार्यपालिका और न्यायपालिका एकमत होकर अपने-अपने हिस्से की जिम्मेदारी उठाने को तत्पर नहीं।
कई बार यह देखने में आया है कि यदि कभी एक पक्ष ने पहल की तो दूसरे पक्ष ने सकारात्मक रवैये का परिचय नहीं दिया। आखिर ऐसे कैसे काम चलेगा? जनता का भला तभी हो सकता है, जब दोनों पक्ष एकजुट होकर आवश्यक हो चुके न्यायिक सुधारों को आगे बढ़ाएं। जैसे गत दिवस कानून मंत्री ने लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या पर चिंता जताई, वैसे ही सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमणा (N V Ramana) ने भी। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि लोगों का न्यायपालिका पर से भरोसा उठा तो लोकतंत्र को खतरा होगा, लेकिन केवल चिंता जताने अथवा समस्या का उल्लेख करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है।
आखिर ऐसे कदम क्यों नहीं उठाए जा सकते, जिससे मुकदमों का निस्तारण एक तय समय सीमा में हो सके? इसी तरह उन कारणों का निवारण प्राथमिकता के आधार पर क्यों नहीं हो सकता, जिनके चलते कुछ मामलों का निपटारा होने में दशकों लग जाते हैं? उचित यह होगा कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के नीति-नियंता यह समझें कि न्याय में देरी अन्याय है और इस देरी के चलते अब जनता का धैर्य जवाब देने लगा है।
Rani Sahu
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